रोहन की पतंग सबसे ऊँची उड़ रही थी। वह बहुत खुश था और सोच रहा था कि काश, पतंग को और ऊपर भेज सकता। लेकिन तभी उसकी नजर रस्सी पर गई, जो पतंग को पकड़कर रखे थी। उसे लगा कि अगर यह रस्सी न होती, तो उसकी पतंग अनंत आकाश में उड़ सकती थी। यह सोचकर उसने झट से रस्सी काट दी। जैसे ही रस्सी कटी, पतंग कुछ देर तक हवा में डगमगाई और फिर तेज़ी से नीचे गिरने लगी। रोहन भागकर उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, लेकिन वह दूर जाकर पेड़ में उलझ गई।
वह मायूस होकर वहीं बैठ गया। तभी उसके दादाजी पास आए और मुस्कुराते हुए बोले, "बेटा, कभी-कभी जो हमें बाँधकर रखता है, वही हमें उड़ने की ताकत भी देता है। बिना रस्सी के पतंग उड़ नहीं सकती, वह गिर जाती है।" रोहन को अब समझ आ गया था। जीवन में अनुशासन, रिश्ते, और ज़िम्मेदारियाँ भी रस्सी की तरह होती हैं। अगर हम इन्हें तोड़ देंगे, तो आज़ादी तो मिलेगी, लेकिन वह आज़ादी दिशाहीन होगी।
उस दिन रोहन ने न सिर्फ अपनी पतंग उड़ाने का नया सबक सीखा, बल्कि जीवन का भी एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ लिया। कुछ देर तक रोहन वहीं बैठा रहा, अपने दादाजी की बातों को सोचते हुए। वह समझ चुका था कि जीवन में हर बंधन बेकार नहीं होता। कुछ बंधन हमें सुरक्षित रखते हैं और हमारी प्रगति में सहायक होते हैं।
अगले दिन वह फिर मैदान में गया, लेकिन इस बार एक नई सोच के साथ। उसने अपनी पतंग की डोर को मजबूती से पकड़ा और उसे सावधानी से उड़ाने लगा। जब पतंग हवा में ऊँची जाने लगी, तो उसने महसूस किया कि यह डोर ही थी जो पतंग को सही दिशा में नियंत्रित कर रही थी। उसके दोस्त राहुल ने उसे देखकर मज़ाक में कहा, "अगर तुम रस्सी काट दोगे तो तुम्हारी पतंग और ऊँची उड़ सकती है!"
रोहन मुस्कुराया और जवाब दिया, "नहीं राहुल, अब मैं समझ गया हूँ कि डोर मेरी पतंग को उड़ने की ताकत देती है, उसे गिरने से बचाती है।" दादाजी दूर खड़े यह सब देख रहे थे। उन्होंने मुस्कुराते हुए सोचा, "आज मेरा पोता सिर्फ पतंग नहीं उड़ा रहा, बल्कि जीवन की सच्चाई को भी समझ रहा है।"
उस दिन रोहन ने जाना कि सही सीमाएँ और ज़िम्मेदारियाँ जीवन को संतुलित और सार्थक बनाती हैं। आज़ादी का असली मतलब दिशाहीन उड़ान नहीं, बल्कि सही मार्गदर्शन के साथ ऊँचाइयाँ छूना है। समय बीतता गया, और रोहन बड़ा होता गया। लेकिन उस दिन की सीख उसने हमेशा याद रखी। जीवन में जब भी वह किसी कठिनाई में पड़ता, तो उसे अपने दादाजी की बातें याद आतीं—"रस्सी कोई बंधन नहीं, बल्कि सहारा है।"
एक दिन, कॉलेज में उसे एक बड़ा प्रोजेक्ट मिला। यह उसके करियर के लिए बहुत महत्वपूर्ण था, लेकिन इसमें कठिनाइयाँ भी बहुत थीं। कई बार उसे लगा कि वह इस जिम्मेदारी से बच जाए, कोई आसान रास्ता चुन ले। उसके दोस्त भी उसे समझाने लगे—"क्यों इतनी मेहनत कर रहा है? थोड़ा मस्ती कर, जिंदगी का मज़ा ले!"
रोहन के मन में भी कभी-कभी यह ख्याल आता कि अगर कोई दबाव न हो, तो जीवन कितना आसान हो सकता है! लेकिन फिर उसे अपनी पतंग और उसकी रस्सी की सीख याद आई। उसने ठान लिया कि मेहनत करेगा और जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटेगा।
कई महीनों की मेहनत के बाद उसका प्रोजेक्ट सफल हुआ। जब उसके प्रोफेसर ने उसे स्टेज पर बुलाकर सम्मानित किया, तो उसकी आँखों में चमक थी। वह समझ गया था कि अनुशासन और मेहनत की "रस्सी" ही उसे सफलता की ऊँचाइयों तक ले गई। कुछ साल बाद, जब वह एक सफल इंजीनियर बन चुका था, तो वह अपने दादाजी के पास गया और बोला, "दादाजी, आज मैं जो कुछ भी हूँ, वह आपकी उस सीख की वजह से हूँ। अगर उस दिन आपने मुझे पतंग और रस्सी की अहमियत न समझाई होती, तो शायद मैं जिंदगी में भटक जाता।"
दादाजी ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और बोले, "बेटा, पतंग की तरह ही जीवन में भी ऊँचाई पर जाने के लिए मजबूत सहारे की जरूरत होती है। बिना डोर के उड़ने की ख्वाहिश रखने वाले अक्सर गिर जाते हैं। रोहन की आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे। उसने मन ही मन तय किया कि वह भी आगे आने वाली पीढ़ियों को यही सिखाएगा "सही बंधन हमें गिरने से बचाते हैं, और सही दिशा में उड़ने की ताकत देते हैं।"
(लेखक: विनोद कुमार झा)