विनोद कुमार झा
महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने ही वाला था। दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। शंख बज चुके थे, रणभूमि में युद्ध का वातावरण बन चुका था। तभी अर्जुन के मन में भारी संदेह और मोह उत्पन्न हो गया। उन्होंने अपने सारथी श्रीकृष्ण से कहा, हे "मधुसूदन! मेरे अपने ही बंधु-बांधव, गुरुजन और संबंधी इस युद्ध में मेरे सामने खड़े हैं। मैं उन पर बाण कैसे चला सकता हूँ? यदि मैं इन्हें मारूँगा तो यह संसार मुझे पापी समझेगा। मेरे लिए युद्ध से अच्छा संन्यास है। मैं यह युद्ध नहीं करना चाहता!" यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराए। उन्होंने अर्जुन को देख कर पहले जो शिक्षा दी, वह थी "अमर आत्मा और क्षणभंगुर शरीर का ज्ञान।"
श्रीकृष्ण ने कहा, पार्थ! तुम जिनके लिए दुखी हो रहे हो, वे तो पहले भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। आत्मा न तो मरती है और न ही जन्म लेती है। यह शरीर नश्वर है, पर आत्मा सदा अजर-अमर है।"
फिर श्रीकृष्ण ने उन्हें "कर्मयोग" का उपदेश दिया
हे अर्जुन! अपने कर्तव्य से विमुख होना तुम्हारे लिए उचित नहीं। युद्ध तुम्हारा धर्म है, और धर्म से बढ़कर कोई चीज़ नहीं। कर्म करो, पर फल की चिंता मत करो। फल देने का अधिकार केवल परमात्मा को है। यह सुनकर अर्जुन की बुद्धि निर्मल हुई। उन्हें आत्मा का रहस्य समझ में आया और उनका मोह नष्ट हो गया। वे अपने कर्तव्य के लिए तैयार हो गए।
इस प्रकार, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सबसे पहले आत्मा और शरीर का भेद समझाया और फिर उन्हें निष्काम कर्म की शिक्षा दी। यही श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम उपदेश था, जिसने अर्जुन को अपने धर्म का पालन करने की प्रेरणा दी।
अर्जुन का मोह दूर करने के बाद श्रीकृष्ण ने उन्हें आगे की गूढ़ शिक्षाएँ दीं। उन्होंने समझाया कि संसार में हर व्यक्ति किसी न किसी कर्म के बंधन में बंधा हुआ है, लेकिन जो निष्काम भाव से कर्म करता है, वही मुक्त हो सकता है।
अर्जुन अब ध्यानपूर्वक श्रीकृष्ण की वाणी सुन रहे थे। श्रीकृष्ण ने कहा, "हे पार्थ! यदि तुम सच में शांति चाहते हो, तो अपने समस्त कार्य मुझे समर्पित कर दो। जो व्यक्ति अपनी बुद्धि और आत्मा को मेरे चरणों में अर्पित करता है, मैं स्वयं उसका उद्धार करता हूँ। भक्ति के बिना मोक्ष कठिन है।"
अर्जुन ने पूछा, "हे केशव! क्या केवल ज्ञान और कर्म ही पर्याप्त नहीं हैं? भक्ति क्यों आवश्यक है?"
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, "ज्ञान, कर्म और भक्ति – ये तीनों ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन भक्ति सबसे सरल मार्ग है। जो मुझे प्रेमपूर्वक भजता है, मैं स्वयं उसकी चिंता करता हूँ। यदि कोई सच्चे हृदय से मुझे अर्पण करता है एक पत्ता, एक फूल, एक फल या जल, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ।"
अर्जुन अब श्रीकृष्ण के वचनों से अभिभूत हो चुके थे। उन्होंने अपनी समस्त शंकाएँ त्याग दीं और कहा, हे माधव! अब मेरे संशय समाप्त हो गए हैं। मैं आपके आदेश का पालन करूंगा और अपने कर्तव्य का निर्वाह करूंगा।
अर्जुन अब श्रीकृष्ण के उपदेशों को आत्मसात कर चुके थे, लेकिन उनके मन में अभी भी एक प्रश्न था। उन्होंने पूछा, हे केशव! आपने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग की महिमा बताई। परंतु क्या इन तीनों में से कोई एक श्रेष्ठ है? यदि हां, तो मैं किस मार्ग को चुनूं?
श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले, हे पार्थ! यह सत्य है कि तीनों मार्ग महान हैं, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति भिन्न होती है। जो मनुष्य तर्क और विवेक से सत्य को खोजना चाहता है, उसके लिए ज्ञानयोग श्रेष्ठ है। जो बिना किसी स्वार्थ के केवल अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसके लिए कर्मयोग उपयुक्त है। और जो प्रेम और श्रद्धा से परमात्मा की भक्ति करता है, वह भक्तियोग के मार्ग पर चलता है।
परंतु जो व्यक्ति इन तीनों को संतुलित रूप से अपनाता है, वही मुझे प्राप्त करता है। कर्म के बिना ज्ञान अधूरा है, और भक्ति के बिना ज्ञान और कर्म दोनों निष्फल हो सकते हैं। अतः तुम सभी कार्यों को मेरी भक्ति के साथ करो, और फिर देखो, जीवन कितना सरल और आनंदमय हो जाएगा!
अर्जुन ने आगे पूछा, हे माधव! यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्यों से विमुख होकर किसी और का धर्म अपनाना चाहे, तो क्या यह उचित होगा?"
श्रीकृष्ण ने गंभीरता से उत्तर दिया, हे अर्जुन! अपने स्वधर्म का पालन करना ही श्रेष्ठ है, चाहे वह कठिन ही क्यों न लगे। दूसरे के धर्म का पालन करना, चाहे वह कितना भी सरल लगे, मृत्यु के समान भयावह है। प्रत्येक व्यक्ति को उसी कार्य में लगे रहना चाहिए, जो उसकी प्रकृति और कर्तव्य के अनुकूल हो।
अब अर्जुन के मन में कोई संशय शेष नहीं था। उन्होंने श्रीकृष्ण के चरणों में सिर झुकाया और कहा, हे गोविंद! अब मेरी सभी शंकाएँ समाप्त हो चुकी हैं। मैं संपूर्ण हृदय से आपका आदेश स्वीकार करता हूँ। अब मैं अपने कर्तव्य का पालन करूंगा और धर्मयुद्ध में प्रवेश करूंगा।
श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर अर्जुन को आशीर्वाद दिया और कहा, अब तुम निर्मल चित्त से युद्ध करो, और सदा यह याद रखो कि तुम केवल निमित्त मात्र हो। सब कुछ परमात्मा की इच्छा से होता है। इसके बाद अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष उठाया और शंख बजाकर युद्ध की घोषणा की। कौरव और पांडव सेनाएँ एक-दूसरे से भिड़ गईं, और धर्मयुद्ध प्रारंभ हो गया।
इस प्रकार, भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों ने न केवल अर्जुन का मार्गदर्शन किया, बल्कि पूरे मानव समाज को जीवन जीने की एक दिव्य दृष्टि दी। यही श्रीमद्भगवद्गीता का अमृत ज्ञान है, जो युगों-युगों तक प्रेरणा देता रहेगा। हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए और फल की चिंता छोड़ देनी चाहिए। जीवन में आने वाली कठिनाइयों से घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि आत्मा अमर है और सच्चा सुख कर्म करने में ही है।