विनोद कुमार झा
सोमवार को लोकसभा में भाषा को लेकर जबरदस्त हंगामा हुआ। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के बयान पर द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) सांसदों ने कड़ा ऐतराज जताया, जिससे सदन की कार्यवाही बाधित हुई और अंततः लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को मंत्री के बयान का एक शब्द कार्यवाही से हटाने के निर्देश देने पड़े। यह विवाद सिर्फ संसद तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इससे भाषा और शिक्षा नीति से जुड़े कई बड़े सवाल भी खड़े हो गए हैं। यह विवाद तब शुरू हुआ जब द्रमुक सांसद टी. सुमति ने सरकार पर आरोप लगाया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) को स्वीकार न करने की वजह से तमिलनाडु को पीएमश्री योजना के तहत आवंटित किए जाने वाले दो हजार करोड़ रुपये की राशि से वंचित कर दिया गया और यह धनराशि अन्य राज्यों में वितरित कर दी गई। इसके जवाब में शिक्षा मंत्री प्रधान ने द्रमुक सरकार पर तमिलनाडु के छात्रों के साथ अन्याय करने का आरोप लगाया, जिसे विपक्ष ने अपमानजनक करार दिया। विपक्ष की ओर से इस पर कड़ी प्रतिक्रिया आई, खासतौर पर द्रमुक सांसद कनिमोझी ने कहा कि तमिलनाडु तीन-भाषा नीति को स्वीकार नहीं करेगा और केंद्र को राज्य की भाषा-संस्कृति पर अपनी नीतियों को जबरदस्ती थोपने से बचना चाहिए। इसके बाद, मंत्री प्रधान ने सदन में कहा कि अगर उनके बयान से किसी को ठेस पहुंची है, तो वह अपने शब्द वापस लेते हैं।
तमिलनाडु में भाषा को लेकर बहस कोई नई नहीं है। राज्य में हिंदी-विरोधी आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। 1937 में जब मद्रास प्रेसीडेंसी (अब तमिलनाडु) में पहली बार हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश की गई थी, तब इसका तीखा विरोध हुआ था। 1965 में भी जब हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की बात उठी, तब तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए थे। आज भी, तमिलनाडु की सरकार हिंदी को अनिवार्य बनाने या केंद्र की किसी भाषा नीति को लागू करने का विरोध करती रही है। राज्य में दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेज़ी) लागू है और वहां तीन-भाषा फॉर्मूले (जिसमें हिंदी भी शामिल हो) को स्वीकार नहीं किया गया है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 की बात करें तो इसमें त्रिभाषा फॉर्मूला अपनाने की सिफारिश की गई है, जिसके तहत छात्रों को तीन भाषाएं सीखनी होंगी। एक मातृभाषा/स्थानीय भाषा, दूसरी हिंदी या अंग्रेज़ी और तीसरी कोई अन्य भारतीय या विदेशी भाषा। तमिलनाडु सरकार इस नीति का यह कहते हुए विरोध कर रही है कि यह हिंदी को बढ़ावा देने की एक अप्रत्यक्ष कोशिश है और राज्य की सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरा है।
अब सवाल यह उठता है कि यह पूरा विवाद सिर्फ भाषा और शिक्षा नीति को लेकर है, या फिर इसके पीछे राजनीतिक वजहें भी हैं? तमिलनाडु में द्रमुक सरकार हमेशा से हिंदी थोपने के प्रयासों के खिलाफ मुखर रही है। केंद्र की भाजपा सरकार की नीतियों पर सवाल उठाकर द्रमुक अपने क्षेत्रीय समर्थकों के बीच मजबूत पकड़ बनाए रखना चाहती है। वहीं, भाजपा हिंदी को राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा देने की कोशिश करती रही है, जिससे दक्षिण भारतीय राज्यों, खासतौर पर तमिलनाडु में विरोध के स्वर उठते हैं। भाषा शिक्षा का एक अहम हिस्सा है और यह जरूरी है कि हर राज्य अपनी जरूरतों और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अनुसार भाषा नीति अपनाए। अगर तमिलनाडु को लगता है कि तीन-भाषा नीति से उनके छात्रों पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा, तो उनकी चिंताओं को सुना जाना चाहिए। शिक्षा नीतियों को लचीला बनाया जाना चाहिए ताकि वे क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप हों।
तमिलनाडु को पीएमश्री योजना के तहत दो हजार करोड़ रुपये न मिलने का मुद्दा भी सिर्फ भाषा विवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि यह केंद्र-राज्य संबंधों से जुड़ा एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है। क्या यह फंड रोकने का कारण वास्तव में शिक्षा नीति से असहमति थी, या फिर इसके पीछे कोई और प्रशासनिक कारण थे? अगर राज्य को धनराशि से वंचित किया गया, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान छात्रों को होगा। केंद्र और राज्य सरकारों को टकराव के बजाय संवाद का रास्ता अपनाना चाहिए। किसी भी नीति को लागू करने से पहले सभी पक्षों की राय ली जानी चाहिए। भारत की भाषाई विविधता इसकी सबसे बड़ी ताकत है। किसी एक भाषा को दूसरी पर थोपना व्यावहारिक नहीं होगा। भाषा के मुद्दे को जबरदस्ती थोपने के बजाय सहमति के आधार पर हल किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को राज्यों की सांस्कृतिक और भाषाई जरूरतों को ध्यान में रखकर लागू किया जाना चाहिए। यदि कोई राज्य त्रिभाषा नीति नहीं अपनाना चाहता, तो उसे इसके लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। भाषा और शिक्षा जैसे मुद्दों पर राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठकर चर्चा होनी चाहिए। छात्रों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए संतुलित नीति बनाई जानी चाहिए।
लोकसभा में हुआ यह विवाद सिर्फ एक बयान या शब्द तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक बड़ी बहस का हिस्सा है जो दशकों से तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच चल रही है। भाषा किसी भी समाज की पहचान होती है और इसे जबरदस्ती थोपने का प्रयास किया जाएगा, तो उसका विरोध होना स्वाभाविक है। हालांकि, शिक्षा नीति को राजनीति से अलग रखते हुए इस पर ठोस और व्यावहारिक चर्चा होनी चाहिए, ताकि छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ न हो। इस विवाद से यह स्पष्ट होता है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा को लेकर भावनात्मक और सांस्कृतिक पहलुओं को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। शिक्षा मंत्री का बयान वापस लेना सही कदम था, लेकिन इससे भाषा और शिक्षा नीति को लेकर उठे सवाल खत्म नहीं हो जाते। सरकारों को अब इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा, ताकि आने वाले समय में ऐसी बहसें केवल राजनीतिक हंगामे तक सीमित न रहें, बल्कि एक ठोस समाधान की ओर बढ़ें।