विनोद कुमार झा
लोकसभा सीटों के परिसीमन का मुद्दा एक बार फिर राजनीतिक परिदृश्य के केंद्र में आ गया है। 2026 के बाद संभावित परिसीमन से दक्षिणी राज्यों में चिंताएं बढ़ गई हैं, क्योंकि उनकी लोकसभा सीटों में कटौती की संभावना जताई जा रही है। इस संदर्भ में विपक्षी दलों का एकजुट होना स्वाभाविक है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह मात्र एक राजनीतिक रणनीति है, या फिर वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के संतुलन की चिंता इससे जुड़ी हुई है?
परिसीमन की प्रक्रिया भारत में पहली बार 1952 में हुई थी, और इसके बाद कई बार इसमें संशोधन हुए। लेकिन 1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण नीतियों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सीटों के पुनर्गठन को रोक दिया। इसके बाद 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान 84वें संविधान संशोधन के तहत इसे 2026 तक के लिए टाल दिया गया। तब भी मुख्य चिंता यही थी कि जनसंख्या वृद्धि के कारण उत्तर भारतीय राज्यों की सीटें बढ़ेंगी और दक्षिण भारतीय राज्यों की घटेंगी, जिससे क्षेत्रीय असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों का विरोध इस आधार पर है कि उन्होंने परिवार नियोजन कार्यक्रम को सफलतापूर्वक अपनाया, जिससे उनकी जनसंख्या वृद्धि दर अपेक्षाकृत कम रही। इसके विपरीत, उत्तर भारतीय राज्यों में जनसंख्या वृद्धि अधिक रही, जिससे परिसीमन के बाद उनकी सीटें बढ़ने की संभावना है।
दक्षिणी राज्यों की यह चिंता वाजिब है कि कहीं उनकी राजनीतिक भागीदारी में कटौती न हो जाए, लेकिन क्या परिसीमन को अनिश्चितकाल तक टालते रहना समाधान है? यदि सीटों का पुनर्गठन पूरी तरह रोक दिया जाए, तो यह लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के खिलाफ होगा। भाजपा को संभावित परिसीमन से लाभ मिल सकता है, क्योंकि उत्तर भारत में उसकी मजबूत पकड़ है और सीटों की वृद्धि से उसका प्रभाव और बढ़ सकता है। विपक्षी दल इसे भाजपा की चुनावी रणनीति से जोड़कर जनता के बीच जा रहे हैं। लेकिन यह तर्क केवल राजनीतिक दृष्टि से दिया जा सकता है, जबकि जनसंख्या-आधारित प्रतिनिधित्व किसी एक पार्टी के लाभ या हानि से परे लोकतांत्रिक सिद्धांत का विषय है।
परिसीमन में केवल जनसंख्या को आधार बनाने के बजाय अन्य कारकों जैसे कि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और क्षेत्रफल को भी ध्यान में रखा जाए। यदि दक्षिणी राज्यों की लोकसभा सीटें घटती हैं, तो राज्यसभा में उनके प्रतिनिधित्व को मजबूत करने पर विचार किया जा सकता है। यह मुद्दा केवल केंद्र और विपक्ष के बीच टकराव का विषय नहीं होना चाहिए। इसके लिए व्यापक राष्ट्रीय सहमति बननी चाहिए, ताकि कोई भी राज्य अपने हितों की अनदेखी महसूस न करे। परिसीमन का सवाल केवल सीटों के बढ़ने या घटने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की संरचना और संतुलन से जुड़ा है। इसे केवल राजनीतिक लाभ-हानि के चश्मे से देखने के बजाय एक निष्पक्ष और संतुलित दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है। लोकतंत्र की सफलता इसी में है कि सभी क्षेत्रों और समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व मिले, ताकि समावेशी विकास और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया जा सके।