विनोद कुमार झा
शोर मच रहा था, जैसे कोई रणभूमि सजी हो। हर चेहरा जैसे तलवार बना खड़ा था, हर आंख जैसे लक्ष्य भेदने को तैयार। ये कोई अखाड़ा नहीं था, न ही कोई युद्ध का मैदान। यह तो बस एक लंबी बेहद लंबी इंतजार की पंक्ति थी।कोई परीक्षा पास कर आया था, कोई सर्टिफिकेटों का पुलिंदा लिए खड़ा था। किसी ने बाप की खेती बेच दी थी पढ़ाई के नाम पर, तो किसी की मां ने गहने गिरवी रख दिए थे नौकरी की आस मे हर कोई अपने हिस्से का स्वप्न लिए, सिर झुकाए, अपने नंबर के बुलावे का इंतजार कर रहा था, मानो एक अदृश्य सीटी बजेगी, और सब दौड़ पड़ेंगे, रोज़गार की रेस में, मानवीय अस्तित्व की खोज में।
यह कहानी है ध्रुव की, जो गाँव से शहर आया था, अपनी पीठ पर उम्मीदों की गठरी लिए। पढ़ाई में अव्वल, स्वभाव में सरल, और विचारों में गहराई लिए ध्रुव का सपना था कि एक दिन वह अपने बूढ़े माता-पिता को गरीबी से मुक्त कर सके।
सरकारी नौकरी की परीक्षा पास कर लेने के बाद, वह जब इंटरव्यू देने पहुँचा, तब शुरू हुआ असली मुकाबला। पंक्ति में खड़े थे कोई डॉक्टर, कोई इंजीनियर, कोई एम.ए. पास और कोई दसवीं फेल पर भी धूर्त जोड़-तोड़ वाला। यहाँ डिग्री से ज़्यादा ज़ोर चलता था सिफारिश का, और मेहनत से ज़्यादा वज़न रखता था ‘कौन है पीछे तुम्हारे?’ का सवाल।
ध्रुव को जल्द समझ में आ गया कि पंक्तियाँ सिर्फ इंतज़ार की नहीं होतीं, वे इंसान के धैर्य, आत्म-सम्मान और नैतिकता की भी परीक्षा लेती हैं। यह मुकाबला था केवल सीट का नहीं, आत्मा को खोए बिना टिके रहने का भी।
पंक्ति में ध्रुव की दोस्ती हुई शबनम से, जो अपने छोटे भाई की पढ़ाई और मां की दवा के लिए नौकरी चाहती थी। एक दिन धूप में घंटों इंतजार के बाद जब शबनम बेहोश होकर गिर पड़ी, तो ध्रुव ने अपनी बारी छोड़कर उसे अस्पताल पहुँचाया। जब लौटकर आया, तो उसकी बारी निकल चुकी थी।
एक बुजुर्ग जो पास खड़े थे, धीरे से बोले, बेटा, तुमने नौकरी नहीं पाई, पर इंसानियत पास कर ली है। वहीं खड़ा एक क्लर्क, जिसने ये सब देखा था, अंदर गया और बिना कहे ध्रुव की फाइल ऊपर भेज दी। कुछ दिनों बाद ध्रुव को कॉल आया"आपका चयन हो गया है।"
आज ध्रुव एक अध्यापक है। वो हर साल अपने छात्रों को एक कहानी सुनाता है, "बच्चों, मैं कोई रईस नहीं बना, लेकिन मैं वो बना जो एक शिक्षक को बनना चाहिए संवेदनशील और न्यायप्रिय। मेरे जीवन की सबसे बड़ी सीख मुझे उस दिन मिली थी, जब मैंने इंसानियत की परीक्षा पास की थी, एक नौकरी की पंक्ति में खड़े होकर।
इंतजार की पंक्ति केवल रोज़गार की लाइन नहीं है, यह उस परीक्षा का नाम है जिसमें हमारा धैर्य, मूल्य, और संवेदना आँकी जाती है। शिक्षा केवल किताबी ज्ञान नहीं, रोजगार केवल तनख्वाह पाने का जरिया नहीं, और मानवता केवल किताबों की पंक्तियों तक सीमित नहीं। पंक्तियाँ सिर्फ लंबाई नहीं, पीड़ा की गहराई होती हैं।
ध्रुव हर सुबह पाँच बजे उठता। माँ की तस्वीर को प्रणाम करता, और लकड़ी की छोटी-सी मेज पर बैठकर अख़बार में छपी नौकरियों की सूची में अपनी उम्मीदों का चेहरा ढूंढता। एक दिन उसके साथ लाइन में लगे जस्सू काका ने कहा, बेटा, नौकरी की लाइन में सबसे ज़्यादा उम्र बीतती है... और सबसे ज़्यादा उम्मीदें मरती हैं।
ध्रुव ने मुस्कुरा कर कहा, लेकिन एक उम्मीद जो ज़िंदा रहती है, वो दूसरों को भी जीना सिखा देती है। ध्रुव को पंक्ति में खड़े कई चेहरे अब पहचान में आने लगे थे। शबनम, जो हर बार अपने भाई की स्कूल फीस का ज़िक्र करती थी। नील, जो हर परीक्षा में असफल हो चुका था लेकिन हर बार एक नई किताब लेकर आता। और गोपाल, जो विकलांग था, लेकिन सबसे पहले आकर सबसे पीछे बैठता शालीनता की मिसाल।
ध्रुव ने देखा कि कैसे शिक्षा अब सिर्फ डिग्रियों का ढेर बन चुकी है। कितने ही एमए, एमएससी, बीएड छात्र वहाँ खड़े थे, लेकिन उनमें से कई को कंप्यूटर ऑन करना भी ठीक से नहीं आता था।शिक्षा और रोजगार के बीच एक गहरी खाई थी, जिसमें गिरकर हजारों युवा आत्म-संदेह और अवसाद में डूबते जा रहे थे।
शबनम ने एक दिन कहा, हम पढ़े-लिखे हैं, पर रोज़गार की पंक्ति में ऐसे खड़े हैं जैसे भीख मांग रहे हों... ये सिस्टम हमें क्या सिखा रहा है?
ध्रुव चुप रहा, क्योंकि उसके पास जवाब नहीं था। लेकिन उसके दिल में एक विचार जन्म लेने लगा कुछ करना होगा, सिर्फ़ खुद के लिए नहीं, इन सबके लिए।
एक दिन दफ्तर के बाहर नोटिस लगा “भर्ती प्रक्रिया रद्द।” पंक्ति टूट गई। कुछ रोने लगे, कुछ चीखने। एक युवक ने वहीं आग लगा दी अपने कागज़ों को। ये कागज़ नहीं जले, मेरा भविष्य जल गया है, वह चिल्लाया।
ध्रुव उस दिन देर तक चुप बैठा रहा। उसके सामने उसकी माँ की थकी हुई आंखें घूमती रहीं, जिसने बेटे के लिए अपने हाथों की चूड़ियाँ तक बेच दी थीं।
उसी रात उसने एक निर्णय लिया, अब इंतज़ार नहीं, अब निर्माण होगा। ध्रुव ने कुछ युवाओं के साथ मिलकर एक छोटी संस्था बनाई “नई पंक्ति”। यह संस्था उन युवाओं के लिए थी जो योग्य थे, लेकिन अवसर से वंचित।
शबनम ने उसे तकनीकी ट्रेनिंग सेंटर में बदला, नील ने रोज़गार संबंधित जानकारी और इंटरव्यू टिप्स देना शुरू किया, गोपाल ने फ्री क्लासेज़ लेने का ज़िम्मा उठाया। हर सप्ताह 20-30 नए चेहरे आते। किसी को कॉम्प्यूटर सिखाया जाता, किसी को सीवी बनाना, किसी को सिर्फ़ सहारा “तुम अकेले नहीं हो” ये बताने के लिए।
ध्रुव अब नौकरी में था, पर वह अपनी संस्था से जुड़ा रहा। हर सप्ताह वह नई पंक्ति में बैठता, उन चेहरों को देखकर जिन्हें वह कभी अपने जैसा मानता था। उसने एक दीवार पर एक वाक्य लिखवा दिया,“पंक्ति में खड़े रहो, लेकिन किसी और के लिए रास्ता बनाते हुए।” ध्रुव की माँ अब नहीं रहीं, लेकिन उनकी आँखों की आशा अब सैकड़ों चेहरों में जीती थी।
“इंतजार की पंक्ति” कोई सरकारी दफ्तर की लाइन नहीं, बल्कि उस परीक्षा का नाम है जिसमें इंसान का धैर्य, मानवता और आत्मबल परखा जाता है।
हर युवा कभी न कभी उस पंक्ति का हिस्सा बनता है, कभी रोजगार के लिए, कभी न्याय के लिए, कभी प्यार के लिए।लेकिन असली सफलता तब होती है, जब हम उस पंक्ति में खड़े होकर किसी और की थकी हुई पीठ को सहारा देते हैं।
यह कहानी हर उस युवा की है, जो अपनी अस्मिता और आत्मा को बचाते हुए भी मंज़िल तक पहुँचना चाहता है। जो पंक्ति में खड़े होकर भी किसी और के लिए रास्ता बनाना जानता है।