यह कथा महाभारत के आदि पर्व में वर्णित है, जिसमें महर्षि रुरु ने अपनी पत्नी प्रमद्वरा के प्राण यमराज की कृपा से पुनः प्राप्त किए। महर्षि भृगु के वंशज रुरु का विवाह महर्षि स्थूलकेश की दत्तक पुत्री प्रमद्वरा से तय हुआ था, जो अपनी सुंदरता से अप्सराओं को भी लज्जित करती थीं। विवाह से पूर्व, एक दिन प्रमद्वरा को वन में विषधर सर्प ने डस लिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। रुरु, अपनी प्रियतमा की मृत्यु से अत्यंत दुखी होकर तपस्वी वन में गए और उन्होंने अपनी प्रार्थना में अपने पुण्य और तपस्या का आह्वान करते हुए प्रमद्वरा को जीवित करने की प्रार्थना की।
उनकी पुकार सुनकर एक देवदूत प्रकट हुए और रुरु को बताया कि यदि वे अपनी आधी आयु प्रमद्वरा को दे दें, तो वह पुनः जीवित हो सकती है। रुरु ने अपनी आधी आयु देकर अपनी पत्नी को जीवनदान दिया, और यमराज की कृपा से प्रमद्वरा पुनः जीवित हो गईं। इसके बाद, रुरु और प्रमद्वरा का विवाह हुआ, लेकिन रुरु का सर्पों के प्रति क्रोध बना रहा। एक दिन उन्होंने एक निर्दोष सर्प पर प्रहार करने का प्रयास किया, तब उस सर्प ने अपने पूर्वजन्म का रहस्य बताया। वह सर्प पूर्वजन्म में सहस्रपाद ऋषि थे, जो एक श्राप के कारण सर्प बने थे। रुरु के परिचय देने पर सहस्रपाद को श्राप से मुक्ति मिली।
रुरु ने सर्पों की हिंसा छोड़ दी और प्रायश्चित किया। बाद में रुरु और प्रमद्वरा के पुत्र शुनक हुए, जिनसे शौनक ऋषि का जन्म हुआ।