बिहार में चुनावी तोहफे: शिक्षा, नौकरी और व्यवसाय की राजनीति

विनोद कुमार झा

बिहार में विधानसभा चुनाव नज़दीक आते ही राजनीतिक दलों ने जनता को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वादों की झड़ी लगा दी है। हर चुनाव की तरह इस बार भी शिक्षा, रोजगार और सामाजिक योजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपने-अपने तरीके से युवाओं और महिलाओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं।  

नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार पुलिस में बंपर बहाली निकालकर युवाओं को साधने का प्रयास किया है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है, क्योंकि बिहार में बेरोजगारी लंबे समय से एक गंभीर समस्या बनी हुई है। सरकारी नौकरियों की मांग हमेशा से अधिक रही है, और ऐसे में पुलिस भर्ती जैसी घोषणाएं युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने का एक प्रभावी तरीका साबित हो सकती हैं। हालांकि, यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या ये बहालियाँ चुनावी घोषणा तक ही सीमित रहेंगी, या फिर वास्तव में युवाओं को समय पर रोजगार मिलेगा।  

वहीं, दूसरी ओर, विपक्षी नेता तेजस्वी यादव ने "माई बहन योजना" की घोषणा कर महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का वादा किया है। इस योजना के तहत, बिहार की महिलाओं को हर महीने ₹2500 देने की बात कही गई है। बिहार में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह एक आकर्षक योजना हो सकती है, लेकिन सवाल यह उठता है कि इसके लिए वित्तीय संसाधन कहाँ से आएंगे? क्या यह योजना केवल चुनावी रणनीति का हिस्सा है, या इसका ठोस आर्थिक आधार भी है?  

यह देखना दिलचस्प होगा कि इन चुनावी वादों का बिहार की जनता पर क्या प्रभाव पड़ता है। शिक्षा, नौकरी और व्यवसाय के अवसरों का वास्तविक विस्तार तभी संभव है जब सरकारें चुनावी घोषणाओं से आगे बढ़कर ठोस नीति निर्माण करें। बिहार की जनता को भी अब समझदारी से यह तय करना होगा कि वे केवल लुभावने वादों पर भरोसा करें या फिर उन योजनाओं का आकलन करें जो वास्तव में राज्य के विकास में योगदान दे सकती हैं। चुनावी तोहफों से परे, बिहार को एक दूरदर्शी नेतृत्व की जरूरत है जो राज्य की समस्याओं का स्थायी समाधान निकाल सके।

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