एक बार महादेव शिव ने अपने तेज को समुद्र में फेंक दिया, जिससे एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। वह बालक बड़ा होकर जालंधर नामक महाशक्तिशाली दैत्य राजा बना। जालंधर का विवाह अत्यंत पतिव्रता वृंदा से हुआ, जो राजा कालनेमी की पुत्री थी। वृंदा की पतिव्रता शक्ति के कारण जालंधर को कोई हरा नहीं सकता था, और इसी वजह से वह अजेय बना रहा।
जालंधर ने अपनी शक्ति के मद में देवी लक्ष्मी को प्राप्त करने का प्रयास किया, पर देवी लक्ष्मी ने उसे अपना भाई मान लिया, जिससे वह असफल रहा। इसके बाद उसने देवी पार्वती को पाने की कोशिश की, लेकिन पार्वती ने उसे पहचान लिया और वह वहां से अंतर्ध्यान हो गईं। क्रोधित होकर देवी ने यह सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया।
पतिव्रता वृंदा की परीक्षा और भगवान विष्णु का माया-जाल
जालंधर की मृत्यु के लिए जरूरी था कि वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग हो। इसीलिए भगवान विष्णु ने ऋषि का रूप धारण कर माया रची। एक दिन जब वृंदा वन में अकेली भ्रमण कर रही थीं, भगवान वहां पहुंचे और कुछ मायावी राक्षसों को भी साथ लाए, जिन्हें उन्होंने वृंदा के सामने नष्ट कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा प्रभावित हुई और उसने उनसे अपने पति के बारे में पूछा। भगवान ने माया रचकर जालंधर का कटा हुआ सिर और धड़ प्रकट किया, जिसे देख वृंदा अत्यंत दुखी हो गईं। वृंदा ने भगवान से अपने पति को जीवित करने की विनती की। भगवान ने माया से जालंधर का रूप धारण कर उसके साथ समय बिताया, जिससे वृंदा का पतिव्रत भंग हो गया। उसी समय जालंधर की मृत्यु हो गई।
भगवान विष्णु को श्राप और तुलसी का जन्म
वृंदा ने जब यह छल जाना, तो क्रोधित होकर भगवान विष्णु को शाप दिया कि वे पत्थर के शालिग्राम बन जाएं। भगवान ने यह शाप सहर्ष स्वीकार किया। देवी-देवताओं की प्रार्थना पर वृंदा ने भगवान को शाप मुक्त कर दिया, लेकिन स्वयं आत्मदाह कर लिया। जहाँ वृंदा की भस्म पड़ी, वहाँ से तुलसी का पौधा प्रकट हुआ।
भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा, "हे वृंदा, तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी।" तभी से कार्तिक माह के देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का आयोजन होता है। इस दिन जो तुलसी और शालिग्राम का विवाह करता है, उसे इस लोक और परलोक में यश और पुण्य की प्राप्ति होती है।
एक अन्य कथा के अनुसार कार्तिक महीने में एक बुढ़िया रोज तुलसी माता की सेवा करती और प्रार्थना करती, "हे तुलसी माता, मुझे बहु, पीतांबर की धोती, मीठा गास, बैकुंठ धाम, चटक चाल, पटक की मोत, चंदन का काठ, रानी सा राज, दाल-भात का भोजन, और मृत्यु के समय कृष्ण जी का कंधा मिल जाए।" तुलसी माता, उसकी इस प्रार्थना से असमंजस में आ गईं, विशेषकर कृष्ण का कंधा देने की बात पर।
भगवान विष्णु ने तुलसी माता को आश्वासन दिया कि वह बुढ़िया माई के मरने पर कंधा देने स्वयं आएंगे। जब बुढ़िया की मृत्यु का समय आया, तो भगवान बालक का रूप धारण कर आए। बालक ने उसके कान में मंत्र फूंककर उसे मुक्ति दी और कंधा देकर उसका अंतिम संस्कार किया।
तुलसी माता ने बुढ़िया को मुक्ति दी, और यह मान्यता है कि जिस घर में तुलसी होती है, वहाँ असमय यम के दूत नहीं आते। मृत्यु के समय तुलसी और गंगा जल का सेवन करने से व्यक्ति पाप मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त करता है।