विनोद kumar झा
जय श्रीराम ! आप देख रहे हैं हमारी विशेष प्रस्तुति, जिसमें हम आपको रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी एक अद्भुत और प्रेरणादायक कथा बताने जा रहे हैं। यह कथा महर्षि कम्बन की तमिल कृति इरामावतारम् से ली गई है। इसमें रावण और प्रभु श्रीराम के बीच ऐसा संवाद और घटनाक्रम वर्णित है, जो रामायण के अन्य संस्करणों से बिल्कुल भिन्न और अत्यंत मानवीय है। यह प्रसंग रावण के विशाल व्यक्तित्व का एक अनदेखा पक्ष प्रस्तुत करता है—जहाँ वह केवल एक शिवभक्त और विद्वान ही नहीं, बल्कि धर्म और कर्तव्य का पालन करने वाला आत्म-ज्ञानी भी दिखाई देता है।
जब श्रीराम ने रावण को आचार्य बनने का निमंत्रण दिया
लंका पर चढ़ाई से पहले श्रीराम ने समुद्र तट पर शिवलिंग स्थापना का निश्चय किया। इसके लिए उन्हें ऐसे आचार्य की आवश्यकता थी, जो वेदज्ञ और शैव हो। जामवंत के माध्यम से रावण को यह प्रस्ताव भेजा गया। रावण ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए इसे अपनी ब्राह्मण धर्म और कर्तव्य की पूर्ति का अवसर माना।
सीता का अनुष्ठान में आगमन
जब रावण अनुष्ठान स्थल पर पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि यजमान (श्रीराम) की अर्द्धांगिनी (सीता) उपस्थित नहीं थीं। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि गृहस्थ का कोई भी अनुष्ठान पत्नी के बिना अपूर्ण है। राम के विनम्र निवेदन पर रावण ने पुष्पक विमान से स्वयं सीता को अनुष्ठान स्थल पर लाने का निर्देश दिया। यह रावण के उस गुण को दिखाता है, जो धर्म और कर्तव्य को व्यक्तिगत दुश्मनी से ऊपर रखता है।
शिवलिंग का निर्माण और स्थापना
हनुमान कैलाश पर्वत से लाने गए शिवलिंग को लेकर विलंब कर रहे थे। ऐसे में रावण ने सुझाव दिया कि सीता स्वयं समुद्र तट की मिट्टी से शिवलिंग का निर्माण करें। रावणाचार्य के निर्देशन में सीता ने शिवलिंग तैयार किया, जिसे श्रीराम ने विधि-विधान से स्थापित किया।
आचार्य रावण को क्या मिला दक्षिणा
अनुष्ठान सम्पन्न होने के बाद रावण श्रीराम से दक्षिणा माँगी। रावण ने जो मांगा, वह अकल्पनीय था। उन्होंने कहा, "जब मैं मृत्यु शैया पर होऊँ, तो यजमान के रूप में तुम मेरे सम्मुख उपस्थित हो।" श्रीराम ने इस वचन को निभाया और युद्ध के बाद रावण के अंतिम समय में उनके पास उपस्थित रहे।
यह अनूठा प्रसंग न केवल राम और रावण की कर्तव्यनिष्ठा को दर्शाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि धर्म, विद्वत्ता, और सम्मान शत्रुता से ऊपर होते हैं। आज भी रामेश्वर ज्योतिर्लिंग इस कथा का प्रमाण है, जिसे रावणाचार्य की विधि से स्थापित किया गया था।
रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई। रावण की मांगी गई दक्षिणा और राम द्वारा उसे निभाने का यह प्रसंग धर्म, कर्तव्य, और मानवीयता की अद्वितीय मिसाल है।