विनोद कुमार झा
घने जंगलों और ऊँचे पर्वतों के बीच बसा था एक प्राचीन आश्रम 'सत्यधाम' जहाँ तपस्वी ऋषि वसिष्ठ अपने शिष्यों को आत्मज्ञान और मोक्ष का मार्ग सिखाते थे। दूर-दूर से लोग उनकी शरण में आते, लेकिन मोक्ष का रहस्य केवल वही जान पाते जो अपने अहंकार और इच्छाओं का त्याग कर पाते थे।एक दिन, एक युवक, अर्जुन, मोक्ष की खोज में सत्यधाम पहुँचा। उसकी आँखों में एक अजीब बेचैनी थी। वह राजकुल में जन्मा था, धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं थी, लेकिन मन में शांति नहीं थी। उसे विश्वास था कि ऋषि वसिष्ठ ही उसकी आत्मा की प्यास बुझा सकते हैं।
"गुरुदेव, मैं मोक्ष की प्राप्ति चाहता हूँ," अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा।
ऋषि वसिष्ठ मुस्कुराए। "मोक्ष शब्द मात्र कहने से नहीं मिलता, पुत्र। क्या तुम अपने अहंकार, इच्छाएँ और मोह का त्याग करने को तैयार हो?"
अर्जुन ने सिर हिलाया, लेकिन वसिष्ठ ने कहा, तब तुम्हें एक यात्रा पर जाना होगा। जब तक तुम अपने भीतर के अंधकार को नहीं हराते, तब तक प्रकाश नहीं मिलेगा।
अर्जुन को जंगल में भेज दिया गया, जहाँ उसे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कभी उसे भयंकर भूख लगती, तो कभी भयावह पशु रास्ता रोक लेते। लेकिन सबसे कठिन परीक्षा थी। अपने भीतर उठती इच्छाओं को रोकना।
एक दिन, अर्जुन को एक सुंदर सरोवर मिला, जिसमें कमल खिले थे और पक्षी मधुर गीत गा रहे थे। वहाँ एक युवती पानी भर रही थी, जिसकी आँखों में गहरा आकर्षण था। अर्जुन को उसका सौंदर्य मोहने लगा। लेकिन तभी उसे गुरुदेव के वचन याद आए, इच्छाओं का त्याग ही मोक्ष का पहला कदम है। उसने अपने मन को वश में किया और आगे बढ़ गया।
कई वर्षों की साधना और संघर्ष के बाद अर्जुन सत्यधाम लौटा। अब उसके चेहरे पर एक अलग ही तेज था। वसिष्ठ ने उसे देखकर कहा, "पुत्र, बताओ, क्या तुमने मोक्ष प्राप्त कर लिया?
अर्जुन ने मुस्कुराकर कहा, गुरुदेव, मैंने जाना कि मोक्ष कहीं बाहर नहीं, यह तो भीतर की अवस्था है। जब मन शुद्ध हो जाता है, जब हम इच्छाओं और अहंकार से मुक्त हो जाते हैं, तब हमें मोक्ष मिल जाता है।
ऋषि वसिष्ठ ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। "तुमने सत्य को पहचान लिया, अर्जुन। अब तुम मुक्त हो!"
अर्जुन ने आँखें बंद कीं, और उसकी आत्मा ब्रह्मांड में विलीन हो गई और मोक्ष प्राप्त हो गया। अर्जुन का शरीर वहीं बैठा था, लेकिन उसका मन और आत्मा एक नई अवस्था में प्रवेश कर चुके थे। उसने अपने भीतर एक अनोखी शांति और प्रकाश का अनुभव किया, मानो वह स्वयं ब्रह्मांड का हिस्सा बन चुका हो। उसके भीतर अब कोई वासना, कोई मोह, कोई अहंकार शेष नहीं था। वह केवल शुद्ध चेतना बन चुका था।
ऋषि वसिष्ठ के अन्य शिष्य आश्चर्यचकित थे। वे जानते थे कि मोक्ष प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, लेकिन अर्जुन ने अपने तप और त्याग से उसे पा लिया था।
एक दिन, अर्जुन ने ऋषि वसिष्ठ से कहा, "गुरुदेव, मैंने मोक्ष को समझ लिया, लेकिन क्या यह केवल मेरे लिए था? क्या संसार के अन्य लोग भी इसे प्राप्त नहीं कर सकते?"
वसिष्ठ मुस्कुराए। "सत्य को जानना ही पर्याप्त नहीं, उसे बाँटना भी आवश्यक है। यदि तुम चाहो तो अब संसार को इसकी राह दिखा सकते हो।"
अर्जुन को यह विचार भा गया। उसने संकल्प लिया कि वह सत्यधाम में ही रहकर लोगों को आत्मज्ञान की शिक्षा देगा। अब वह स्वयं एक गुरु बन चुका था। धीरे-धीरे उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई, और अनेक जिज्ञासु उसके पास आने लगे।
एक दिन, एक अन्य युवा राजकुमार, विक्रम, सत्यधाम पहुँचा। वह अहंकारी था और अपने ज्ञान पर गर्व करता था। उसने अर्जुन से कहा, "मैंने वेद-शास्त्रों का गहन अध्ययन किया है। मुझे लगता है कि मुझे तुम्हारी शिक्षा की आवश्यकता नहीं है।"
अर्जुन मुस्कुराए और बोले, "यदि तुम सब कुछ जानते हो, तो बताओ, मोक्ष क्या है?"
विक्रम ने उत्तर दिया, "मोक्ष का अर्थ है जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति। जब आत्मा इस संसार से मुक्त हो जाती है, तब उसे मोक्ष प्राप्त होता है।"
अर्जुन ने सिर हिलाया। "यह तो परिभाषा है, लेकिन क्या तुमने इसे अनुभव किया है?"
विक्रम चुप हो गया। अर्जुन ने आगे कहा, "सच्चा मोक्ष केवल ज्ञान से नहीं, बल्कि अनुभव और आत्म-विजय से प्राप्त होता है। जब तक अहंकार है, तब तक मोक्ष संभव नहीं।" विक्रम को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने अर्जुन के चरणों में सिर झुका दिया और कहा, "गुरुदेव, मुझे भी मोक्ष का वास्तविक अनुभव कराइए।"
अर्जुन ने मुस्कुराकर उसे अपने साथ एक नई यात्रा पर भेज दिया—स्वयं को पहचानने की यात्रा। अर्जुन ने अपने जीवन को सत्य और ज्ञान के प्रसार में लगा दिया। वह स्वयं मोक्ष पा चुका था, लेकिन अब उसका उद्देश्य दूसरों को भी इस राह पर चलाना था। सत्यधाम एक साधारण आश्रम से एक महान ज्ञानपीठ बन चुका था।
अर्जुन जानता था कि मोक्ष केवल एक अंतिम लक्ष्य नहीं, बल्कि एक निरंतर यात्रा है। स्वयं को खोजने की, स्वयं को मिटाने की, और ब्रह्मांड में विलीन होने की।
सत्यधाम अब केवल एक आश्रम नहीं, बल्कि आत्मज्ञान की पावन स्थली बन चुका था। अर्जुन के शिष्यों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही थी। दूर-दूर से लोग यहाँ आते और मोक्ष के मार्ग को समझने का प्रयास करते। अर्जुन ने जीवन के सरल नियम बनाए—सत्य, अहिंसा, और आत्मसंयम। लेकिन मोक्ष की राह केवल नियमों से नहीं, बल्कि अनुभव से ही संभव थी।
एक दिन, एक वृद्ध ब्राह्मण, देवदत्त, सत्यधाम पहुँचा। उसने अर्जुन से कहा, "गुरुवर, मैं जीवनभर शास्त्र पढ़ता रहा, यज्ञ-हवन करता रहा, परंतु मुझे अब तक मोक्ष का अनुभव नहीं हुआ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।"
अर्जुन ने मुस्कुराते हुए पूछा, "क्या तुमने कभी अपने भीतर झाँकने का प्रयास किया?"
देवदत्त चौंक गया। "भीतर? लेकिन मैं तो बाहरी संसार में सत्य की खोज कर रहा था।" यही भूल है, अर्जुन बोले, जब तक हम बाहरी चीज़ों में सत्य को खोजते रहेंगे, तब तक हमें केवल भ्रम ही मिलेगा। सत्य हमारे भीतर ही छिपा है, लेकिन उसे देखने के लिए अहंकार और आसक्तियों का त्याग करना होगा।"
देवदत्त ने गहरी साँस ली। उसने वर्षों तक वेदों का अध्ययन किया था, लेकिन कभी अपने भीतर झाँकने का प्रयास नहीं किया था। अब वह अर्जुन की शरण में रहा और धीरे-धीरे उसकी आत्मा में शांति का संचार होने लगा।
अर्जुन के ज्ञान की ख्याति अब राजमहलों तक पहुँच चुकी थी। एक दिन, राजा चंद्रसेन सत्यधाम पहुँचे। उनके साथ भारी सैनिक दल, हाथी-घोड़े, और ढेर सारी संपत्ति थी। उन्होंने अर्जुन से कहा, "गुरुवर, मैं इस राज्य का सबसे शक्तिशाली राजा हूँ, परंतु फिर भी मुझे शांति नहीं मिलती। मैं चाहता हूँ कि आप मुझे मोक्ष प्रदान करें। बदले में मैं आपको सोना, आभूषण, और भूमि दान करता हूँ।"
अर्जुन हँसे। "राजन, मोक्ष कोई व्यापार नहीं जो सोने-चाँदी से खरीदा जा सके।" राजा असमंजस में पड़ गए। "तो फिर इसे कैसे पाया जाए?"
अर्जुन ने पास ही पड़े एक छोटे पत्थर को उठाया और राजा से कहा, "इसे उठा लीजिए।"
राजा ने पत्थर उठा लिया।
"अब इसे छोड़ दीजिए।"
राजा ने पत्थर छोड़ दिया।
यही मोक्ष है, राजन!" अर्जुन ने समझाया। "जैसे आपने इस पत्थर को छोड़ा, वैसे ही जब हम अपने मन के भार—अहंकार, लालसा, मोह, और भय—को छोड़ देते हैं, तब हमें मोक्ष मिलता है। यह बाहर से नहीं आता, यह भीतर से जागता है।" राजा ने यह सुना और उनकी आँखों में अश्रु आ गए। उन्होंने वहीं अपने मुकुट और राजसी वस्त्र उतार दिए और संन्यास ले लिया।
अर्जुन की आयु अब ढलने लगी थी। उनके शिष्य और अनुयायी चिंतित थे कि जब वह नहीं रहेंगे, तब सत्यधाम का क्या होगा?
अर्जुन ने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा, "सत्य केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं होता, यह एक धारा की तरह है। मैं नहीं रहूँगा, लेकिन सत्य और मोक्ष का मार्ग हमेशा रहेगा। ज्ञान को रोका नहीं जा सकता। यदि तुम इसे सच्चे मन से अपनाओगे और आगे बढ़ाओगे, तो यह संसार को हमेशा प्रकाशित करता रहेगा।"
अर्जुन ने ध्यान मुद्रा में बैठकर अंतिम बार अपनी आँखें बंद कीं। कुछ क्षण बाद, उनका शरीर निष्क्रिय हो गया, लेकिन उनके चेहरे पर अद्भुत शांति थी। उनके शिष्यों ने जाना कि अर्जुन अब साकार रूप में नहीं, बल्कि चेतना के रूप में इस ब्रह्मांड का हिस्सा बन चुके थे—पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर चुके थे।
अर्जुन के मोक्ष प्राप्त करने के बाद, सत्यधाम में गहरी शांति छा गई। उनके शिष्य और अनुयायी कुछ समय तक शोक में डूबे रहे, लेकिन फिर उन्हें याद आया कि अर्जुन ने सिखाया था "सत्य और मोक्ष किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं होते, वे अनंत हैं।"
अर्जुन के प्रमुख शिष्य देवदत्त, विक्रम, और अन्य ने मिलकर सत्यधाम की परंपरा को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। वे जानते थे कि अगर अर्जुन की शिक्षाएँ केवल एक स्थान तक सीमित रहीं, तो उनका उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। इसलिए उन्होंने सत्य और आत्मज्ञान का संदेश दूर-दूर तक फैलाने का संकल्प लिया। समय बीतता गया, और सत्यधाम केवल एक आश्रम नहीं, बल्कि एक आंदोलन बन गया। अर्जुन के शिष्य अलग-अलग दिशाओं में गए और ज्ञान का दीप जलाने लगे।
देवदत्त पूर्व की ओर गए और वहाँ के नगरों में सत्य और ध्यान की शिक्षा देने लगे। विक्रम दक्षिण की ओर गए और शासकों को अहंकार और माया के जाल से मुक्त होने का मार्ग दिखाने लगे। अन्य शिष्य गाँव-गाँव, नगर-नगर जाकर लोगों को यह समझाने लगे कि मोक्ष केवल संन्यास से नहीं, बल्कि जीवन के सही आचरण से भी प्राप्त किया जा सकता है। धीरे-धीरे सत्यधाम का नाम पूरे देश में गूँजने लगा। लोग अब मोक्ष को एक रहस्यपूर्ण अवधारणा नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक मार्ग के रूप में देखने लगे।
लेकिन जैसे-जैसे सत्यधाम की ख्याति बढ़ी, कुछ लोग इसे अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करने लगे। कुछ नए गुरुओं ने मोक्ष को एक व्यापार बना दिया। वे लोगों से दान और संपत्ति लेने लगे, और ज्ञान को केवल अमीरों तक सीमित कर दिया। एक दिन, विक्रम वापस सत्यधाम आए और उन्होंने देखा कि कुछ नए लोग वहाँ स्वयं को गुरु कहकर बैठे थे और मोक्ष के नाम पर स्वार्थपूर्ण कार्य कर रहे थे। उन्होंने देवदत्त को यह सब बताया। देवदत्त ने गंभीर स्वर में कहा, "यही संसार का स्वभाव है। जहाँ प्रकाश होता है, वहाँ अंधकार भी आता है। लेकिन हमें सत्य की रक्षा करनी होगी।"
देवदत्त और विक्रम ने सत्यधाम में एक नई व्यवस्था शुरू की। उन्होंने यह नियम बनाया कि ज्ञान केवल उन्हीं को दिया जाएगा जो वास्तव में इसे समझने और अपनाने के इच्छुक होंगे, न कि उन लोगों को जो इसे केवल बाहरी दिखावे के लिए चाहते हैं। उन्होंने यह भी तय किया कि कोई भी व्यक्ति गुरुत्व का दावा नहीं करेगा जब तक कि वह सच्चे अर्थों में अहंकार और इच्छाओं से मुक्त न हो जाए। धीरे-धीरे सत्यधाम फिर से अपने मूल स्वरूप में लौट आया।
कई वर्षों बाद, देवदत्त और विक्रम भी अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुँचे। एक दिन, देवदत्त ने अपने शिष्यों से कहा, "अर्जुन ने हमें सिखाया था कि मोक्ष एक अंतिम लक्ष्य नहीं, बल्कि एक यात्रा है। हम सब उस यात्रा के राही हैं। एक दिन हम नहीं रहेंगे, लेकिन यह ज्ञान कभी समाप्त नहीं होगा।"
और ठीक वैसे ही, जैसे अर्जुन ने ध्यान में लीन होकर अपनी चेतना को ब्रह्मांड में विलीन कर दिया था, देवदत्त और विक्रम ने भी अपने अंतिम क्षणों में वही मार्ग अपनाया। लेकिन सत्यधाम जीवित रहा—नए शिष्यों के रूप में, नए सत्यान्वेषियों के रूप में, और सबसे अधिक, उन विचारों और शिक्षाओं के रूप में जो अनंत तक गूँजती रही अंत नहीं, एक नई शुरुआत है।
(लेखक : विनोद कुमार झा)