विनोद कुमार झा
शहर की सड़कें हर रोज़ लोगों से भरी होतीं। ट्रैफिक का शोर, गाड़ियों की चिल्ल-पों, और पैदल चलते लोगों की भीड़ – ऐसा लगता जैसे यह शहर कभी सोता ही नहीं। पर इस भीड़ के बीच कोई था, जो दुनिया में होते हुए भी अकेला था – रवि।
रवि हर दिन मेट्रो पकड़ता, ऑफिस जाता, काम करता और फिर घर लौट आता। उसे देखने वाले सोचते होंगे कि वह भी उसी भीड़ का हिस्सा है, लेकिन हकीकत कुछ और थी। किसी को उसके होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह सिर्फ़ एक चेहरा था, एक संख्या था, जिसे कोई गिनता भी नहीं था।
भीड़ के भीतर की तन्हाई : एक दिन, जब रवि रोज़ की तरह मेट्रो में चढ़ा, तो उसने देखा कि ट्रेन में लोग अपने-अपने मोबाइल में घुसे हुए थे। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। किसी की आँखें अधूरी नींद से भरी थीं, तो कोई अपने ही ख्यालों में खोया था।
अचानक, एक बूढ़ी औरत ट्रेन में चढ़ी, लेकिन किसी ने उसे सीट नहीं दी। वह हांफ रही थी, थकी हुई लग रही थी। रवि ने झट से अपनी सीट छोड़ दी। बूढ़ी औरत ने थैंक यू कहा, लेकिन बाकी लोग बेखबर रहे। रवि को एहसास हुआ कि यह भीड़ एक मायाजाल है। दिखता है कि यहाँ बहुत लोग हैं, लेकिन असल में हर कोई अकेला है। सब अपनी-अपनी दुनिया में खोए हुए हैं।
एक छोटी सी शुरुआत : उस दिन से रवि ने ठान लिया कि वह इस भीड़ में भी इंसानियत को जिंदा रखने की कोशिश करेगा। वह ऑफिस में सहकर्मियों से बात करने लगा, मेट्रो में किसी अजनबी से हालचाल पूछने लगा, और रास्ते में जरूरतमंदों की मदद करने लगा। धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि जब वह दूसरों से जुड़ता है, तो उसकी अपनी तन्हाई भी कम होने लगती है।
भीड़ के बीच रहकर भी अगर हम एक-दूसरे को देख और समझ सकें, तो दुनिया सिर्फ़ भीड़ नहीं, बल्कि एक परिवार बन सकती है। रवि ने सीखा कि दुनिया को बदलने के लिए किसी क्रांति की जरूरत नहीं होती – बस एक मुस्कान, एक मदद का हाथ, और एक सच्चे दिल की जरूरत होती है। क्योंकि भीड़ के बीच भी एक दुनिया होती है, जो सिर्फ़ कनेक्शन बनाने से जिंदा रहती है।
रवि का यह छोटा-सा बदलाव उसके आसपास असर दिखाने लगा। ऑफिस में जहां पहले लोग बस फाइलों और ईमेल्स में उलझे रहते थे, अब कभी-कभी चाय के ब्रेक पर हंसी-मजाक होने लगा। मेट्रो में भी उसने देखा कि लोग धीरे-धीरे दूसरों की मौजूदगी को नोटिस करने लगे हैं।
एक दिन, जब रवि अपने अपार्टमेंट की ओर बढ़ रहा था, उसने देखा कि उसकी बिल्डिंग के चौकीदार रामलाल काका ठंडी में सिकुड़कर बैठे थे। बाकी लोग आते-जाते रहे, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया।
रवि नजदीक गया और पूछा, काका, ठंड में यूं क्यों बैठे हो? अंदर नहीं जा सकते?"
रामलाल काका हल्की मुस्कान के साथ बोले, "बेटा, सबके सोने के बाद ही मैं थोड़ा आराम कर सकता हूँ। ड्यूटी है ना!" रवि ने बिना कुछ सोचे अपना स्टॉल निकाला और उनके कंधों पर रख दिया। फिर अंदर जाकर दो कप चाय बनाई और एक कप काका को दिया।
पर बेटा, ये क्यों?" काका ने चाय पकड़ते हुए पूछा।
रवि मुस्कुराया, "क्योंकि आप भी इस दुनिया का हिस्सा हैं, काका। और इस दुनिया में एक-दूसरे का ख्याल रखना जरूरी है।" रामलाल काका की बूढ़ी आँखों में चमक आ गई। उन्होंने कांपते हाथों से रवि के सिर पर आशीर्वाद रखा।
धीरे-धीरे रवि के छोटे-छोटे कामों का असर फैलने लगा। ऑफिस में लोग एक-दूसरे की मदद करने लगे, मेट्रो में कोई किसी को सीट दे देता, पड़ोसी हालचाल पूछने लगे। रवि को एहसास हुआ कि बदलाव बाहर से नहीं, अंदर से आता है।
एक दिन, ऑफिस से लौटते समय, रवि ने देखा कि वही बूढ़ी औरत जिसे उसने पहले मेट्रो में सीट दी थी, किसी और यात्री से हंसकर बात कर रही थी। किसी और ने आज उसे सीट दी थी। रवि मन ही मन मुस्कुराया।
उसने सीखा कि भीड़ के बीच भी इंसानियत जिंदा की जा सकती है। बस, किसी को पहला कदम उठाना होता है।
"अगर हम चाहें, तो भीड़ को भी एक परिवार बना सकते हैं! रवि की ये छोटी-छोटी कोशिशें अब एक लहर बन रही थीं। लोग उसे नोटिस करने लगे थे, कुछ लोग उसकी आदतें अपनाने भी लगे थे। अब ऑफिस में वही सहकर्मी, जो पहले बस कंप्यूटर स्क्रीन में घुसे रहते थे, लंच के समय आपस में बातें करने लगे थे। मेट्रो में भी रवि को कई बार ऐसा दिखता कि कोई किसी अजनबी की मदद कर रहा है, बस यूँ ही।
एक शाम, जब वह गली से गुजर रहा था, तो उसने देखा कि एक छोटा बच्चा सड़क के किनारे बैठा रो रहा था। लोग पास से गुजर रहे थे, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। रवि झुका और प्यार से पूछा,
क्या हुआ, बेटा? क्यों रो रहे हो?
बच्चे ने आंसू पोंछते हुए कहा, "माँ नहीं दिख रही, भीड़ मैं खो गया हूँ।" रवि ने उसे दिलासा दिया और इधर-उधर देखने लगा। कुछ ही दूरी पर एक औरत भागती हुई आई, उसकी आँखों में डर साफ झलक रहा था। वह बच्चा अपनी माँ को देखते ही दौड़कर गले लग गया। औरत ने आँसू भरी आँखों से रवि को देखा और कहा, "अगर आप इस बच्चे को न संभालते, तो न जाने क्या होता। आजकल लोग दूसरों की मदद करना भूल गए हैं।"
रवि मुस्कुराया और बोला, हम सब इस दुनिया का हिस्सा हैं। अगर हम एक-दूसरे की मदद नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?
जब भीड़ ने रवि को पहचाना : रवि को इस तरह मदद करते देख, उसके दोस्त और सहकर्मी भी प्रेरित होने लगे। उसकी कंपनी में लोगों ने एक छोटी सी पहल शुरू की – "एक अच्छा काम हर दिन।" किसी ने ऑफिस के सफाईकर्मी को चाय पिलाई, तो किसी ने किसी जरूरतमंद को खाना दिया। धीरे-धीरे यह सिलसिला बढ़ने लगा। अब वह भीड़, जो बस चलती रहती थी, अब एक-दूसरे को देखती थी, पहचानती थी, और समझने लगी थी।
एक दिन रवि मेट्रो में चढ़ा, और उसे देख कर एक युवक मुस्कुराया। "भाईसाहब, मैं रोज आपको किसी न किसी की मदद करते देखता हूँ। आपसे प्रेरणा मिली, कल मैंने भी एक बुजुर्ग को सीट दी। सच कहूँ, अच्छा लगा!" रवि ने उसकी तरफ देखा और मुस्कुरा दिया।
भीड़ का दिल धड़कने लगा था। अब वह भीड़ सिर्फ चेहरे नहीं थी, उनमें भावनाएँ थीं। रवि ने सोचा, "अगर एक इंसान का बदलाव इतना असर डाल सकता है, तो सोचो, अगर हर कोई ऐसा करे, तो दुनिया कितनी खूबसूरत हो जाएगी!" उसने साबित कर दिया था कि भीड़ के बीच भी एक दुनिया बसती है, बस हमें उसे देखने और अपनाने की जरूरत होती है।