विनोद कुमार झा
गर्मी की हल्की गुलाबी सुबह थी। सूरज की किरणें मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों और गुरुद्वारों की दीवारों पर सुनहरी छटा बिखेर रही थीं। पूरे शहर में एक अलग ही उल्लास था, क्योंकि यह एक ऐसा दिन था जब कई धर्मों के प्रमुख त्योहार संयोगवश एक ही समय पर पड़ गए थे। इस दिन हर गली में रंग, रोशनी और खुशियों की मिठास घुली हुई थी।
अयोध्या में दीवाली का दृश्य अद्भुत था। हज़ारों दीपों की रौशनी सरयू नदी के किनारे जल रही थी, मानो तारे धरती पर उतर आए हों। हर घर में श्रीराम के वनवास से लौटने की कथा सुनाई जा रही थी। बच्चों ने राम, लक्ष्मण और सीता के रूप धरे थे, और हर नुक्कड़ पर रामलीला का मंचन हो रहा था। मंदिरों में भक्तजन आरती कर रहे थे और गगनभेदी जयकारों से पूरा नगर गूंज रहा था, "जय श्रीराम!"
पास ही, एक गली में बौद्ध भिक्षु भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का पाठ कर रहे थे। दीपावली के दिन ही सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था, इसलिए यह दिन बौद्ध अनुयायियों के लिए भी विशेष था। भिक्षुओं ने ध्यान लगाया और शांति व करुणा का संदेश दिया, "अप्प दीपो भव" यानी "अपने दीपक स्वयं बनो।"
शहर के एक कोने में सजे हुए गिरजाघर से घंटियों की आवाज़ आ रही थी। लोग चर्च में मोमबत्तियाँ जला रहे थे और यीशु मसीह के जन्म का जश्न मना रहे थे। पादरी साहब बाइबल से उपदेश दे रहे थे, ईश्वर प्रेम है, और जो प्रेम करता है, वह ईश्वर में है।
चर्च के बाहर एक सुंदर क्रिसमस ट्री लगा था, जिसके नीचे बच्चे सांता क्लॉज से उपहार पा रहे थे। गरीबों को गर्म कपड़े और भोजन वितरित किया जा रहा था, क्योंकि यीशु मसीह ने हमेशा प्रेम और दया का संदेश दिया था।
थोड़ी ही दूरी पर मस्जिद से अज़ान की आवाज़ आ रही थी। आज ईद का दिन था। लोग नये कपड़े पहनकर मस्जिद की ओर बढ़ रहे थे। नमाज अदा करने के बाद हर कोई गले मिल रहा था और कह रहा था, ईद मुबारक!
घरों में तरह-तरह के पकवान बने थे—शीर खुरमा, सेवइयाँ, बिरयानी। गरीबों को जकात दी जा रही थी, ताकि समाज के हर व्यक्ति को खुशियों में शामिल किया जा सके। इमाम साहब फरमा रहे थे, इस्लाम अमन और भाईचारे का धर्म है।
गुरुद्वारा साहिब में गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पाठ चल रहा था। हर कोई गुरु ग्रंथ साहिब के आगे मत्था टेक रहा था। लंगर की सेवा में लोग जाति, धर्म और अमीरी-गरीबी से परे एक साथ बैठकर भोजन कर रहे थे। एक सिंह सभा में गुरु नानक देव जी के उपदेश गूंज रहे थे। "ना कोई हिंदू, ना कोई मुसलमान, सब एक ईश्वर के बंदे हैं। यह वाक्य हर व्यक्ति को सोचने पर मजबूर कर रहा था कि सच्चा धर्म मानवता है।
बगल की गली में बच्चे रंगों से खेल रहे थे। गुलाल उड़ रहा था, और लोग एक-दूसरे को रंगते हुए कह रहे थे, बुरा न मानो, होली है! होली का यह त्यौहार भक्त प्रह्लाद की कथा से जुड़ा था। विष्णु भक्त प्रह्लाद को होलिका की आग में जलाने की कोशिश की गई थी, लेकिन वह बच गया और बुराई जलकर राख हो गई। यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक था।
जैन मंदिर में श्वेत वस्त्रधारी संत अहिंसा का संदेश दे रहे थे। महावीर स्वामी के उपदेशों का पाठ हो रहा था। "अहिंसा परमो धर्मः।"
उधर, पारसी समुदाय नवरोज मना रहा था। अग्नि मंदिरों में प्रार्थनाएँ हो रही थीं, और लोग एक-दूसरे को "नवरोज मुबारक!"कहकर गले मिल रहे थे। सिख समाज बैसाखी का जश्न मना रहा था, तो वहीं हिंदू कैलेंडर के अनुसार नवसंवत्सर का स्वागत हो रहा था। शाम होते-होते, शहर के मुख्य चौक पर एक बड़ा आयोजन हुआ। वहाँ एक मंच पर सभी धर्मों के लोग इकट्ठा हुए। किसी ने वेदों के श्लोक सुनाए, किसी ने बाइबल की आयतें पढ़ीं, किसी ने कुरान की सुरह, और किसी ने गुरु ग्रंथ साहिब के शब्द।
सबने एक साथ प्रार्थना की "हे ईश्वर, हमें सच्चाई, प्रेम और भाईचारे का मार्ग दिखाओ।"
रात में पूरा शहर रोशनी से जगमगा उठा। दीयों की लौ, मोमबत्तियों की चमक, और मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारों की घंटियों की गूंज यह संदेश दे रही थी कि सच्चा धर्म मानवता है। इस प्रकार, इस अनोखे दिन ने साबित कर दिया कि त्यौहार केवल धार्मिक परंपराएँ नहीं, बल्कि एकता, प्रेम और भाईचारे का संदेश हैं।