विनोद कुमार झा
अंगद ने कहा, जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥
अर्थ: यदि मैं तुम्हें मार भी दूं, तो इसमें कोई वीरता नहीं, क्योंकि मरे हुए को मारने में कोई पराक्रम नहीं होता। 14 प्रकार के लोग ऐसे होते हैं, जो जीवित होते हुए भी मृत समान माने जाते हैं।
वे 14 प्रकार के व्यक्ति जो जीते जी मृत समान हैं वह इस प्रकार है :- 1. वाममार्गी (अधर्म का अनुसरण करने वाला) : जो समाज और धर्म के नियमों को तोड़ता है, हर बात में केवल दोष ही निकालता है और सही मार्ग को छोड़कर अधर्म का अनुसरण करता है।
2. कामी (वासना का दास) :जो अपनी कामवासना पर नियंत्रण नहीं रख सकता, और उसी के वश में होकर गलत कार्य करता है, जैसे रावण ने माता सीता का हरण किया।
3. कंजूस (कृपण) : जो सिर्फ धन संचय में लगा रहता है, न तो दान करता है, न किसी की मदद करता है। केवल स्वार्थ के लिए जीना भी मृत समान है।
4. अत्यंत मूढ़ (मूर्ख और अज्ञानी) : जो सही और गलत का विवेक नहीं रखता, जो बिना सोचे-समझे अनुचित कार्य करता है।
5. अत्यंत दरिद्र : अति निर्धनता को भी शास्त्रों में अभिशाप माना गया है। ऐसे व्यक्ति को दुत्कारना नहीं चाहिए, बल्कि उसकी सहायता करनी चाहिए।
6. कलंकित व्यक्ति : जो अपने गलत कर्मों से समाज में अपमानित और कुख्यात हो चुका हो, वह जीते जी मृत समान ही होता है।
7. अत्यंत वृद्ध (अशक्त और निर्बल) : जो अत्यधिक वृद्ध होकर दूसरों पर आश्रित हो जाता है, और कोई भी उसकी सहायता नहीं करता।
8. सदा रोगी (निरंतर बीमारी से पीड़ित) :जो व्यक्ति सदैव किसी न किसी रोग से घिरा रहता हो और जीवन का कोई आनंद न ले सके।
9. सदैव क्रोधी (अत्यधिक गुस्सैल) :जो हमेशा क्रोध में रहता है, वह अपनी बुद्धि और विवेक खो देता है और अपने तथा दूसरों के लिए दुख का कारण बनता है।
10. विष्णु विमुख (ईश्वर से दूर रहने वाला) : जो श्रीहरि (भगवान विष्णु) से विमुख रहता है, उसका जीवन व्यर्थ है। ऐसे लोग अंततः विनाश को प्राप्त होते हैं।
11. वेद और संतों का विरोधी : जो वेदों, धर्मग्रंथों और संतों का अनादर करता है, उसका कोई भविष्य नहीं होता।
12. केवल अपने शरीर का पोषण करने वाला : जो केवल अपनी ही भलाई सोचता है, समाज और परिवार की चिंता नहीं करता, वह मृत समान ही है।
13. दूसरों की निंदा करने वाला (परनिंदक) : जो हर समय दूसरों में दोष ढूंढता रहता है, वह कभी उन्नति नहीं कर सकता और स्वयं ही पतन का शिकार होता है।
14. पाप की खान (अत्यधिक पापी व्यक्ति) : जो सदैव पाप कर्मों में लिप्त रहता है, उसका जीवन कभी सुखद नहीं हो सकता। ऐसे लोग दूसरों के साथ-साथ अपना भी नाश कर लेते हैं।
अंगद के इन शब्दों ने रावण को आईना दिखा दिया। उसने अपने अहंकार में यह सोचा था कि वह सर्वशक्तिमान है, लेकिन अंगद ने उसे स्पष्ट कर दिया कि वह तो पहले से ही मृत समान है।
इस प्रसंग से हमें यह सीख मिलती है कि शरीर का जीवित होना ही जीवन नहीं है, बल्कि सही आचरण, ज्ञान, भक्ति और सेवा का भाव ही जीवन को सार्थक बनाते हैं। जो व्यक्ति इनमें से किसी भी दोष से ग्रसित है, वह जीते जी भी मृत के समान है।
अंगद के ये शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने रावण के समय थे। यह संवाद हमें आत्ममूल्यांकन करने का अवसर देता है कि हम कहीं इन 14 श्रेणियों में तो नहीं आते? अगर हां, तो हमें सुधार की आवश्यकता है, ताकि हमारा जीवन सच में सार्थक और मूल्यवान बन सके।