मिथिला के महाराज के दरबार में गोनू झा का सम्मान दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। उनकी चतुराई और बुद्धिमानी के चर्चे पूरे दरबार में होते थे, जिससे अन्य दरबारी उनसे ईर्ष्या करने लगे थे। हालाँकि, कोई भी उनके सामने कुछ कहने का साहस नहीं कर पाता था।
महाराज के दरबार में एक हजाम भी था, जो गोनू झा से विशेष रूप से जलता था। धीरे-धीरे उसने दरबार के अन्य ईर्ष्यालु दरबारियों से दोस्ती कर ली और उनका विश्वासपात्र बन गया। वह हजाम बहुत चालाक और धूर्त था। एक दिन, महाराज ने खुले दरबार में गोनू झा की प्रशंसा की, जिससे अन्य दरबारी जल-भुनकर रह गए। हजाम इसी दिन की प्रतीक्षा में था। उसने दरबारियों से कहा कि यदि वे साथ दें, तो वह ऐसा उपाय करेगा जिससे गोनू झा की हमेशा के लिए छुट्टी हो जाएगी। दरबारियों ने उसके साथ देने का वादा किया, और हजाम ने अपनी योजना पर काम शुरू कर दिया।
महाराज के पिता की कुछ समय पहले ही मृत्यु हो गई थी, और उनके सम्मान में राजमहल के सामने उनकी समाधि बनाई गई थी। महाराज का रोज़ का नियम था कि वे सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर सबसे पहले अपने पिता की समाधि पर जाते, वहाँ फूल चढ़ाते, और फिर राजभवन पहुँचकर राज-काज में लगते। हजाम इस बात को जानता था और उसने अपने षड्यंत्र की योजना इसी के इर्द-गिर्द बनाई।
एक दिन, जब महाराज समाधि पर पुष्प अर्पित करने पहुँचे, तो उन्होंने वहाँ एक मुड़ा हुआ कागज देखा। कागज खोलने पर उन्हें एक पत्र मिला, जो उनके पिता के नाम से लिखा हुआ था। पत्र में लिखा था:
"मेरे पुत्र, मुझे स्वर्ग में स्थान मिल गया है, और यहाँ किसी चीज की कोई कमी नहीं है। लेकिन मेरे पास एक अच्छे पंडित की कमी है जो मेरे पूजन-कार्य को सम्पन्न कर सके। अच्छा होता यदि तुम अपने दरबारी गोनू झा को मेरे पास भेज देते। मैं तुम्हें सीधे स्वर्ग पहुँचाने का तरीका भेज रहा हूँ। अपने राज्य के पूर्वी श्मशान के टीले पर गोनू झा को बैठाकर उस पर दो खेतों के पुआल डलवाकर आग लगवा दो। पवित्र अग्नि की लौ और धुएँ के साथ उसकी आत्मा को सीधे स्वर्ग में प्रवेश मिल जाएगा। इस कार्य को यथाशीघ्र पूरा करो। तुम्हारा पिता।”
पत्र पढ़कर महाराज असमंजस में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि स्वर्ग से पत्र कैसे आ सकता है। लेकिन जब उन्होंने यह सवाल दरबार में उठाया, तो हजाम ने चतुराई से कहा, "महाराज, स्वर्ग लोक में देवताओं के लिए सब कुछ संभव है।" अन्य दरबारियों ने भी हजाम का समर्थन किया।
गोनू झा समझ गए कि यह उनके खिलाफ एक षड्यंत्र है, लेकिन उन्होंने साहस के साथ कहा, "महाराज, मैं स्वर्गारोहण के लिए तैयार हूँ, लेकिन मुझे तीन माह का समय चाहिए।" महाराज ने यह समय उन्हें दे दिया।
तीन महीने बाद, गोनू झा पूर्वी श्मशान के टीले पर पहुँचे। उन्हें पुआल से ढक दिया गया और आग लगा दी गई। आग तीन दिनों तक जलती रही, और लोग मान बैठे कि गोनू झा का स्वर्गारोहण हो गया है। दरबारियों में खुशी थी, लेकिन महाराज दुखी थे।
तीन महीने बाद, दरबार में अचानक गोनू झा मुस्कुराते हुए दाखिल हुए। उन्हें देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। महाराज भी चौंक उठे, सोचने लगे कि कहीं वे स्वप्न तो नहीं देख रहे। लेकिन यह सच था। गोनू झा ने महाराज को एक पत्र दिया और ऊँची आवाज़ में कहा, "महाराज, आपके पिता कुशल से हैं और उन्होंने मुझे इस पत्र के साथ धरती पर भेजा है।"
महाराज ने पत्र खोला और उसे पढ़ना शुरू किया। पत्र में लिखा था:"पुत्र, गोनू झा ने मुझे पूजन-कार्य के नियम सिखा दिए हैं, इसलिए उसे मैं वापस भेज रहा हूँ। स्वर्ग में देवताओं को दाढ़ी बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, इसलिए यहाँ कोई हजाम नहीं है। मेरी दाढ़ी और बाल बढ़ गए हैं। अब तुम अपने दरबार के हजाम को उसी विधि से स्वर्ग भेजो, जिस विधि से गोनू झा को भेजा था। तुम्हारा पिता।”
यह पत्र सुनते ही दरबार में सन्नाटा छा गया। हजाम की हालत खराब हो गई। वह घबराते हुए महाराज के पास पहुँचा और बोला, "महाराज, यह झूठ है। वह पत्र स्वर्ग से नहीं आया था, उसे मैंने ही लिखा था। मुझसे गलती हो गई है, कृपया मेरी जान बख्श दीजिए।"
महाराज यह सुनकर क्रोधित हुए और बोले, "इस दुष्टचेष्टा के लिए हजाम को फाँसी पर लटकाया जाना चाहिए।" लेकिन गोनू झा ने महाराज से अनुनय-विनय की और हजाम को प्राणदंड से मुक्त कर दिया। हालाँकि, महाराज ने हजाम को कारागार में डालने का आदेश दे दिया।
इस तरह, गोनू झा की चतुराई और सूझबूझ ने उन्हें न केवल जीवनदान दिलाया, बल्कि षड्यंत्रकारी हजाम को भी उसकी करनी का फल भोगने पर मजबूर कर दिया।