क्यों हुआ अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच युद्ध?

विनोद कुमार झा

महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने इंद्रप्रस्थ पर शासन किया। श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए, लेकिन वे अर्जुन से हमेशा प्रेम और स्नेह रखते थे। समय बीतता गया और एक दिन ऐसी परिस्थिति आई जब अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच युद्ध की नौबत आ गई। यह कथा उसी घटना पर आधारित है।  

अर्जुन अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर के नेतृत्व में धर्मपूर्वक राज्य चला रहे थे। एक दिन उन्हें समाचार मिला कि द्वारका पर एक बाहरी आक्रमण हो गया है और श्रीकृष्ण इस संकट का सामना कर रहे हैं। अर्जुन अपने प्रिय सखा की सहायता के लिए तुरंत द्वारका पहुंचे।  

जब अर्जुन द्वारका पहुँचे, तो वहाँ की स्थिति देखकर हैरान रह गए। श्रीकृष्ण ने अपनी रणनीति से शत्रुओं को पराजित कर दिया था, लेकिन एक नई समस्या उत्पन्न हो गई थी। श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब और अर्जुन के पोत्र अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित, द्वारका के कुछ संपत्तियों और अधिकारों को लेकर विवाद कर रहे थे।  श्रीकृष्ण ने इस विवाद को शांत करने के लिए न्यायोचित निर्णय दिया, लेकिन अर्जुन को लगा कि यह फैसला उनके वंशज के विरुद्ध है। उन्होंने श्रीकृष्ण से इसे बदलने का अनुरोध किया, परंतु श्रीकृष्ण अपने सिद्धांतों के पक्के थे।  

जब अर्जुन ने अधिक जोर दिया, तो श्रीकृष्ण ने मुस्कुराकर कहा, अर्जुन, क्या तुम अपने सखा के निर्णय को चुनौती दोगे?

अर्जुन ने उत्तर दिया, "यदि यह मेरे परिवार के अन्याय के विरुद्ध होगा, तो मैं युद्ध तक कर सकता हूँ!" 

यह सुनकर श्रीकृष्ण गंभीर हो गए। उन्होंने अर्जुन को चुनौती दी, यदि तुम अपने कर्तव्य को सर्वोच्च मानते हो, तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। दोनों ने रणभूमि में प्रवेश किया। अर्जुन ने अपना गांडीव उठाया और श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र धारण किया।  युद्ध आरंभ हुआ। अर्जुन ने अपने दिव्यास्त्रों से आक्रमण किया, लेकिन श्रीकृष्ण की लीला अपरंपार थी। वे हर वार को सरलता से टाल देते थे। अंततः जब अर्जुन ने पूरी शक्ति लगा दी और श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र चलाने की तैयारी की, तो अर्जुन को एहसास हुआ कि वे अपने ही सखा के विरुद्ध खड़े हैं, जिन्होंने सदा उनका मार्गदर्शन किया है।  

अर्जुन ने अपने हथियार छोड़ दिए और श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा, "हे माधव! अहंकारवश मैं आपसे युद्ध करने चला था, किंतु अब समझ गया कि आप साक्षात ईश्वर हैं। कृपया मुझे क्षमा करें।" श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उठाया और प्रेमपूर्वक कहा, "यह सब तुम्हारी परीक्षा थी, पार्थ! तुम्हें दिखाना था कि जब अहंकार जन्म लेता है, तो वह अपनों से भी युद्ध करा देता है। सच्चा योद्धा वही है जो अपने भीतर के अहंकार से युद्ध करे।  

अर्जुन को अपनी गलती का एहसास होते ही उन्होंने श्रीकृष्ण के चरणों में सिर रख दिया। उनकी आंखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे। श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए अर्जुन को उठाया और प्रेम से कहा,  हे पार्थ! तुम्हारा हृदय सच्चे भक्त का है। तुमने अहंकार को त्याग दिया, यही सच्ची विजय है।  

अर्जुन ने पूछा, हे केशव! आपने मुझे इस परीक्षा में क्यों डाला? 

श्रीकृष्ण बोले, हे पार्थ! मैं जानता था कि तुम कभी भी अन्याय का समर्थन नहीं करोगे, परंतु यह परीक्षा तुम्हारे भीतर छिपे अहंकार को उजागर करने के लिए थी। जब कोई महान योद्धा बन जाता है, तब उसके भीतर धीरे-धीरे अभिमान जन्म लेने लगता है। मैं नहीं चाहता था कि मेरे प्रिय सखा अर्जुन के भीतर भी ऐसा अहंकार विकसित हो। यह सब इसलिए हुआ ताकि तुम जान सको कि जीवन में सबसे बड़ी लड़ाई अपने भीतर के अहंकार से होती है। 

इस घटना के बाद अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच प्रेम और भी गहरा हो गया। उन्होंने मिलकर द्वारका की स्थिति को संभाला और साम्ब तथा परीक्षित के बीच का विवाद भी सुलझा दिया। श्रीकृष्ण ने दोनों युवाओं को समझाया कि धन और सत्ता से बड़ा धर्म और कर्तव्य होता है।  अर्जुन ने कुछ समय द्वारका में बिताया और फिर इंद्रप्रस्थ लौट गए। अब वे पहले से अधिक शांत, धैर्यवान और विनम्र हो चुके थे। वे समझ गए थे कि वास्तविक युद्ध बाहरी शत्रुओं से नहीं, बल्कि अपने ही भीतर की कमजोरियों से होता है।  

इस घटना के बाद अर्जुन ने सदा के लिए अपने अभिमान का त्याग कर दिया और यह सीख ली कि न्याय से बढ़कर कोई संबंध नहीं होता। यह कथा हमें सिखाती है कि किसी भी परिस्थिति में हमें अपने अहंकार को नहीं बढ़ने देना चाहिए, अन्यथा हम अपनों से ही युद्ध करने लगते हैं।

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