अग्नि के बिना जीवन अधूरा

विनोद कुमार झा

अग्नि केवल एक तत्व ही नहीं, बल्कि सृष्टि का आधार है। हिन्दू धर्म में अग्नि को देवता के रूप में पूजा जाता है, क्योंकि इसके बिना जीवन की कल्पना भी असंभव है। यह ऊर्जा का स्रोत है, यज्ञ का माध्यम है और देवताओं तक समर्पण पहुंचाने का माध्यम भी। ऋग्वेद के प्रथम मंत्र से लेकर आधुनिक विज्ञान तक, अग्नि का महत्व सदा सर्वोपरि रहा है। यही कारण है कि हिन्दू धर्मग्रंथों में अग्निदेव केवल जड़ पदार्थ नहीं, बल्कि चेतन शक्ति है। यह देवताओं का रक्षक, यज्ञ का अधिष्ठाता, देवताओं तक हविष्य पहुंचाने वाला माध्यम और समस्त अनुष्ठानों का प्रमुख अंग है।  

हिन्दू धर्मग्रंथों में अग्निदेव को देवताओं का अग्रणी माना गया है। वे दस दिशाओं के अधिपति दिग्पालों में से एक हैं और आग्नेय दिशा के स्वामी हैं। वैदिक काल में उन्हें त्रिदेवों में स्थान प्राप्त था, जहां अन्य दो देवता इंद्र और वरुण थे। ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में अग्नि की स्तुति की गई है, जो यह दर्शाता है कि वैदिक संस्कृति में उनका कितना महत्व था।  

अग्निदेव को यज्ञों का अधिष्ठाता कहा गया है, क्योंकि देवताओं को समर्पित प्रत्येक आहुति उन्हीं के माध्यम से स्वीकार की जाती है। यही कारण है कि उन्हें "देवताओं का मुख" भी कहा जाता है। अग्नि की सात जिह्वाएं मानी गई हैं—काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी और विश्वरुचि, जिनके द्वारा वे हविष्य ग्रहण करते हैं।  

अग्नि की पत्नी स्वाहा बताई गई हैं, जो प्रजापति दक्ष की पुत्री थीं। ऐसी मान्यता है कि अग्निदेव अपनी पत्नी से इतना प्रेम करते थे कि उनके बिना कोई हविष्य स्वीकार नहीं करते। इसलिए प्रत्येक यज्ञीय समर्पण के साथ "स्वाहा" का उच्चारण किया जाता है।  

धर्म ग्रंथों में अग्निदेव के चार पुत्र बताए गए हैं—पावक, पवमान, शुचि और स्वरोचिष। इनमें से स्वरोचिष द्वितीय मनु बने। इसके अतिरिक्त, रामायण के अनुसार, वानरसेना के सेनापति नील भी अग्नि के पुत्र माने जाते हैं। इनके वंशजों की कुल संख्या उनन्चास बताई गई है। 

अग्निदेव से जुड़ी अनेक कथाएँ हिन्दू धर्मग्रंथों में मिलती हैं। महाभारत में खांडव वन दहन की कथा विशेष रूप से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि अग्निदेव की भूख अत्यधिक बढ़ गई थी, जिसे शांत करने के लिए अर्जुन और श्रीकृष्ण ने खांडव वन को जलाने की अनुमति दी। लेकिन उस वन में तक्षक नाग निवास करता था, जिसकी रक्षा के लिए स्वयं इंद्र ने प्रयास किया। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने इंद्र को रोककर अग्निदेव की भूख शांत करने में सहायता की। इससे प्रसन्न होकर अग्निदेव ने अर्जुन को दिव्य गांडीव धनुष और एक रथ प्रदान किया।  

रामायण में भी अग्नि की प्रमुख भूमिका रही है। जब माता सीता को रावण ने हरण किया, तो उनके शुद्ध होने का प्रमाण देने के लिए उन्होंने अग्निपरीक्षा दी। श्रीराम ने अग्निदेव को साक्षी मानकर माता सीता को पुनः प्राप्त किया।  

हरिवंश पुराण के अनुसार, जब असुरों ने देवताओं को पराजित कर दिया, तब अग्निदेव ने अपने प्रचंड तेज से असुरों का विनाश किया। इससे भयभीत होकर असुरों ने स्वर्ग छोड़ दिया। लेकिन मयदानव और शम्बरासुर ने माया से भारी वर्षा कर दी, जिससे अग्नि का प्रभाव कम हो गया। तब देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें सदैव तेजस्वी रहने का वरदान दिया।  

ब्रह्मपुराण में वर्णित एक अन्य कथा के अनुसार, अग्नि के एक भाई जातवेदस थे, जिनका कार्य हविष्य को लाना और ले जाना था। एक बार मधु नामक दैत्य ने उनका वध कर दिया, जिससे दुखी होकर अग्निदेव स्वर्ग छोड़कर जल में जाकर रहने लगे। इससे स्वर्गलोक में संकट उत्पन्न हो गया। तब इंद्र और अन्य देवताओं ने उन्हें वापस बुलाने का प्रयास किया, लेकिन अग्निदेव ने दैत्यों से रक्षा के लिए अधिक शक्ति की मांग की। इस पर सभी देवताओं ने उन्हें हर यज्ञ में प्रथम भाग देने का वचन दिया, जिससे प्रसन्न होकर वे स्वर्ग लौट आए।  

कार्तिकेय को भी अग्निदेव का पुत्र माना जाता है। कथा के अनुसार, जब तारकासुर का वध करने के लिए महादेव के पुत्र की आवश्यकता हुई, तब देवताओं ने महादेव के तेज को धारण करने के लिए अग्निदेव से प्रार्थना की। अग्नि ने इस तेज को धारण किया, लेकिन असहनीय होने के कारण इसे जल में समाहित कर दिया। यही तेज कृतिकाओं के माध्यम से कार्तिकेय के जन्म का कारण बना।  

अग्नि केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। मानव सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण खोजों में अग्नि प्रमुख है। भोजन पकाने, धातुओं को गलाने, ऊर्जा उत्पन्न करने और चिकित्सा में भी अग्नि का उपयोग होता है।  यहाँ तक कि सूर्य भी अग्निदेव के प्रतीक हैं, जो अपनी ऊर्जा से समस्त पृथ्वी का पोषण करते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो अग्नि ऊर्जा का ही एक रूप है, जिसके बिना जीवन संभव नहीं।  

हिन्दू धर्म में अग्नि का महत्व केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण जीवन यात्रा में उपस्थित रहती है।  

-जन्म: जब शिशु का जन्म होता है, तब गृह में अग्निहोत्र किया जाता है।  

- विद्यारंभ: शिक्षा प्राप्त करने से पूर्व यज्ञोपवीत संस्कार में अग्नि साक्षी रहती है।  

- विवाह: विवाह में अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लिए जाते हैं।  

- मृत्यु: अंततः मृत्यु के पश्चात अग्नि संस्कार द्वारा शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो जाता है।  

अग्निदेव केवल एक देवता नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि की आधारशिला हैं। वे न केवल यज्ञ और अनुष्ठानों के अभिन्न अंग हैं, बल्कि सृजन, पोषण और संहार तीनों कार्यों में उनकी महती भूमिका है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक विज्ञान तक, अग्नि की महिमा अपरंपार रही है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में अग्नि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, और इसे साक्षी मानकर हर महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किया जाता है।

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