विनोद kumar झा
#गीता पुराण के अनुसार, आत्मज्ञान और उद्धार के लिए तीव्र जिज्ञासा, श्रद्धा और विश्वास आवश्यक हैं। गुरु-शिष्य संबंध का महत्व तभी है, जब साधक के भीतर सच्ची ज्ञान की चाह हो। गीता हमें बाहरी विधियों पर निर्भर न होकर आत्ममंथन और आत्मशक्ति पर भरोसा करने की प्रेरणा देती है। #
गीता का संदेश सार्वभौम है, जो किसी विशेष संप्रदाय या विधि तक सीमित नहीं है। यह मानव मात्र के कल्याण हेतु है। अर्जुन को गीता का उपदेश तब मिला, जब उनके भीतर आत्मकल्याण की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानने के बजाय अपने कल्याण की जिज्ञासा को प्रमुखता दी।
ग्रन्थस्य कृष्णस्य कृपा सतां च सर्वत्र सर्वेषु च विद्यमाना।
यावन्न ताच्छूद्धद्धते मनुष्य- स्तावन्न साक्षाकुरुते स्वबोधम् ।।
पौराणिक कथा के अनुसार अर्जुन हरदम भगवान के साथ ही रहते थे। भगवान के साथ ही खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते थे, परंतु भगवान ने उनको गीता का उपदेश तभी दिया, जब उनके भीतर अपने श्रेय की, कल्याण की, उद्धार की इच्छा जागृत हो गई
गीता बाहरी विधियों से अधिक आंतरिक भावना, विवेक, त्याग, और जिज्ञासा को महत्व देती है। इसका उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने-आप अपने उद्धार की प्रेरणा पाए- "उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानम्" (6/5)।
गुरु-शिष्य परंपरा का स्थान
गीता में ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु की आवश्यकता पर चर्चा हुई है, जैसे "प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया" (4/34)। लेकिन यह भी कहा गया है कि तीव्र जिज्ञासा के बिना गुरु का उपदेश भी व्यर्थ है। तीव्र जिज्ञासा रखने वाला साधक, भगवत्कृपा से, संत-महात्माओं, शास्त्रों या परिस्थितियों से आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
गुरु बनाने मात्र से ज्ञान नहीं मिलता। श्रद्धा, विश्वास और स्वीकृति के बिना साक्षात भगवान भी किसी का कल्याण नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए, दुर्योधन को भगवान ने बहुत समझाया, लेकिन उसके मन में स्वीकार करने की भावना न होने के कारण वह प्रभावित नहीं हुआ।
ज्ञान, कर्म, और भक्ति मार्ग में अंतर
गीता में ज्ञान मार्ग के लिए गुरु की उपासना की आवश्यकता बताई गई है, परंतु कर्मयोग और भक्तिमार्ग में यह आवश्यक नहीं मानी गई। जब मनुष्य में सेवा-भाव, स्वार्थ त्याग, और मानवता का जागरण होता है, तो उसे स्वाभाविक रूप से तत्वज्ञान प्राप्त हो जाता है।
भक्तिमार्ग में भगवान की कृपा अत्यधिक महत्वपूर्ण है। जो भक्त भगवान पर विश्वास करता है, भगवान स्वयं उसके अज्ञान को दूर कर उसका उद्धार करते हैं- "तस्मिन्संशयमात्मनि विन्दति" (4/38)।
यह लेख गीता के उपदेशों के संदर्भ में गुरु-शिष्य संबंध, तीव्र जिज्ञासा, और आत्मकल्याण के महत्व को स्पष्ट करता है। गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान के मार्गों का उल्लेख है, जिनमें गुरु-शिष्य परंपरा का महत्व भिन्न-भिन्न प्रकार से बताया गया है।