विनोद कुमार झा
हिंदू धर्म में भगवान श्रीगणेश को बुद्धि, ज्ञान और सफलता का प्रतीक माना जाता है। उनकी अद्वितीय आकृति हाथी का मुख, विशाल उदर और टूटा हुआ दंत गहरे आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक रहस्यों से भरी हुई है। उनके इस रूप में छिपे प्रतीक हमें जीवन के महत्वपूर्ण सत्य सिखाते हैं।
गणेश जी का टूटा हुआ दंत उनके धैर्य, त्याग और अटूट संकल्प का परिचायक है। इसके पीछे कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं, जिनमें से एक कथा कैलाश पर्वत से जुड़ी है। यह कथा न केवल देवताओं के आपसी स्नेह और लीलाओं को दर्शाती है, बल्कि गणेश जी के महान व्यक्तित्व को भी उजागर करती है। आइए, इस दिव्य रहस्य से पर्दा उठाते हैं...
पौराणिक कथा के अनुसार एक दिन कैलाश पर्वत पर हलचल मची थी। श्रीगणेश अपनी मूषक सवारी पर बैठकर आनंदपूर्वक भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने अभी-अभी प्रिय मोदकों का भोग लगाया था, जिससे उनका हृदय प्रसन्न था। किंतु भाग्य को कुछ और ही स्वीकार था।
उसी समय भगवान कार्तिकेय एक विशेष ग्रंथ की रचना में लीन थे। यह ग्रंथ स्त्री और पुरुषों के उत्तम लक्षणों पर आधारित था। श्रीगणेश को खेल का मन हुआ, तो वे अपने बड़े भाई को बार-बार छेड़ने लगे। कभी उनके पृष्ठ उड़ा देते, कभी उनकी कलम छिपा देते। कार्तिकेय ने पहले तो सहन किया, किंतु जब गणेश का मजाक ज़्यादा बढ़ा, तो वे क्रोधित हो गए। क्रोध में उन्होंने पास रखे अपने अस्त्र से श्रीगणेश के एक दांत पर आघात किया।
गणेश आश्चर्य में पड़ गए! उनका एक दंत टूटकर भूमि पर गिरा। तभी आकाशवाणी हुई "हे गणेश, यह टूटा हुआ दंत तुम्हारे लिए गौरवशाली होगा। एक दिन यह तुम्हारी सबसे बड़ी शक्ति बनेगा।" कार्तिकेय को अपनी गलती का अहसास हुआ, उन्होंने दंत उठाकर गणेश को लौटाया और कहा, *"भैया, इसे सदैव अपने साथ रखना, यह तुम्हारी पहचान बनेगा।"* श्रीगणेश ने अपने हाथ में उस दंत को धारण कर लिया।
कुछ समय पश्चात, एक रात्रि श्रीगणेश अपने वाहन मूषक पर कैलाश से नीचे भ्रमण को निकले। चंद्र अपनी सुंदर आभा से आकाश को आलोकित कर रहे थे। मूषक तीव्र गति से भाग रहा था कि अचानक मार्ग में एक विशाल सर्प आ गया। मूषक डरकर रुक गया, जिससे संतुलन बिगड़ा और श्रीगणेश धड़ाम से गिर पड़े।
आकाश से यह दृश्य देखकर चंद्रदेव हंस पड़े। "कैसे देव हैं ये? स्वयं गिर पड़े और अपने वाहन को भी संभाल न सके!" उन्होंने व्यंग्य कसा। गणेश ने जब यह सुना, तो उनका क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने तुरंत अपने गले से मोतियों जैसी आभा वाले सर्प को निकाला और उसे अपनी कमर पर बांध लिया। फिर क्रोध में आकर अपना टूटा हुआ दंत उठाया और चंद्र पर प्रहार कर दिया जिससे चंद्र की सुंदरता क्षीण हो गई। उनकी ज्योति मंद पड़ गई। श्रीगणेश ने कहा, "हे चंद्र! तुमने अपनी सुंदरता का घमंड किया, इसलिए अब तुम कलंकित रहोगे।"
चंद्रदेव घबराए। वे क्षमा मांगने लगे। तभी महादेव प्रकट हुए और उन्होंने कहा, "गणेश! तुम्हारा क्रोध उचित है, किंतु चंद्रमा के बिना यह सृष्टि अधूरी रह जाएगी।" गणेश ने थोड़ा सोचा और बोले, "ठीक है, किंतु यह कलंक हर पूर्णिमा को मिटेगा और अमावस्या को पुनः प्रकट होगा।"तभी से चंद्रमा घटता-बढ़ता है और पूर्णिमा की रात अपनी संपूर्ण आभा पुनः प्राप्त करता है।
एक और पौराणिक कथा के अनुसार कालांतर में जब महर्षि वेदव्यास ने महाभारत लिखने का संकल्प लिया, तो उन्होंने श्रीगणेश से इसे लिखने का अनुरोध किया। श्रीगणेश सहर्ष तैयार हो गए, किंतु उन्होंने शर्त रखी कि लेखन तभी संभव होगा जब बिना रुके वेदव्यास श्लोकों का उच्चारण करेंगे। लेखन प्रारंभ हुआ। परंतु श्रीगणेश की लेखनी की गति इतनी तीव्र थी कि बार-बार उनकी कलम टूट जाती थी। उन्होंने अपने टूटे हुए दंत को याद किया। यह सोचकर कि देवताओं की यह योजना पहले से ही नियत थी, उन्होंने वही दंत उठाया और उससे लेखन करने लगे।
इस प्रकार, वही टूटा हुआ दंत, जो कभी खेल में टूटा था, जिसने चंद्र को कलंकित किया था, वही दंत महाभारत जैसे महाकाव्य के लेखन का साधन बना। महाभारत की कथा समाप्त होने के बाद, श्रीगणेश अपने भक्तों के बीच और भी अधिक पूजनीय हो गए। उनका एकदंत न केवल उनकी पहचान बना, बल्कि यह भी प्रमाणित हुआ कि किसी भी चुनौती को स्वीकार कर उसे अपनी शक्ति में बदलना ही सच्ची बुद्धिमत्ता है।
अब जब वेदव्यास जी ने महाभारत के अंतिम श्लोक का उच्चारण किया, तो श्रीगणेश ने दंत से अंतिम अक्षर भी लिख दिया। उन्होंने अपना टूटा हुआ दंत देखा वह लेखनी के रूप में महाकाव्य का साक्षी बन चुका था। इसे देख कर देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की। इंद्रदेव बोले, "हे गणेश! तुमने सिद्ध कर दिया कि बल से अधिक बुद्धि महत्वपूर्ण होती है। तुम न केवल प्रथम पूज्य हो, बल्कि अब 'विद्या और लेखन के देवता' के रूप में भी जाने जाओगे।" इसके बाद महादेव और माता पार्वती ने अपने पुत्र को आशीर्वाद दिया। "हे पुत्र! यह महाभारत युगों-युगों तक इस सृष्टि का मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हारा नाम सदा आदरपूर्वक लिया जाएगा।"
महर्षि वेदव्यास ने श्रीगणेश को प्रणाम किया और कहा, "हे गणेश! यदि तुमने यह महाकाव्य न लिखा होता, तो यह ज्ञान युगों तक लोगों तक न पहुँच पाता।" गणेश मुस्कुराए और बोले, "हे महर्षि! यह तो मेरा सौभाग्य था, किंतु आपको भी तो निरंतर श्लोक उच्चारित करने पड़े। यह हमारी साझा साधना थी।" तभी माता सरस्वती भी वहां प्रकट हुईं और उन्होंने श्रीगणेश को वरदान दिया, "हे गणेश! अब से प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारंभ में तुम्हारी वंदना की जाएगी, क्योंकि जो ज्ञान और लेखनी का सम्मान करता है, वही सृष्टि को सच्ची दिशा दे सकता है।"
कालांतर में, श्रीगणेश के एकदंत स्वरूप की पूजा होने लगी। जब भी कोई लेखक कलम उठाता, तो वह पहले गणेश का स्मरण करता। जब भी कोई विद्यार्थी नया ज्ञान अर्जित करता, तो वह पहले गणेश को प्रणाम करता। आज भी जब कोई नई पुस्तक लिखी जाती है, जब कोई विद्यार्थी परीक्षा देने जाता है, या जब कोई नया कार्य प्रारंभ किया जाता है, तो सबसे पहले गणेश वंदना की जाती है जो इस प्रकार है :-
"वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा॥"
और इस प्रकार, श्रीगणेश का टूटा हुआ दंत केवल उनकी पहचान नहीं, बल्कि ज्ञान, लेखन, और बुद्धिमत्ता का प्रतीक बन गया। समय बीतता गया, और श्रीगणेश अपने भक्तों के बीच प्रथम पूज्य देव के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। उनकी बुद्धि, उनकी विद्या, और उनका अद्भुत एकदंत सभी के लिए प्रेरणा बन गए। किंतु देवताओं को एक परीक्षा लेनी थी, क्या श्रीगणेश केवल ज्ञान में ही श्रेष्ठ थे, या वे अन्य गुणों में भी उतने ही अद्वितीय थे?