विनोद कुमार झा
आइए इस कथा के माध्यम से हम मंदोदरी का उत्तर प्रस्तुत करते हैं एक ऐसी स्त्री की दृष्टि से, जो रावण जैसे महान ज्ञानी, शास्त्रपारंगत, बलवान पुरुष की पत्नी होने के बावजूद, अपने धर्म और विवेक से डिगी नहीं। इस उत्तर के माध्यम से हम जानेंगे कि मंदोदरी इन 'अवगुणों' का उत्तर कैसे देती है, और किस तरह वो स्त्री-स्वभाव के वास्तविक अर्थ को उजागर करती है।
रावण के क्रोध में डूबे उस दोहे के पश्चात अशोक-वाटिका से बहुत दूर, लंका के रत्नमंडित महल में कुछ पलों का मौन छा गया। मंदोदरी चुप रही, बहुत देर तक। न उसने अपने अश्रु पोंछे, न कोई और प्रश्न किया। पर वह चुप्पी, हार की नहीं थी। वह शांति, तूफान के ठीक पहले की शांति थी।
फिर मंदोदरी ने कहा…
1. "यदि स्त्री दुस्साहसी है, तो इसलिए कि पुरुष ने सृष्टि को संकट में डाला है"
> “स्वामी! अगर सीता ने वन में रहते हुए आपकी सेना के अभिमान को हिला दिया, और मैं आपको बार-बार सावधान कर रही हूँ, तो क्या ये दुस्साहस है?
> फिर तो आपकी माता कैकयी भी दुस्साहसी थी, जिसने दो वर मांगकर श्रीराम को वन भेजा। परंतु क्या वही वनवास आगे चलकर धर्म की विजय का कारण नहीं बना?”
2. यदि स्त्री असत्य बोलती है, तो उस सत्य के लिए जो पुरुषों को सुनाई नहीं देता
> “आप कहते हैं स्त्रियाँ असत्य बोलती हैं। पर सत्य क्या है?
> क्या सीता का पवित्र होना सत्य नहीं था, और क्या आपने कभी उस पर विचार किया?
> क्या आपकी आँखें केवल उसे भोगने के लिए देखती थीं, या उसकी आत्मा को भी देख पाती थीं?
> आप जिसे असत्य कहते हैं, वह हमारा ढाल है उस पितृसत्ता के विरुद्ध जो हमें केवल रूप में बाँधना चाहता है।”
3. "हाँ, हम चंचल हैं क्योंकि हम गतिशील जीवन की प्रतीक हैं"
> “चंचलता यदि दोष है, तो क्या गंगा भी दोषपूर्ण है?
> क्या सीता की आंखों से बहते अश्रु चंचल नहीं थे?
> पर उन अश्रुओं ने ही हनुमान को युद्ध का कारण दिया।
> हम स्त्रियाँ चंचल हैं, क्योंकि हमारी आँखें हर दर्द को पहचानती हैं और मन हर परिवर्तन को स्वीकार कर लेता है।”
4. "माया हमारी शक्ति है!
> “हाँ, हम माया में निपुण हैं, क्योंकि हम प्रेम करना जानती हैं। > आप जिसे ‘माया’ कह रहे हैं, वह मेरी करुणा है।
> अगर सीता में माया न होती, तो वह रावण के प्रलोभनों में फँस गई होती।
> स्त्री की माया उसका आत्मबल है
5. "हमारा भय हमारी सावधानी है!
> “रावण! मैं भयभीत हूँ पर आपसे नहीं, उस भविष्य से जिसमें आप धर्म के विरुद्ध खड़े हैं।
> मेरा भय मेरा बंधन नहीं, मेरा दर्शन है।
> स्त्री का भय केवल उसका सच्चा अंतर्ज्ञान होता है।”
6. हम विवेकशील नहीं हैं, ऐसा कहना आपकी मूर्खता है
> “आप कहते हैं मैं हृदय से निर्णय ले रही हूँ।
> हाँ, ले रही हूँ, क्योंकि जब मनुष्य का विवेक मोह में डूब जाए,
> तब स्त्री का हृदय ही उसे धर्म का स्मरण कराता है।
> आपका विवेक जहाँ लज्जा छोड़ बैठा है, वहाँ मेरा हृदय संकोच की आखिरी दीपशिखा को जलाए रखे है।”
7. असौच? तब तो समस्त प्रकृति भी अपवित्र है!
> “यदि रजस्वला होना अपवित्रता है, तो फिर वह रक्त भी अपवित्र हुआ, जो युद्धभूमि में बहाया जाता है।
> वह अग्नि भी अपवित्र हुई, जो विवाह में अग्नि-साक्षी बनी।
> स्त्री के शारीरिक चक्र को जो अपवित्र कहे, वह स्वयं सृष्टि को नकार रहा है।
8. "निर्दयता हम स्त्रियों की नहीं, उन पुरुषों की है जो सत्य से मुँह मोड़ते हैं"
> मुझे आपसे प्रेम है, पर मैं धर्म से अधिक किसी से प्रेम नहीं करती।
> आप जिसे मेरी निर्दयता समझते हैं, वह आपके प्रति मेरी अंतिम चेतावनी है।
> यदि मैं आज आपको दया से देख रही हूँ, तो कल आपको युद्धभूमि में जलते देख भी रोऊँगी।
> लेकिन धर्म के विरुद्ध चलने वाला चाहे पति हो या पुत्र, स्त्री तब भी धर्म के पक्ष में खड़ी रहेगी।”
मंदोदरी की वाणी एक स्त्री की आत्मा का प्रतिध्वनि
उस दिन रावण ने मंदोदरी के उत्तर का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया।क्योंकि वह जानता था वह हार चुका है।
यह उत्तर उस हर स्त्री का उत्तर है, जिसे समाज ने उसकी प्रकृति के नाम पर आरोपित किया। वह हर माँ, हर बहन, हर पत्नी का मौन प्रतिकार है जो केवल प्रेम ही नहीं करती, बल्कि धर्म और सत्य के लिए कठिन निर्णय भी ले सकती है। अंत में स्त्री अवगुणों की नहीं, आद्यशक्ति की मूर्ति है।
तुलसीदास जी ने जो लिखा, वह केवल रावण की बुद्धि के क्षय का प्रतीक है, नारी की निंदा नहीं। उन्होंने उसी मानस में सीता को ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहकर वंदित किया। और मंदोदरी का यह उत्तर उस वंदना की दूसरी पंक्ति है।