कहानी: अकेलापन का दर्द

 विनोद कुमार झा

सूरज अपनी लालिमा समेटे क्षितिज के उस पार जाने को था। हल्की-हल्की ठंडी हवा चल रही थी, पर रामनाथ जी की ज़िंदगी में न तो ठंडक बची थी और न ही सुकून। उम्र के इस पड़ाव पर, जब कंधों पर ज़िम्मेदारियों का बोझ हल्का हो जाना चाहिए था, तब उनकी आत्मा अकेलेपन के बोझ से दबी जा रही थी।  पत्नी सुमित्रा को गए पाँच साल हो चुके थे। उनकी यादें अब भी घर के हर कोने में बसी थीं—कभी रसोई की खनकती चूड़ियों में, कभी पूजा के दीपक की लौ में, तो कभी अलमारी में रखी उनकी पुरानी साड़ियों में। जब तक सुमित्रा थी, घर एक मंदिर जैसा लगता था, पर अब वही घर किसी वीरान महल जैसा प्रतीत होता।  

बच्चों की शादी हो चुकी थी। वे अपने-अपने जीवन में व्यस्त थे। सभी सुखी थे, और रामनाथ जी को भी उनकी खुशियाँ देखकर खुशी होनी चाहिए थी, पर उनका दिल हर शाम एक अनकही उदासी में डूब जाता। दिन तो किसी तरह कट जाता, पर रातें बहुत भारी पड़तीं।  कभी-कभी वे रेडियो पर पुराने गाने लगाते और धीमे-धीमे गुनगुनाने लगते। कभी कोई गीत सुमित्रा की याद दिला देता, तो आँखें भर आतीं। "लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो..." जब यह गाना बजता, तो उन्हें वह शाम याद आ जाती जब सुमित्रा ने यह गाना सुनकर उनसे कहा था, "रामनाथ जी, हमारी ज़िंदगी कितनी खूबसूरत है न?" और आज वही ज़िंदगी वीरान हो गई थी।  

कभी-कभी वे अकेले में नाचने भी लगते—बिल्कुल वैसे ही जैसे कभी सुमित्रा के साथ नाचा करते थे। यह नृत्य सिर्फ़ शारीरिक क्रिया नहीं थी, बल्कि उनकी आत्मा का वह तड़पता हिस्सा था, जो इस दुनिया में खुद को ज़िंदा रखने के लिए संघर्ष कर रहा था।  शाम को वे अक्सर अपनी पत्नी की तस्वीर के पास जाकर बैठते और उससे बातें करते, मानो वह वहीं हो। "देखो सुमित्रा, बच्चे कितने खुश हैं, हमारी बहूएँ भी कितनी अच्छी हैं... पर तुम्हारे बिना यह घर घर नहीं रहा।" तस्वीर में सुमित्रा की मुस्कान जस की तस थी, लेकिन रामनाथ जी की आँखों में नमी थी।  

समय अपनी रफ़्तार से चल रहा था, पर रामनाथ जी के लिए हर दिन वही पुरानी यादों का दोहराव था। उन्हें अपने अकेलेपन की आदत तो पड़ गई थी, पर उससे राहत नहीं मिली थी। शायद यही जीवन का सच था—जो लोग हमारे लिए पूरी दुनिया होते हैं, उनके बिना यह दुनिया एक सूना जंगल बन जाती है, जहाँ सिर्फ़ यादों की गूँज बचती है।

रामनाथ जी की दिनचर्या अब एक तयशुदा ढर्रे पर चल रही थी। सुबह उठकर पूजा करना, थोड़ा टहलना, फिर अख़बार पढ़ना, और दोपहर में किसी तरह खाना खा लेना। लेकिन शामें अब भी सबसे मुश्किल होतीं। यह वो वक़्त था जब कभी सुमित्रा उनके साथ बैठकर चाय पीती थी, बच्चों की शरारतों के किस्से सुनाती थी, और वे दोनों जिंदगी के छोटे-छोटे सुख-दुख साझा करते थे।  

अब चाय का कप अकेले पीते हुए उन्हें उसकी अनुपस्थिति और भी खलने लगती। घर के हर कोने में जैसे खामोशी बस गई थी। हॉल में रखी उनकी पुरानी सिलाई मशीन अब भी वहीं थी, जिस पर सुमित्रा कभी-कभी बच्चों के कपड़े सिलती थी। अलमारी में उसकी साड़ियाँ अब भी उसी तरह तह करके रखी थीं, बस अब उन्हें पहनने वाला कोई नहीं था।  

एक दिन बेटे-बहू का फोन आया। "पापा, आप अकेले रहते हैं, क्यों न आप हमारे पास आ जाएँ?"  

रामनाथ जी हल्का-सा मुस्कुराए और बोले, "बेटा, मैं यहीं ठीक हूँ। यह घर मुझे तुम्हारी माँ की याद दिलाता है।"  सच तो यह था कि वे जानते थे कि उनके लिए अब किसी के पास समय नहीं था। बच्चे प्यार करते थे, पर अपनी जिम्मेदारियों में उलझे हुए थे। और उन्हें यह भी डर था कि अगर वे बच्चों के पास चले गए, तो शायद यह अकेलापन और भी ज्यादा महसूस होगा। कम से कम इस घर में वे अपनी यादों के सहारे जी तो रहे थे।  रामनाथ जी के अकेलेपन का एकमात्र सहारा उनकी पुरानी डायरी थी। सुमित्रा के जाने के बाद उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। कभी उनके साथ बिताए पुराने लम्हों को कागज पर उतारते, तो कभी अपने मन की बातें, जो किसी से कह नहीं सकते थे।  

एक दिन वे अपनी डायरी लिख रहे थे, तभी पुरानी तस्वीरों का एक एल्बम उनके हाथ लग गया। वे धीरे-धीरे तस्वीरें पलटने लगे—पहली तस्वीर उनकी शादी की थी, जिसमें सुमित्रा शर्म से घूंघट में छिपी हुई थी। दूसरी तस्वीर में वे दोनों किसी मेले में घूम रहे थे, जहाँ सुमित्रा ने ज़िद करके चूड़ियाँ खरीदी थीं। फिर बच्चों के बचपन की तस्वीरें—कितनी शरारतें करते थे वे सब!  हर तस्वीर के साथ एक याद जिंदा हो उठी। उनके होंठों पर मुस्कान आ जाती, पर कुछ ही देर में आँखें नम हो जातीं।  

एक दिन उनके पुराने दोस्त मिश्रा जी का फोन आया। "रामनाथ, कब तक यूँ अकेले बैठे रहोगे? हमारे कॉलोनी में एक वृद्धाश्रम है, वहाँ आओ न, बहुत अच्छे लोग हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा।"  पहले तो रामनाथ जी को यह विचार अजीब लगा, लेकिन फिर उन्होंने सोचा—शायद दूसरों से मिलकर उनके मन का बोझ हल्का हो सके।  अगले ही हफ्ते वे वृद्धाश्रम गए। वहाँ उनकी उम्र के कई लोग थे। कुछ उनके जैसे अकेले, तो कुछ अपने बच्चों द्वारा छोड़ दिए गए। लेकिन वहाँ हर शाम मिलकर भजन होते, हंसी-मजाक चलता, और सबसे खास बात यह थी कि वहाँ कोई अकेला महसूस नहीं करता था।  

धीरे-धीरे रामनाथ जी का दिल भी वहाँ रमने लगा। वे अपनी डायरी के कुछ अंश वहाँ सुनाने लगे, जिससे बाकी लोगों को भी प्रेरणा मिली। कभी-कभी वे रेडियो पर गाने बजाते और सबके साथ गुनगुनाते। वे जानते थे कि सुमित्रा की जगह कोई नहीं ले सकता, लेकिन जीवन का यह नया मोड़ उन्हें थोड़ा सुकून ज़रूर दे रहा था।  रामनाथ जी ने सीखा कि अकेलापन सिर्फ़ एक अवस्था है, कोई नियति नहीं। यादें कभी खत्म नहीं होतीं, लेकिन नए रिश्ते, नई दोस्ती और नई ज़िंदगी की संभावनाएँ भी हमेशा बनी रहती हैं।  

अब जब वे सुमित्रा की तस्वीर देखते, तो उदासी कम और अपनापन ज़्यादा महसूस होता। मानो वह कह रही हो, "रामनाथ जी, जिंदगी अभी बाकी है...!" वृद्धाश्रम में कुछ महीने बिताने के बाद रामनाथ जी की ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया। वहाँ रहने वाले लोगों के साथ उनकी गहरी दोस्ती हो गई थी। हर सुबह वे बगीचे में टहलते, दिन में कोई न कोई पुरानी कहानी सुनाते और शाम को भजन-कीर्तन में शामिल होते। अकेलेपन की पीड़ा अब भी थी, लेकिन उसमें अब पहले जैसी टीस नहीं थी। 

रामनाथ जी की मुलाकात वृद्धाश्रम में रहने वाली सुनीता जी से हुई। वे भी उन्हीं की उम्र की थीं और उनकी कहानी भी कुछ-कुछ उनसे मिलती-जुलती थी। उनके पति का कई साल पहले निधन हो चुका था, और उनका बेटा विदेश में बस चुका था।  शुरुआत में दोनों बस औपचारिक बातचीत करते थे, लेकिन धीरे-धीरे वे अच्छे दोस्त बन गए। दोनों को पुराने हिंदी गाने बहुत पसंद थे, इसलिए कभी-कभी रेडियो पर गाने लगाकर साथ में सुनते। कभी ग़ालिब की शायरी पर चर्चा करते, तो कभी बीते दिनों की बातें करते।  

एक दिन सुनीता जी ने पूछा, "रामनाथ जी, क्या आपको लगता है कि अकेलेपन की आदत पड़ सकती है?" 

रामनाथ जी मुस्कुराए और बोले, "आदत तो पड़ सकती है, लेकिन मन कभी पूरी तरह नहीं भरता।" सुनीता जी ने सहमति में सिर हिलाया। उन्हें भी यही महसूस होता था।  हालांकि रामनाथ जी ने वृद्धाश्रम को ही अपना घर मान लिया था, लेकिन उनका मन अब भी बच्चों के लिए तड़पता था। वे फोन पर बात करते थे, वीडियो कॉल भी हो जाती थी, लेकिन वह नजदीकी नहीं थी जो कभी हुआ करती थी।  

एक दिन बेटे का फोन आया, "पापा, मैं भारत आ रहा हूँ। इस बार आपको लेने ही आऊँगा।"

रामनाथ जी कुछ पल चुप रहे, फिर बोले, "बेटा, मैं यहाँ खुश हूँ। तुम आओ, मुझसे मिलो, लेकिन जबरदस्ती मत करना।"बेटा कुछ नहीं बोला, लेकिन शायद उसने अपने पिता की आवाज़ में छिपा दर्द महसूस कर लिया था।  

समय बीतता गया। रामनाथ जी और सुनीता जी की दोस्ती और गहरी हो गई। वृद्धाश्रम में बाकी लोग मजाक में कहने लगे कि उनकी जोड़ी सबसे प्यारी है।  

एक दिन मिश्रा जी ने हंसते हुए कहा, "रामनाथ, तुम और सुनीता जी शादी क्यों नहीं कर लेते?" 

रामनाथ जी और सुनीता जी एक-दूसरे की ओर देख कर मुस्कुरा दिए। शादी की उम्र तो कब की बीत चुकी थी, लेकिन एक-दूसरे का सहारा बनने की कोई उम्र नहीं होती।  कई दिन तक वे इस बारे में सोचते रहे। आखिरकार, एक दिन सुनीता जी ने कहा, "रामनाथ जी, जिंदगी के इस मोड़ पर हमें किसी नाम की जरूरत नहीं, बस एक-दूसरे का साथ चाहिए।"

रामनाथ जी की आँखें नम हो गईं। उन्होंने सुमित्रा की तस्वीर देखी और मन-ही-मन कहा, "सुमित्रा, तुम हमेशा मेरी जिंदगी का हिस्सा रहोगी, लेकिन क्या मुझे अपने बचे हुए दिन अकेले बिताने चाहिए?"* 

सुमित्रा की तस्वीर मुस्कुरा रही थी। मानो कह रही हो, "जिंदगी आगे बढ़ने के लिए ही बनी है।"  रामनाथ जी और सुनीता जी ने जीवनसाथी के रूप में नहीं, बल्कि दोस्त और सहारा बनकर साथ रहने का फैसला किया। वृद्धाश्रम में अब उनका समय और भी सहजता से बीतने लगा।  अकेलापन अब भी था, लेकिन उसमें दर्द कम और अपनापन ज़्यादा था। रामनाथ जी ने सीखा कि जिंदगी हमेशा एक जैसी नहीं रहती, लेकिन अगर हम अपने दिल के दरवाजे खुले रखें, तो खुशियाँ किसी न किसी रूप में वापस आ ही जाती हैं।

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