विनोद कुमार झा
धृतराष्ट्र… महाभारत के वो पात्र, जो जन्म से ही अंधे थे। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या यह सिर्फ एक संयोग था, या इसके पीछे कोई गहरी वजह थी?"
प्राचीन काल की बात है। मगध राज्य पर राजा विरेश्वरण का शासन था। वह अत्यंत क्रूर और अन्यायी राजा था। प्रजा उसके अत्याचारों से त्रस्त थी, परंतु कोई भी उसका विरोध करने का साहस नहीं कर पाता था। राजा को निर्दयता में आनंद मिलता था, और वह जीव-जंतुओं के प्रति भी बहुत कठोर था।
एक दिन राजा अपने सैनिकों के साथ वन में शिकार करने निकला। गर्मी अधिक थी, इसलिए उसने एक नदी के तट पर विश्राम करने का निश्चय किया। जैसे ही वह जल पीने के लिए झुका, उसकी दृष्टि एक सुंदर सफेद हंस पर पड़ी, जो अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ जल में खेल रहा था। हंस अपने पंख फैलाकर अपने बच्चों को स्नेहपूर्वक सहला रहा था, मानो संसार की सारी ममता वहीं समाई हो।
राजा के मन में क्रूर विचार आया। उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया। इस हंस की आँखें निकाल दो, और इसके बच्चों को मार दो! मैं देखना चाहता हूँ कि अंधा होकर यह कैसे जीवित रहता है!
सैनिक राजा के आदेश का पालन करने से हिचकिचा रहे थे, परंतु वे विवश थे। उन्होंने निर्दयता से हंस की आँखें फोड़ दीं और उसके नन्हे बच्चों को उसके सामने मार डाला। अंधा हंस तड़पकर चीखने लगा, उसका हृदय फटने लगा, पर वह कुछ नहीं कर सकता था।
दर्द से बिलखते हुए हंस ने आकाश की ओर मुख उठाया और राजा को श्राप दिया:- राजन! तूने निर्दोष जीवों पर अत्याचार किया है। जिस पीड़ा से मैं गुजरा हूँ, वही पीड़ा तुझे भी सहनी होगी। अगले जन्म में तू अंधा जन्मेगा और तेरे सभी पुत्र उसी प्रकार मारे जाएँगे, जैसे मेरे नन्हे शिशु मारे गए!
राजा ठहाका मारकर हंस की बातों को अनसुना कर चल पड़ा। लेकिन नियति के लेख को कोई मिटा नहीं सकता।
कालचक्र घूमता गया। राजा विरेश्वरण की मृत्यु हो गई, और उसने महाराज धृतराष्ट्र के रूप में जन्म लिया। जन्म से ही वह अंधा था। कौरव वंश में जन्म लेने के बावजूद वह अपने ही भाग्य से पराजित था। वह सौ पुत्रों का पिता बना, परंतु महाभारत के युद्ध में उसके सभी पुत्रों की मृत्यु हो गई।
जब कुरुक्षेत्र के मैदान में उसके पुत्रों के शव पड़े थे, तब वह चीत्कार कर उठा "हे विधाता! यह कैसा अन्याय किया तूने मेरे साथ?
तभी उसके मन में एक छवि उभरी—एक अंधा हंस, जिसकी संतानें उसके सामने मार दी गई थीं। उसे एहसास हुआ कि यह सब उसके पिछले जन्म के कर्मों का ही फल है। हंस का श्राप सत्य सिद्ध हुआ था।
धृतराष्ट्र के लिए यह आघात असहनीय था। उनका जीवन अंधकारमय था, और अब उनके हृदय पर भी वैसा ही अंधकार छा गया। वे दिन-रात शोक में डूबे रहने लगे। कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद, जब संपूर्ण हस्तिनापुर में शांति लौट आई, तब भी धृतराष्ट्र के मन में अशांति बनी रही।
एक दिन वे अपनी पत्नी गांधारी और अपने सबसे प्रिय सलाहकार विदुर के साथ राजमहल की छत पर बैठे थे। वहां से बहती ठंडी हवा भी उनके दुःख को कम नहीं कर पा रही थी। वे गहरी सोच में डूबे थे, मानो किसी अदृश्य शक्ति से संवाद कर रहे हों।
उन्होंने गहरी सांस ली और विदुर से कहा, "विदुर, क्या यह नियति का न्याय था? क्या मैं सच में अपने कर्मों का दंड भुगत रहा हूँ?
विदुर जो कि धर्म और नीति के ज्ञाता थे, बोले, राजन, समय का चक्र कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करता। जो बीज हम बोते हैं, वही हमें भविष्य में फल के रूप में प्राप्त होता है। आपके पिछले जन्म के पाप ही इस जन्म में आपके दुःख का कारण बने। यदि मनुष्य यह समझ जाए कि प्रत्येक कर्म का फल निश्चित है, तो वह सदैव सत्कर्मों में ही संलग्न रहेगा।
गांधारी, जो स्वयं भी अपने पति के प्रति अटूट निष्ठा के कारण अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर जीवनभर अंधकार में रही, बोली "स्वामी, आपने अपने कर्मों का फल भोग लिया। लेकिन अब भी समय है, आप अपने जीवन के शेष वर्ष प्रभु की भक्ति में लगाइए और प्रायश्चित कीजिए। इससे आपको आत्मशांति मिलेगी।
धृतराष्ट्र को अब यह समझ आ गया कि उन्होंने पिछले जन्म में हंस के साथ जो किया था, उसी का परिणाम उन्हें इस जन्म में मिला। उनके मन में ग्लानि तो थी, लेकिन अब वह प्रायश्चित की ओर बढ़ चुके थे।
कुछ समय बाद, धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर का राजमहल त्याग दिया और अपनी पत्नी गांधारी, विदुर और कुंती के साथ वन चले गए। वहाँ उन्होंने कठोर तपस्या की और अपने मन के सारे विकारों को त्यागकर ईश्वर की भक्ति में लीन हो गए।
कई वर्षों की तपस्या के बाद, एक दिन वे ध्यान में लीन थे, तभी उन्हें एक दिव्य ज्योति दिखाई दी। वे समझ गए कि यह प्रभु का संकेत है। उनकी आत्मा अब मुक्त होने को थी। उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली और इस संसार को त्याग दिया।
जब उन्होंने शरीर छोड़ा, तो उनकी आत्मा उसी हंस के रूप में प्रकट हुई, जिससे उन्होंने पिछले जन्म में अन्याय किया था। यह इस बात का प्रतीक था कि उनकी आत्मा ने अब अपने पापों का प्रायश्चित कर लिया था और अब वह निर्मल और पवित्र हो चुकी थी।
हर कर्म का फल निश्चित है: यदि हम बुरे कर्म करते हैं, तो हमें उसका फल अवश्य भुगतना पड़ता है, चाहे वह इसी जन्म में हो या अगले जन्म में।
क्रूरता और अहंकार का अंत दुखद होता है : जो व्यक्ति निर्दोष प्राणियों पर अत्याचार करता है, उसका जीवन कभी सुखी नहीं रहता।
प्रायश्चित से आत्मशुद्धि संभव है : यदि कोई व्यक्ति अपने पापों का एहसास कर ले और सच्चे मन से पश्चाताप करे, तो वह मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
ईश्वर का न्याय अटल है : इस ब्रह्मांड में कोई भी शक्ति हमारे कर्मों के फल को टाल नहीं सकती। जो जैसा करेगा, वैसा ही पाएगा।