युधिष्ठिर के साथ स्वर्ग तक जाने वाला कुत्ता कौन था?

विनोद कुमार झा

हिन्दू धर्मपुराणों में वर्णित कथा के अनुसार पांडवों और द्रौपदी ने अपने सांसारिक जीवन का त्याग कर स्वर्गारोहण के पथ पर यात्रा आरंभ की। उनके वस्त्र साधुओं जैसे थे, और मन में केवल एक ही उद्देश्य—स्वर्ग प्राप्ति। इस कठिन यात्रा में उनके साथ एक कुत्ता भी हो लिया। वह न तो कोई साधारण कुत्ता था, न ही उसे किसी इनाम की चाह थी; बस, वह निष्ठापूर्वक युधिष्ठिर का अनुसरण कर रहा था।  

पर्वत, नदियाँ, और तीर्थ पार करते हुए, उन्होंने लंबी दूरी तय की। द्रौपदी और उनके भाई एक-एक करके मार्ग में गिरते गए, परंतु युधिष्ठिर रुके नहीं। वह अपने धर्म, सत्य और करुणा के साथ आगे बढ़ते गए। अंततः, जब वे स्वर्ग के द्वार तक पहुँचे, तो इंद्र अपने दिव्य रथ के साथ प्रकट हुए।  इंद्र ने कहा, युधिष्ठिर, तुम अपने पुण्य और धर्म के कारण शरीर सहित स्वर्ग जाने के अधिकारी हो। आओ, मेरे रथ पर बैठो और अमरत्व प्राप्त करो।

युधिष्ठिर ने विनम्रता से उत्तर दिया, "देवराज, यह कुत्ता मेरे साथ पूरी यात्रा में था। यह मेरा सच्चा साथी और भक्त है। मैं इसे छोड़कर स्वर्ग नहीं जाऊँगा। इंद्र ने समझाया, स्वर्ग में मनुष्यों के लिए स्थान है, परंतु पशुओं के लिए नहीं। यह कुत्ता तुम्हारी यात्रा का भागीदार रहा, लेकिन इसे साथ नहीं ले जाया जा सकता। युधिष्ठिर अपने निर्णय पर अडिग रहे। उन्होंने कहा, मैं अपने धर्म को त्यागकर स्वर्ग नहीं जा सकता। इस कुत्ते ने मेरी पूरी यात्रा में मेरा साथ दिया, और इसे छोड़ना अन्याय होगा। यदि यह नहीं जा सकता, तो मैं भी स्वर्ग का लोभ त्याग दूँगा।

युधिष्ठिर की यह अडिग निष्ठा देखकर कुत्ता सहसा दिव्य तेज से प्रकाशित हुआ और अपना वास्तविक रूप प्रकट किया। वह स्वयं यमराज थे, जो युधिष्ठिर की परीक्षा लेने आए थे। यमराज ने प्रसन्न होकर कहा, "हे धर्मराज! तुमने अपने धर्म का पालन किया और करुणा नहीं छोड़ी। यही तुम्हारी सबसे बड़ी विजय है। अब तुम निःसंकोच स्वर्ग चल सकते हो।" इसके बाद, इंद्र ने युधिष्ठिर को अपने रथ में बैठाया और उन्हें स्वर्गलोक ले गए, जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ। 

जब देवराज इंद्र अपने रथ में युधिष्ठिर को लेकर स्वर्ग पहुँचे, तो वहाँ का अद्भुत वैभव देखकर युधिष्ठिर चकित रह गए। चारों ओर स्वर्ण महलों की चमक थी, देवगंधर्वों का मधुर संगीत गूंज रहा था, और दिव्य पुष्पों की सुगंध से वातावरण सुरभित था। स्वर्ग के द्वार पर इंद्र ने युधिष्ठिर का स्वागत किया और कहा, "हे धर्मराज, यह दिव्य लोक अब तुम्हारा है। यहाँ तुम्हें अमरत्व और परम सुख की प्राप्ति होगी। 

लेकिन युधिष्ठिर का हृदय संतुष्ट नहीं था। उन्होंने इंद्र से पूछा, मुझे यहाँ मेरे भाई और द्रौपदी दिखाई नहीं दे रहे। क्या वे भी यहाँ हैं?

इंद्र मुस्कुराए और बोले, हे युधिष्ठिर, तुम्हारे भाई और द्रौपदी ने भी अपने कर्मों के अनुसार अपने-अपने लोक प्राप्त किए हैं।  किन्तु युधिष्ठिर ने कहा, मुझे स्वर्ग का सुख तब तक स्वीकार्य नहीं, जब तक मैं अपने भाइयों और प्रिय द्रौपदी को नहीं देख लेता। यदि वे यहाँ नहीं हैं, तो मैं भी स्वर्ग का त्याग करने को तैयार हूँ।  

इंद्र ने युधिष्ठिर की परीक्षा लेनी चाही और उन्हें नरक का दर्शन कराया। वहाँ उन्होंने देखा कि उनके भाई भयंकर यातनाएँ सह रहे थे। यह देखकर युधिष्ठिर का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने कहा, "यदि मेरे भाई और द्रौपदी को कष्ट सहना पड़ रहा है, तो मैं भी उनके साथ रहूँगा। मैं अकेले स्वर्ग का सुख भोगने नहीं आया।"

युधिष्ठिर की निष्ठा और करुणा देखकर यमराज, ब्रह्मा, विष्णु और महादेव वहाँ प्रकट हुए। यमराज ने कहा, "हे धर्मराज, यह भी तुम्हारी परीक्षा थी। तुम्हारे भाइयों को कोई वास्तविक कष्ट नहीं हो रहा था, यह केवल तुम्हारी धर्मनिष्ठा को परखने के लिए एक भ्रम था। तुम सच्चे धर्मपथ के अनुयायी हो, इसलिए अब तुम्हारे भाई भी स्वर्ग में ही रहेंगे।

जैसे ही यमराज ने यह कहा, सारा दृश्य बदल गया। युधिष्ठिर ने देखा कि उनके भाई और द्रौपदी अब दिव्य स्वरूप में स्वर्गलोक में हैं, और वे सभी आनंदित होकर एकत्रित हो गए।  इसके बाद, युधिष्ठिर को अमरत्व और दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने धर्म के सच्चे स्वरूप को समझा और स्वर्ग में अपना स्थान ग्रहण किया। इस प्रकार, अपने सत्य, करुणा और धर्मनिष्ठा के कारण युधिष्ठिर पृथ्वी से शरीर सहित स्वर्ग जाने वाले एकमात्र राजा बने, और उनका नाम युगों-युगों तक धर्मराज के रूप में अमर हो गया।


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