सुप्रीम कोर्ट में वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर जारी बहस न केवल विधिक दृष्टिकोण से अहम है, बल्कि यह सामाजिक सौहार्द और धर्मनिरपेक्ष ढांचे की परीक्षा भी है। शीर्ष अदालत ने कानून के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों पर अंतरिम रोक लगाने का प्रस्ताव रखकर एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने का संकेत दिया है, जो लोकतंत्र में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका का परिचायक है।
विवाद का मुख्य केंद्र उन प्रावधानों पर है जो वक्फ संपत्तियों की पहचान, उनके पंजीकरण, और उनके प्रबंधन से जुड़े हैं। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि वह उन संपत्तियों को गैर-वक्फ घोषित करने के प्रावधान पर अस्थायी रूप से रोक लगाने पर विचार कर रही है, जिन्हें पूर्व में वक्फ घोषित किया जा चुका है। इससे न केवल धार्मिक संपत्तियों की ऐतिहासिक पहचान सुरक्षित रखने की दिशा में एक सकारात्मक पहल हुई है, बल्कि यह उन समुदायों की भावनाओं का सम्मान भी है जिनका वक्फ संपत्तियों से सीधा जुड़ाव है। इसके अलावा, अदालत ने यह भी संकेत दिया कि वक्फ बोर्डों में केवल पदेन सदस्यों को छोड़कर शेष सदस्य मुस्लिम ही हों, यह संविधान के समता और समावेशन के सिद्धांत पर पुनर्विचार योग्य विषय है। देश की लोकतांत्रिक प्रकृति बहुसांस्कृतिक सहभागिता को बढ़ावा देती है, और ऐसे में किसी संस्था में केवल एक धर्म विशेष के लोगों की भागीदारी की अनिवार्यता पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
सरकार का यह तर्क कि मामले की विस्तृत सुनवाई से पूर्व किसी भी प्रकार का अंतरिम आदेश न दिया जाए, प्रक्रिया की गंभीरता को रेखांकित करता है। किंतु, सुप्रीम कोर्ट का यह विचार कि हिंसा और सामाजिक असंतोष की स्थिति में त्वरित हस्तक्षेप जरूरी है, अधिक व्यावहारिक और जिम्मेदार नजर आता है। खासकर पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में हुई हिंसा इस बात का प्रमाण है कि यह मुद्दा अब केवल कानूनी न होकर सामाजिक तनाव का रूप ले चुका है। मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिल्ली की जामा मस्जिद का उदाहरण देते हुए यह प्रश्न उठाना कि सदियों पुरानी धार्मिक संपत्तियों का पंजीकरण कहां से लाया जाए, भारतीय सामाजिक वास्तविकताओं की जमीनी समझ का परिचायक है। ऐतिहासिक संदर्भों और परंपराओं की अनदेखी करके आधुनिक कानून लागू करना, व्यावहारिकता और न्याय के सिद्धांतों से समझौता हो सकता है।
इस पूरे परिप्रेक्ष्य में यह जरूरी हो गया है कि केंद्र सरकार और न्यायपालिका दोनों संवैधानिक मर्यादाओं के भीतर रहते हुए सामाजिक समरसता और ऐतिहासिक धार्मिक अधिकारों की रक्षा के बीच संतुलन बनाए रखें। वक्फ संपत्तियों से संबंधित यह कानूनी संघर्ष एक बड़े सवाल को जन्म देता है क्या हम अपने इतिहास, आस्था और संविधान के बीच सामंजस्य स्थापित करने में सक्षम हैं? यह समय है नीतिगत दृढ़ता और न्यायिक विवेक के साथ आगे बढ़ने का।
(संपादक)