कहानी: जन्म और मृत्यु की परिक्रमा

 विनोद कुमार झा

घने जंगल के बीचों-बीच एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उसकी फैली हुई जटाएँ ज़मीन को चूमतीं, मानो धरती के गर्भ से गुप्त रहस्य समेट रही हों। वह वृक्ष कई सदियों से खड़ा था और गांव के लोग उसे "जीवन-वृक्ष" कहते थे। उनकी मान्यता थी कि जो इस वृक्ष की छाँव में जन्म लेता है, वह विशेष भाग्य लेकर आता है, और जो इसके नीचे अंतिम सांस लेता है, उसकी आत्मा फिर से नए जीवन की ओर बढ़ जाती है। यह वृक्ष साक्षी था अनगिनत जन्मों और मरणों का, समय की धारा में बंधे इस अनंत चक्र का।

पहला चक्र – जन्म 

वर्षा ऋतु अपने चरम पर थी। घनघोर घटाएँ आकाश को ढक चुकी थीं, बिजली की कौंध से पूरा जंगल चमक उठता था। गांव की एक स्त्री, गौरी, प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी। उसका पति, माधव, घबराया हुआ था, लेकिन गांव की बुजुर्ग दाई शांत थी।  

"इसे जीवन-वृक्ष के नीचे ले चलो," दाई ने कहा।  

गांव की औरतें उसे सहारा देकर वृक्ष की ओर ले गईं। वहां पहुंचते ही हल्की फुहारें गिरने लगीं, मानो प्रकृति स्वयं इस जन्म को आशीर्वाद दे रही हो। कुछ ही देर में, एक बालक का जन्म हुआ आदित्य। उसकी पहली चीख के साथ ही जंगल में छिपी कोयल ने मधुर स्वर में गान किया, जैसे प्रकृति ने उसके आगमन का स्वागत किया हो।  आदित्य साधारण बालक नहीं था। उसकी आँखों में एक गहरी चमक थी, मानो वह पहले से ही बहुत कुछ जानता हो। गांव के बुजुर्गों ने इसे जीवन-वृक्ष का आशीर्वाद माना।  

समय बीता, और आदित्य बड़ा होने लगा। वह अन्य बच्चों की तरह शरारती नहीं था, बल्कि गंभीर स्वभाव का था। वह अक्सर जीवन-वृक्ष के नीचे बैठकर घंटों सोचता, मानो किसी अनकहे प्रश्न का उत्तर खोज रहा हो। उसे अपने आसपास की दुनिया से गहरा लगाव था, वह पक्षियों की भाषा समझने की कोशिश करता, नदी की लहरों में छिपे रहस्य खोजता और हवा की सरसराहट में संदेश सुनने की कोशिश करता।  

एक दिन उसने अपने दादा से पूछा, "दादा, क्या मृत्यु के बाद सब कुछ खत्म हो जाता है?"  

दादा मुस्कुराए, "बेटा, जो मिटता है, वह फिर से जन्म लेता है। जैसे यह वृक्ष हर साल अपनी पत्तियाँ गिराकर फिर से नई पत्तियाँ उगा लेता है, वैसे ही आत्मा भी एक शरीर छोड़कर दूसरा धारण कर लेती है।"  आदित्य इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ। वह जानना चाहता था कि यह चक्र कैसे चलता है, कैसे एक जीवन समाप्त होते ही दूसरा आरंभ होता है।  

 दूसरा चक्र – मृत्यु

समय के साथ आदित्य युवा हुआ, फिर एक सम्मानित वृद्ध बन गया। उसने कई अनुभव अर्जित किए, कई यात्राएँ कीं, और जीवन के रहस्यों को समझने की कोशिश की। लेकिन उसके भीतर हमेशा यह प्रश्न बना रहा "क्या मृत्यु ही अंत है?"  

एक दिन, वह जीवन-वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठा था। उसकी सांसें मंद पड़ रही थीं, शरीर कमजोर हो चुका था, लेकिन मन अभी भी जिज्ञासाओं से भरा था। गांव के लोग उसके चारों ओर इकट्ठा हो गए।  धीरे-धीरे, उसकी आँखें बंद हो गईं, और उसने अंतिम सांस ली। तभी, हवा में एक अजीब सी गूंज हुई, वृक्ष की पत्तियाँ तेज़ी से सरसराने लगीं, और पास ही एक गर्भवती स्त्री प्रसव पीड़ा से कराह उठी। कुछ ही देर में, एक नवजात शिशु की किलकारी गूंजी।  

गांव के बुजुर्गों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कुराए।  

"आदित्य लौट आया," दाई ने हल्के से कहा।  

जीवन-वृक्ष की छांव में जन्म और मृत्यु की परिक्रमा एक बार फिर पूरी हो चुकी थी। एक आत्मा ने पुराना शरीर छोड़कर नए जीवन में प्रवेश कर लिया था। यह चक्र अनंत था, और इस वृक्ष के साए में सदा चलता रहेगा।  

शाश्वत जीवन-वृक्ष की छांव में, समय की अनदेखी सुइयां अपनी गति से आगे बढ़ रही थीं। उसकी घनी शाखाओं के नीचे धरती की नमी में जीवन की धड़कनें स्पंदित हो रही थीं, और अनगिनत कहानियाँ उसकी जड़ों में समाहित थीं। यह वृक्ष केवल एक वृक्ष नहीं था; यह अस्तित्व का साक्षी था, जन्म और मृत्यु की अनंत परिक्रमा का प्रतीक था।  

एक दिन, एक थकी हुई आत्मा ने अपनी देह छोड़ दी। उसका शरीर श्वासहीन पड़ा था, लेकिन उसके चारों ओर सृष्टि के नियम उसी लय में प्रवाहित हो रहे थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। पक्षी अब भी गा रहे थे, पत्तियाँ अब भी सरसराती हुई अपनी धुन गा रही थीं, और हवा अब भी उसी कोमलता से वृक्ष की शाखाओं को सहला रही थी।  

परिवर्तन का यह क्षण शांत था, लेकिन उसमें एक गूंज थी—एक रहस्यमयी आहट, जो केवल वही सुन सकते थे जो जीवन के गहरे रहस्यों को समझते थे। आत्मा ने पुरानी काया को छोड़ा, लेकिन यह कोई अंत नहीं था। यह तो बस एक यात्रा का पड़ाव था।  

वहीं पास में, एक नए जीवन का उदय हुआ। एक शिशु ने पहली सांस ली, उसकी कोमल आँखों में अभी दुनिया का कोई भय नहीं था, केवल जिज्ञासा थी। वह वृक्ष, जो अनगिनत जन्मों और मरणों का साक्षी था, उसकी छांव में यह नन्हा जीवन अपनी नयी यात्रा की ओर बढ़ चला।  

शिशु ने जब पहली बार अपनी आँखें खोलीं, तो उसने सबसे पहले उसी वृक्ष की शाखाओं को देखा, जो आकाश की ओर फैली हुई थीं, मानो कोई अदृश्य हाथ उसे आशीर्वाद दे रहा हो। यह वही वृक्ष था जिसने उसकी पिछली यात्राओं को भी अपनी छाया में देखा था, और अब यह नए जीवन के स्वागत में मौन खड़ा था।  

यह चक्र अनंत था। एक आत्मा का जाना, दूसरी का आना; पुराने पत्तों का झड़ना, नए कलियों का खिलना। यह वृक्ष केवल प्रकृति का एक अंग नहीं था, यह जीवन और मृत्यु की कहानी का एक पात्र था, जो हर युग में अपनी गाथा दोहराता रहा।  

कई युग बीत चुके थे, कई ऋतुएं बदल चुकी थीं, लेकिन इस वृक्ष की छांव में यह लीला सदा चलती रही। यह सृष्टि का नियम था—हर अंत एक नई शुरुआत की घंटी बजाता था, और हर जन्म अपनी पूर्णता के लिए मृत्यु को आमंत्रित करता था।  

और इस अनवरत यात्रा में, जीवन-वृक्ष अपनी जड़ों को और गहरा करता गया, अपनी शाखाओं को और विस्तारित करता गया। वह जानता था कि जब तक यह ब्रह्मांड है, तब तक यह चक्र यूँ ही चलता रहेगा एक के जाने से दूसरा आएगा, और जीवन अपनी धुन में आगे बढ़ता रहेगा।

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