विनोद कुमार झा
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कही गई यह बात "पाप ही प्राणियों के दुःख का कारण हैं" गीता के उस गूढ़ आध्यात्मिक सिद्धांत को उद्घाटित करती है जिसमें मानव के कष्टों का मूल कारण उसके कर्म और विशेषतः पापकर्म माने गए हैं। इस विषय पर अनेक कथाएं प्राचीन ग्रंथों और लोक साहित्य में प्राप्त होती हैं। नीचे कुछ गूढ़ और भावनात्मक कथाएँ दी जा रही हैं जो इस सिद्धांत को उद्घाटित करती हैं जैसे :भगवान श्रीकृष्ण ने कहा,"हे अर्जुन! यह संसार कर्ममय है। सुख-दुःख, जीवन-मरण, उन्नति-पतन सब कर्मों की छाया हैं। किन्तु स्मरण रखो, पाप ही वह बीज है जिससे दुःख की बेल उगती है।"श्रीकृष्ण का यह वाक्य केवल एक युग के योद्धा अर्जुन के लिए नहीं था, यह समस्त मानवता के लिए था। यह उन सभी आत्माओं के लिए था जो बार-बार जन्म लेती हैं, दुःख भोगती हैं, और फिर भी कारण नहीं जानतीं। कृष्ण कहते हैं दुःख कोई दुर्घटना नहीं, यह पाप का परिणाम है। यह एक स्थायी सत्य है जो काल, जाति, वर्ग, परिस्थिति से परे जाकर आत्मा को घेरे रहता है।
लेकिन क्या पाप केवल किसी की हत्या करना ही होता है? नहीं। पाप वह भी है जब हम अन्याय देखकर मौन रहते हैं, जब हम अपनों को धोखा देते हैं, जब हम अपनी आत्मा की पुकार को अनसुना करते हैं। और यही पाप, समय के साथ एक अघोषित श्राप बन जाता है, जो न पीढ़ियाँ देखता है, न पद, न प्रभाव केवल न्याय करता है। इस लेख में हम उन आत्माओं की यात्रा को समझने चल रहे हैं जिनका जीवन एक ही सूत्र में बंधा था पाप का बोझ और उससे उत्पन्न दुःख। इनके कई कथाएं प्रचलित हैं जो इस प्रकार है :
कथा 1 : नरकासुर जब शक्ति का सहारा पाप बन गया
नरकासुर के जन्म की कथा देवी-वरदानों से शुरू हुई थी। उसे अमरत्व के वरदान प्राप्त थे, उसे पराक्रम में कोई मात नहीं दे सकता था। देवताओं तक उससे भयभीत थे। पर जब शक्ति का साथ विवेक से छूट जाता है, तब वह शक्ति ही अभिशाप बन जाती है।
नरकासुर ने 16,000 कन्याओं का अपहरण कर उन्हें बंदी बना लिया। वह उन्हें अपनी विजयी माला मानता था। उसने ऋषियों के यज्ञ भंग किए, पृथ्वी की पुत्री–भू देवी का अपमान किया। उसके राज्य में सत्य दुर्बल था और झूठ उसका सिंहासन।
धरती चीख उठी। और तब वह क्षण आया जब श्रीकृष्ण ने कहा “अब अधर्म की सीमा पार हो गई है।” श्रीकृष्ण ने सत्यभामा को साथ लिया जो स्वयं पृथ्वी की शक्ति थीं और युद्ध की घोषणा कर दी।
जब नरकासुर का अंत हुआ, तब उसका रक्त पृथ्वी को भिगो रहा था। मृत्यु के क्षणों में वह चीख पड़ा “मैंने सब कुछ पाया, पर एक शांति का क्षण भी नहीं जिया।”
कृष्ण ने उस समय न केवल उसका अंत किया, बल्कि उसके पापों से त्रस्त 16,000 कन्याओं को सम्मान दिया। उन्होंने उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार कर समाज को संदेश दिया कि *स्त्री अपमान का पाप ही सबसे गहरा दुःख लाता है जो केवल युगों में एक अवतार ही मिटा सकता है। यह कथा कहती है शक्ति जब विवेकहीन होती है, तो वह स्वयं ही आत्मा को जला देती है।
कथा 2: अजातशत्रु – जब पुत्र पितृहंता बना
मगध का राजकुमार अजातशत्रु ज्ञान का नहीं, सत्ता का उपासक था। उसका हृदय तीव्र इच्छा से भरा था राजा बनने की इच्छा, यश पाने की, विश्वविजयी बनने की। लेकिन वह भूल गया कि सत्ता यदि पाप के पुल से होकर आए, तो वह गद्दी भी जलती हुई होती है। देवदत्त नामक षड्यंत्रकारी भिक्षु ने उसके मन में ज़हर घोल दिया “तुम्हारे पिता बिंबिसार नहीं हटेंगे। उन्हें हटाओ, तभी राज तुम्हारा होगा।”
अजातशत्रु ने वही किया। उसने अपने ही पिता को बंदीगृह में डलवाया। बिंबिसार ने अन्न-जल त्याग दिया और अपनी ही संतान के हाथों मर गए। राज्य मिल गया। सिंहासन भी। पर नींद? वह नहीं मिली। रातें डरावने स्वप्नों से भर गईं। महलों में घूमती पिता की आत्मा की पीड़ा उसकी आत्मा को चीरती रही। और तब, वर्षों बाद, वह भगवान बुद्ध के पास गया। सिर झुकाया, आँसू बहाए। कहा “मैंने संसार पा लिया, पर आत्मा खो दी।”
बुद्ध ने कहा “पापकर्म का पहला शिकार स्वयं आत्मा होती है। बाहरी लोग बाद में पीड़ित होते हैं, भीतर की आत्मा पहले जलती है।”जिस सिंहासन का पथ पितृहंसा से बना हो, वह अंततः आत्मग्लानि की आग में जलता है।
कथा 3: गांधारी शोक की ज्वाला में जलता हृदय
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। हस्तिनापुर का राजसिंहासन युधिष्ठिर के हाथों में था। पर धृतराष्ट्र और गांधारी जिनके सौ पुत्र इस युद्ध में मारे गए शोक और मौन की मूर्ति बन चुके थे। जब श्रीकृष्ण शोक-सांत्वना देने पहुँचे, गांधारी का क्रोध फूट पड़ा।
उसने कहा “हे कृष्ण! तुम सर्वशक्तिमान होकर भी इस महायुद्ध को रोक नहीं सके। तुमने चाहा तो दुर्योधन बच सकता था, अभिमन्यु जीवित रहता, द्रौपदी अपमानित न होती। अब तुम भी देखना जैसे मेरे पुत्र मेरे सामने मरे, वैसे ही तुम्हारा यदुवंश भी तुम्हारी आँखों के सामने नष्ट होगा।”
यह शाप था। क्रोध में दिया गया, परंतु पापकर्म ही था। शोक की आग में उसने जो कहा, वह स्वयं उसके हृदय को चीर गया।श्रीकृष्ण मौन रहे। पर गांधारी जानती थी एक क्षणिक आवेश में दिए गए वचनों ने भविष्य को बदल दिया है। वह आत्मग्लानि में जीती रही, और अंततः हिमालय के तपोवनों में समाधि ले ली। शोक पवित्र होता है, पर यदि वह शाप बन जाए तो वह नया पाप रचता है।
कथा 4: हरिश्चंद्र – जब सत्य का दाम दूसरों के पापों से चुकाना पड़ा
राजा हरिश्चंद्र का नाम आते ही हमारे मन में एक दिव्य छवि उभरती है वह राजा जो सत्य और धर्म के लिए सब कुछ त्यागने को तैयार था। परंतु जो पीड़ा उन्होंने भोगी, उसका कारण केवल उनकी परीक्षा नहीं थी। वह एक और गहरी सच्चाई थी दूसरों के पापों का प्रायश्चित कभी-कभी सज्जनों को भी करना पड़ता है।
एक दिन महर्षि विश्वामित्र के मन में संकल्प जागा "क्या वास्तव में कोई व्यक्ति पूर्णतः सत्यनिष्ठ हो सकता है?" उन्होंने देवलोक की शक्ति से माया रची — सपनों में, यज्ञों में, संकटों में। और एक राजा को अपने सिंहासन से उठाकर श्मशान की चिता तक पहुँचा दिया। हरिश्चंद्र ने राज्य छोड़ा। पत्नी और पुत्र को अलग-अलग स्थानों पर काम पर भेजा। स्वयं श्मशानघाट का रखवाला बना। उसके हाथ में चिता की आग थी और आँखों में आँसू।
एक दिन उसका पुत्र रोहित मर गया। पत्नी उसे चिता पर लाने आई। और श्मशान के द्वार पर खड़ा था स्वयं हरिश्चंद्र जो शव लेने के लिए शुल्क मांग रहा था। पत्नी ने पहचान लिया “स्वामी! यह हमारा पुत्र है... इसे चिता दो...” हरिश्चंद्र ने कहा “यह सत्य का राज है, भावना का नहीं। श्मशान भी नियमों से चलता है।” वह कोई अभिनय नहीं था। वह आत्मा की अग्निपरीक्षा थी।
अंत में, जब सत्य का पलड़ा झुकने को था, स्वयं देवताओं ने प्रकट होकर कहा “राजन! यह सब माया थी। तुमने केवल अपने नहीं, समस्त ब्रह्मांड के पापों को धो दिया है। अब स्वर्ग तुम्हारा है।” कभी-कभी किसी आत्मा को दूसरों के पापों से उपजा दुःख भी भोगना पड़ता है, ताकि संसार को यह स्मरण रहे कि सत्य कभी मरता नहीं।
कथा 5: बाणासुर जब भक्ति के पीछे छिपा पाप उजागर हुआ
बाणासुर शिवभक्त था। महान वीर, तेजस्वी योद्धा और हजारों हाथों वाला असुर जिसे स्वयं महादेव का वरदान प्राप्त था। परंतु भीतर पाप का बीज छिपा हुआ था वह पुत्री की स्वतंत्रता को अधिकार मानता था, और उसके प्रेम को अपमान।
उसकी पुत्री ऊषा, श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से प्रेम करती थी। दोनों की आत्माएँ जुड़ चुकी थीं, पर बाणासुर ने जब यह जाना, तो उसने अनिरुद्ध को बंदी बना लिया। वह क्रुद्ध था “एक यदुवंशी कैसे मेरी पुत्री को छू सकता है?”
श्रीकृष्ण जब युद्धभूमि में पहुँचे, तब यह केवल एक राजा और असुर की लड़ाई नहीं थी, यह अभिमान और प्रेम के बीच युद्ध था। बाणासुर को शिव की शक्ति प्राप्त थी, लेकिन उसका हृदय पुत्री के प्रेम को पाप मान चुका था और यही उसका वास्तविक पाप था।
श्रीकृष्ण ने उसे पराजित किया, किंतु मार नहीं डाला। उन्होंने कहा , "बाणासुर, तू शिवभक्त है, पर तूने यह नहीं जाना कि ईश्वर भक्ति में अधिकार नहीं, प्रेम होता है। तेरी शक्ति का अंत तेरे पापों से होगा, न कि हमारे शस्त्रों से।"
बाणासुर के हाथ कट गए। उसका बल जाता रहा। उसकी पुत्री ने अनिरुद्ध संग विवाह कर लिया। और बाणासुर... वह हिमालय की ओर चला गया, जहां वह वर्षों तक तप में लीन रहा, आत्मग्लानि और पश्चाताप में। ईश्वर की भक्ति तब तक अधूरी है जब तक हम दूसरों के प्रेम, स्वतंत्रता और सम्मान को नहीं पहचानते। अहंकार से जन्मा पाप अंततः भक्त को भी नहीं छोड़ता।
जब आत्मा की आग समाज में दिखती है। आज जब हम आधुनिकता की चमक में चलते हैं, हमें लगता है कि पाप और पुण्य पुराने युग की बातें थीं। पर देखिए: एक पिता रिश्वत लेता है और उसका बेटा मानसिक अवसाद से जूझता है। एक नेता सत्ता के लिए झूठ फैलाता है, और अगली पीढ़ी भरोसे का गला घोंट देती है। एक परिवार किसी वृद्ध माँ को छोड़ देता है, और वही संतप्त माँ की आत्मा वर्षों तक घर की दीवारों में सिसकती है। यह सब नया नहीं है। यह पाप के बोझ का प्रसार है, जो युगों-युगों तक चलता है। जो एक आत्मा को नहीं, समाज के ताने-बाने को जलाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में जो कहा, वह केवल दर्शन नहीं, चेतावनी थी । "जो पाप करता है, वह केवल बाहर नहीं टूटता, वह भीतर से भी विखंडित हो जाता है।" पाप का बोझ आत्मा से चिपकता नहीं, वह आत्मा को अपने भीतर निगल लेता है। परंतु जो पश्चाताप करता है, जो क्षमा मांगता है, जो सत्य की ओर लौटता है उसके लिए श्रीकृष्ण का वचन है: "मैं पापकर्मियों को भी मोक्ष देता हूँ यदि वे एक बार भी मुझ पर पूर्ण श्रद्धा से आश्रित हो जाएँ।"