विनोद kumar झा Khabar Morning
"पाप और अधर्म का प्रभाव चाहे जितना भी प्रबल हो, धर्म और तपस्या से उसे हराया जा सकता है। भगवान का नाम और सत्य के मार्ग पर चलने से जीवन का उद्धार संभव है।"
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार कुछ अनसुनी कथाएं जो प्रचलित नहीं है लेकिन सच्चाई है आइए जानते हैं:- मृत्यु देवता की कन्या सुनीथा बचपन से ही अपने पिता के न्यायपूर्ण आचरण को देखती आ रही थी। वह सहेलियों के साथ खेलते हुए अपने पिता की धार्मिकता और पापियों को दंड देने के कार्य का अनुकरण करती। एक बार खेलते हुए सुनीथा ने एक तपस्वी गन्धर्वकुमार को देखा, जो सरस्वती की आराधना में लीन था। भोलेपन में उसने उस पर कोड़े बरसाने शुरू कर दिए। यह उसका खेल था, लेकिन गन्धर्वकुमार के लिए यह एक अपमानजनक कृत्य था।
गन्धर्वकुमार ने उसे समझाते हुए कहा, "भले लोग मारने वाले को मारते नहीं और गाली देने वाले को गाली नहीं देते। यही धर्म की मर्यादा है।" इस कृत्य से गन्धर्वकुमार ने सुनीथा को श्राप दे दिया, जिससे उसका जीवन कठिन हो गया।
सुनीथा का विवाह और तपस्या
वयस्क होने पर, सुनीथा के पिता को उसकी शादी की चिंता हुई। देवताओं और मुनियों से बात की गई, लेकिन सभी ने श्राप का हवाला देकर विवाह का प्रस्ताव ठुकरा दिया। विवाह न होने के कारण सुनीथा ने वन में जाकर तपस्या शुरू कर दी। उसकी सखियां, जिनमें रम्भा प्रमुख थीं, उसकी सहायता के लिए आईं। रम्भा ने उसे पुरुषों को मोहित करने वाली विद्या सिखाई, जिसे सुनीथा ने सिद्ध कर लिया।
अंग मुनि से मिलन
एक दिन गंगा तट पर सुनीथा की भेंट अत्रि मुनि के पुत्र अंग से हुई। अंग मुनि तपस्या में लीन थे, लेकिन सुनीथा के अद्वितीय रूप और संगीत ने उनका ध्यान भंग कर दिया। रम्भा ने अंग मुनि को सुनीथा के गुणों से परिचित कराया। अंग, जो भगवान विष्णु से पुत्र प्राप्ति का वरदान पा चुके थे, सुनीथा को पाकर प्रसन्न हुए। दोनों का गान्धर्व विवाह संपन्न हुआ।
वेन का जन्म और राज्यारोहण
वरदान के प्रभाव से सुनीथा और अंग को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम वेन रखा गया। वेन ने वेद, दर्शन और धनुर्वेद में निपुणता प्राप्त की। उसके शील और सौजन्य ने उसे प्रजा का प्रिय बना दिया। समय आने पर, प्रजाजनों ने वेन को राजा बना दिया। उसके शासन में सुख और शांति का वातावरण बन गया।
शाप का प्रभाव और वेन की नास्तिकता
गन्धर्वकुमार का शाप अभी भी प्रभावी था। एक दिन वेन की भेंट एक घोर नास्तिक से हुई, जिसने उस पर बुरा प्रभाव डाला। वेन ने वैदिक कर्मकांडों और धर्म को तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। उसने राज्य में सभी धार्मिक अनुष्ठानों पर रोक लगा दी। यह देखकर प्रजा दुखी हो गई।
सप्तर्षियों का हस्तक्षेप
सप्तर्षि वेन को धर्म के मार्ग पर लाने के लिए आए। उन्होंने वेन को समझाने का प्रयास किया, लेकिन वेन ने अहंकारपूर्वक उनकी बातों को ठुकरा दिया। अंततः सप्तर्षियों ने वेन के शरीर से पाप को निकालने का निर्णय लिया। उन्होंने वेन के बाएं हाथ को मथकर उससे एक काले-कलूटे पुरुष को उत्पन्न किया, जो उसके पाप का प्रतीक था।
पृथु का जन्म और वेन का उद्धार
इस बीच, पाप के प्रतीक बने राजा वेन का उल्लेख भी आता है। सप्तर्षियों ने जब राजा वेन को सुधारने का प्रयास किया, तो उनके शरीर से पाप को अलग कर दिया। इससे पृथु का जन्म हुआ, इसके बाद सप्तर्षियों ने वेन के दाहिने हाथ को मथा, जिससे भगवान विष्णु ने पृथु के रूप में अवतार लिया। पृथु ने प्रजा को धर्म के मार्ग पर चलाया और वैदिक कर्मकांडों की पुनः स्थापना की।
राजा वेन, जो पहले अधर्म के प्रतीक थे, सप्तर्षियों की कृपा और कठोर तपस्या से अपनी नास्तिकता त्यागकर धर्म के मार्ग पर लौट आए। भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन देकर जीवन के उद्देश्यों को बताया।