विनोद कुमार झा
यह कथा हिंदू धर्मग्रंथ "महाभारत" (आदि पर्व, अध्याय 5-6) और "विष्णु पुराण" में वर्णित है। यह कथा धर्म, सत्य, स्त्री सम्मान, और क्रोध के प्रभाव को दर्शाती है। महर्षि भृगु, जो ब्रह्मा के मानस पुत्र थे, सप्तर्षियों में से एक माने जाते हैं। वे अत्यंत तेजस्वी और ज्ञानवान थे। उनकी पत्नी पुलोमा महान तपस्विनी और रूपवती थीं।
एक समय महर्षि भृगु और पुलोमा अपने आश्रम में निवास कर रहे थे। पुलोमा गर्भवती थीं और महर्षि भृगु अपनी साधना और यज्ञों में लगे रहते थे। इसी बीच, जब महर्षि भृगु किसी कार्यवश आश्रम से बाहर गए, तब एक राक्षस वहाँ आया।
इस राक्षस का नाम भी पुलोमा था, और वह पहले से ही पुलोमा को चाहता था। किंतु पुलोमा का विवाह महर्षि भृगु से हो चुका था। इस कारण वह राक्षस क्रोधित था और अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था। जब उसने पुलोमा को अकेले देखा, तो उसने आश्रम की रक्षा कर रहे अग्निदेव से पूछा,यह स्त्री, पुलोमा, किसकी पत्नी है? क्या यह वास्तव में महर्षि भृगु की पत्नी है, या मुझसे पूर्व वचनबद्ध थी?
अग्निदेव धर्मसंकट में पड़ गए। वे जानते थे कि सत्य छुपाना अधर्म होगा, किंतु सत्य उजागर करने से अनर्थ हो सकता है। फिर भी, धर्म का पालन करते हुए अग्निदेव ने उत्तर दिया, यह देवी महर्षि भृगु की धर्मपत्नी हैं।
राक्षस पुलोमा यह सुनकर क्रोधित हो गया। उसने कहा, पहले यह मुझसे विवाह के लिए वचनबद्ध थी, परंतु भृगु ने इसे छल से प्राप्त कर लिया! यह कहकर वह पुलोमा को बलपूर्वक अपने साथ ले जाने का प्रयास करने लगा।
राक्षस पुलोमा ने जैसे ही पुलोमा को स्पर्श किया, वे अत्यंत भयभीत हो गईं। इस भय और दुख के कारण उनके गर्भ में पल रहे शिशु का जन्म हो गया। जैसे ही शिशु धरती पर आया, उसकी दिव्य आभा इतनी प्रखर थी कि उसके तेज से ही वह राक्षस जलकर भस्म हो गया। यह तेजस्वी शिशु आगे चलकर महर्षि च्यवन के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनका उल्लेख कई पुराणों और महाभारत में मिलता है।
जब महर्षि भृगु आश्रम लौटे और उन्होंने अपनी पत्नी से यह घटना सुनी, तो वे अत्यंत क्रोधित हो उठे। उन्हें ज्ञात हुआ कि अग्निदेव ने ही पुलोमा के बारे में राक्षस को सत्य बताया था। अग्निदेव की इस कृत्य को महर्षि भृगु ने अन्यायपूर्ण माना और क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया, हे अग्निदेव! आपने अधर्म को बढ़ावा दिया है। अब से आप हर वस्तु को जलाने वाले और अपवित्र करने वाले हो जाओगे!
महर्षि भृगु के इस श्राप से अग्निदेव अत्यंत दुखी हुए और देवताओं से सहायता की याचना की। अग्निदेव देवताओं के पास गए और अपनी व्यथा सुनाई। तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की।
ब्रह्मा जी ने अग्निदेव को आश्वासन दिया, हे अग्निदेव! भृगु मुनि ने आपको जो श्राप दिया है, वह यद्यपि सत्य है, परंतु आप सदैव पवित्र ही रहेंगे। आपके बिना संसार की कोई भी क्रिया संभव नहीं होगी। यज्ञों के माध्यम से आप देवताओं तक हविष्य पहुँचाने का कार्य करते रहेंगे।"**
ब्रह्मा जी के इस वचन से अग्निदेव को संतोष हुआ और वे अपने दैवीय कार्यों में पुनः संलग्न हो गए। सत्य और धर्म का पालन आवश्यक है, परंतु विवेकपूर्ण ढंग से करना चाहिए। अग्निदेव ने सत्य कहा, किंतु परिणाम घातक हुआ। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि सत्य कहने से पहले परिस्थिति का आंकलन आवश्यक है।
महर्षि भृगु का क्रोध अग्निदेव को श्राप देने का कारण बना, जिससे स्वयं अग्निदेव को दुख हुआ। पुलोमा के गर्भ में पल रहे च्यवन ऋषि ने अपने जन्म से ही अधर्म का नाश किया, जो यह दर्शाता है कि धर्म और स्त्री सम्मान की रक्षा करना अत्यंत आवश्यक है। अंततः ब्रह्मा जी ने अग्निदेव को यह वरदान दिया कि वे सदा पवित्र रहेंगे, जो यह दर्शाता है कि ईश्वर सदा न्याय करते हैं।
यह कथा न केवल हिंदू धर्म के मूलभूत सिद्धांतों को दर्शाती है, बल्कि हमें यह भी सिखाती है कि सत्य, धर्म, और स्त्री सम्मान की रक्षा ही समाज की उन्नति का मार्ग है।