माता सीता की प्रतिज्ञाएं क्या थी?

 विनोद कुमार झा

हिन्दू धर्मपुराणों में वर्णित कथा के अनुसार माता सीता केवल भगवान राम की अर्धांगिनी ही नहीं, बल्कि साहस, धैर्य, त्याग और नारी शक्ति की प्रतिमूर्ति भी हैं। उनके जीवन में कई ऐसी प्रतिज्ञाएँ थीं, जो उनके चरित्र की दृढ़ता को दर्शाती हैं। वे केवल एक आदर्श पत्नी नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र विचारधारा वाली नायिका भी थीं, जिन्होंने अपने निर्णयों और संकल्पों से इतिहास रचा। हिन्दू धर्मग्रंथों और लोककथाओं में ऐसी कई कहानियाँ मिलती हैं, जहाँ माता सीता ने अपने आत्मसम्मान और धर्म की रक्षा के लिए अडिग प्रतिज्ञाएँ कीं।  

आइए, माता सीता की प्रमुख प्रतिज्ञाओं को विस्तार से समझते हैं:-

1. शिवधनुष स्पर्श की प्रतिज्ञा: केवल वही जो इसे उठा सकेगा, वही होगा मेरा स्वामी। त्रेतायुग में मिथिला के राजा जनक को कोई संतान नहीं थी। पुत्र प्राप्ति के लिए जब उन्होंने यज्ञ किया, तब पृथ्वी से एक दिव्य कन्या प्रकट हुई, जिसे उन्होंने अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया। वह कन्या थीं सीता जिन्हें माता भूदेवी (पृथ्वी) का अवतार भी माना जाता है।सीता बचपन से ही असाधारण थीं। एक बार जब वे खेल-खेल में महादेव के शिवधनुष के समीप पहुँचीं, तो उन्होंने सहज ही उसे अपने हाथों से उठा लिया। यह वही धनुष था जिसे बड़े-बड़े राजाओं और योद्धाओं से भी हिलाना असंभव था। यह देखकर राजा जनक आश्चर्यचकित रह गए।  तभी उन्होंने यह प्रतिज्ञा की:  जिस वीर और महापुरुष में इतनी शक्ति होगी कि वह इस शिवधनुष को उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ा सके, मैं उसी को अपनी पुत्री सीता का पति स्वीकार करूंगा। यही प्रतिज्ञा आगे चलकर सीता-स्वयंवर का कारण बनी। कई राजा और महाबली आए, लेकिन कोई भी शिवधनुष को हिला तक नहीं सका। अंत में, भगवान राम ने न केवल उसे उठाया, बल्कि प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह धनुष दो टुकड़ों में टूट गया। इस प्रकार, सीता की यह प्रतिज्ञा पूर्ण हुई और उनका विवाह भगवान राम से हुआ।  

2. एक पतिव्रता स्त्री की प्रतिज्ञा: राम जहाँ, सीता वहाँ, जब भगवान राम को कैकेयी के वरदान के कारण 14 वर्षों के वनवास पर जाना पड़ा, तो माता सीता ने अयोध्या में राजसी वैभव में रहने से इनकार कर दिया और वन जाने की प्रतिज्ञा की।  उन्होंने श्रीराम से कहा, स्वामी! यदि आप वन को प्रस्थान करेंगे, तो मैं भी आपके साथ चलूंगी। स्त्री का धर्म अपने पति के साथ रहना है, चाहे वह राजमहल हो या घना जंगल। राम ने बहुत समझाया कि जंगल में कष्ट होंगे, हिंसक पशु होंगे, लेकिन सीता अपने निश्चय पर दृढ़ रहीं।  उन्होंने प्रतिज्ञा की, जहाँ मेरे स्वामी होंगे, वहीं मेरा स्थान होगा। मैं विवाह के समय अग्नि के समक्ष यह प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ कि जीवन के हर सुख-दुख में मैं आपके साथ रहूँगी।  इस प्रकार, सीता ने अपने पति धर्म को निभाते हुए वनवास की कठिनाइयों को स्वीकार किया।  3. रावण का स्पर्श न करने की प्रतिज्ञा : लंका में जब रावण माता सीता का हरण कर उन्हें अशोक वाटिका में ले गया, तो उसने उन्हें अनेक प्रकार से भयभीत कर अपने प्रभाव में लेने का प्रयास किया। लेकिन माता सीता ने उसे ठुकरा दिया और प्रतिज्ञा की कि जब तक मेरे प्राण रहेंगे, मैं तुम्हें स्पर्श भी नहीं करने दूँगी। रावण ने जबरदस्ती उन्हें स्पर्श करने की चेष्टा की, तो माता सीता ने श्राप दिया, यदि किसी पुरुष ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे स्पर्श किया, तो वह उसी क्षण भस्म हो जाएगा। इस प्रतिज्ञा के कारण ही, रावण भयभीत होकर उन्हें छूने का साहस नहीं कर सका। वह केवल धमकियों और छल-कपट से ही उन्हें झुकाने का प्रयास करता रहा।  

4. अग्नि परीक्षा की प्रतिज्ञा: अपने सतीत्व की शुद्धि का प्रमाण: जब भगवान राम ने रावण का वध कर माता सीता को मुक्त किया, तो उन्होंने समाज के संदेहों को दूर करने के लिए स्वयं अग्नि परीक्षा देने की प्रतिज्ञा की।  उन्होंने कहा, यदि मैंने मन, वचन और कर्म से कभी किसी अन्य पुरुष के प्रति कोई दुर्भावना नहीं रखी, तो यह अग्नि मुझे छू भी नहीं सकेगी।" इसके बाद, वे अग्नि में प्रवेश कर गईं, और अग्निदेव ने स्वयं प्रकट होकर उनकी पवित्रता का प्रमाण दिया।  

5. अंत में पृथ्वी में समा जाने की प्रतिज्ञा : जब अयोध्या में एक धोबी ने माता सीता की पवित्रता पर संदेह किया, तो भगवान राम ने धर्म और राज्य की रक्षा के लिए उन्हें वन में छोड़ने का कठोर निर्णय लिया। माता सीता महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहने लगीं और वहाँ लव-कुश को जन्म दिया।  बाद में जब श्रीराम ने उन्हें पुनः अयोध्या लौटने के लिए बुलाया, तो माता सीता ने प्रतिज्ञा की:  यदि मैंने सदैव अपने पति श्रीराम के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के बारे में सोचा भी नहीं, तो मेरी माँ (पृथ्वी) मुझे अपने अंक में समाहित कर ले। जैसे ही उन्होंने यह कहा, पृथ्वी माता फटीं और माता सीता उनमें समा गईं। इस प्रकार, उनकी अंतिम प्रतिज्ञा भी सत्य सिद्ध हुई।  

माता सीता केवल एक पौराणिक चरित्र नहीं, बल्कि नारी शक्ति, धैर्य, प्रेम और आत्मसम्मान की प्रतीक हैं। उनकी प्रतिज्ञाएँ केवल उनके समय के लिए नहीं, बल्कि हर युग के लिए प्रासंगिक हैं। चाहे वह पति के प्रति समर्पण की बात हो, अपनी पवित्रता की रक्षा की बात हो, या फिर सम्मान और स्वाभिमान के लिए पृथ्वी में समा जाने की बात—माता सीता हर स्थिति में अडिग और अविचलित रहीं।  आज भी, माता सीता की ये प्रतिज्ञाएँ हमें सिखाती हैं कि सच्ची नारी शक्ति क्या होती है त्याग, धैर्य, प्रेम और आत्मसम्मान का अद्भुत संगम।

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