वक्फ संशोधन बिल पारदर्शिता या विवाद?

 विनोद कुमार झा


संविधान और कानून के दायरे में हर समुदाय के धार्मिक और सामाजिक अधिकारों की सुरक्षा आवश्यक होती है। ऐसे में, वक्फ संशोधन बिल को लेकर संसद में मचे घमासान ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र बना दिया है। गुरुवार को राज्यसभा में इस बिल पर बनी संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, जिससे पहले 31 जनवरी को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को यह रिपोर्ट सौंपी जा चुकी थी। समिति के अध्यक्ष जगदंबिका पाल ने संसद भवन में रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसके बाद सरकार और विपक्ष के बीच तीखी नोकझोंक देखने को मिली।  सरकार और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसदों का कहना है कि यह विधेयक वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए लाया गया है। उनका तर्क है कि वक्फ संपत्तियों का उपयोग जिस तरह से होना चाहिए, कई बार वैसा नहीं हो पाता, और इसमें भ्रष्टाचार, अव्यवस्था या पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं। सरकार इस विधेयक के माध्यम से व्यवस्थागत सुधार लाने और इन संपत्तियों का सही तरीके से उपयोग सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है। भाजपा सांसदों ने स्पष्ट किया कि इस कानून का उद्देश्य किसी भी समुदाय के अधिकारों को कमजोर करना नहीं है, बल्कि व्यवस्थागत पारदर्शिता बढ़ाना है।  

वहीं, विपक्षी दलों ने इस विधेयक पर गहरी आपत्ति जताई है। उनका आरोप है कि सरकार इस कानून के जरिए वक्फ बोर्डों को कमजोर करने और एक विशेष समुदाय के अधिकारों को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। विपक्ष का मानना है कि वक्फ संपत्तियां सदियों से धार्मिक और सामाजिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल होती रही हैं, और सरकार के इस हस्तक्षेप से उनके स्वायत्तता पर खतरा पैदा हो सकता है।  संशोधित विधेयक में वक्फ संपत्तियों के दस्तावेजीकरण, निगरानी और प्रबंधन को अधिक पारदर्शी बनाने पर जोर दिया गया है। इसमें सरकारी एजेंसियों को वक्फ बोर्डों की कार्यप्रणाली पर अधिक निरीक्षण और हस्तक्षेप का अधिकार देने का प्रावधान है। इसके साथ ही, यह विधेयक वक्फ संपत्तियों के बेहतर उपयोग के लिए नए नियम और दिशा-निर्देश लाने की बात करता है।  

यह विवाद इस बुनियादी सवाल को उठाता है कि क्या धार्मिक संस्थाओं और संपत्तियों का प्रशासन पूरी तरह स्वतंत्र होना चाहिए, या फिर सरकार को उसमें एक नियामक भूमिका निभानी चाहिए? एक ओर, यदि सरकार इस विधेयक के माध्यम से भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन को रोकने की मंशा रखती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। दूसरी ओर, यदि यह किसी समुदाय की धार्मिक संपत्तियों के अधिकारों को सीमित करता है, तो यह चिंता का विषय हो सकता है।  इस मुद्दे का समाधान संवाद और सहमति से ही संभव है। सरकार को चाहिए कि वह संबंधित पक्षों से विस्तृत चर्चा कर, इस विधेयक को संतुलित और निष्पक्ष बनाए। यदि पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करनी है, तो किसी भी समुदाय की आशंकाओं को दूर करना भी उतना ही आवश्यक है। संसद में इस पर स्वस्थ बहस हो और आम सहमति बने, यही लोकतंत्र की असली ताकत होगी।

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