हाल ही में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का एक बयान सोशल मीडिया और राजनीतिक गलियारों में व्यापक चर्चा का विषय बन गया है। उन्होंने कहा “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता।” यह बयान सुनने में उदार और मानवीय मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है, लेकिन इसी के साथ देश के कुछ हिस्सों से आई घटनाएं जैसे कश्मीर के पहलगाम में यात्रियों से धर्म पूछकर गोली चलाना इस कथन पर गंभीर सवाल भी खड़े करती हैं।
अखिलेश यादव का बयान आख़िर इसका तात्पर्य क्या है?
अखिलेश यादव का यह बयान एक आम उदारवादी राजनीतिक दृष्टिकोण को दर्शाता है जिसमें यह मान्यता है कि आतंकवादी क्रियाएं किसी धर्म विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। इस विचारधारा के अनुसार, कोई भी मज़हब मानवता, दया और भाईचारे का पाठ पढ़ाता है, और जो लोग निर्दोषों की हत्या करते हैं, वे किसी भी धर्म के सच्चे अनुयायी नहीं हो सकते।अखिलेश का मक़सद: उनका उद्देश्य संभवतः यह रहा हो कि समाज में साम्प्रदायिक तनाव न बढ़े, और सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण बना रहे। उन्होंने यह बात मानवता की दृष्टि से कही, न कि किसी एक घटना की पृष्ठभूमि से।
पहलगाम की हकीकत क्या वास्तव में आतंकवादी धर्म पूछकर गोली चलाते हैं?
2024 के उत्तरार्ध में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम इलाके में अमरनाथ यात्रा के दौरान एक हृदयविदारक घटना सामने आई। प्रत्यक्षदर्शियों और स्थानीय रिपोर्टों के अनुसार, कुछ सशस्त्र आतंकियों ने पर्यटकों से पहले उनका नाम और धर्म पूछा, और जिनका नाम हिंदू प्रतीत हुआ, उन्हें निशाना बनाकर गोली चला दी गई।
सवाल ये उठता है कि अगर आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, तो फिर धर्म पूछकर ही गोली क्यों मारी गई?
इस घटना ने उस उदारवादी विचारधारा को सीधी चुनौती दी जिसमें कहा जाता है कि आतंकवादी अंधे होकर मारते हैं। वास्तविकता यह है कि कई बार आतंकवाद की जड़ें धार्मिक पहचान, वैचारिक नफ़रत और अलगाववादी मानसिकता में गहराई से जुड़ी होती हैं।
क्या ये घटनाएं राजनीतिक बयानबाज़ी को झूठलाती हैं?
नहीं पूरी तरह से, परंतु: जहां अखिलेश यादव का कथन एक आदर्श समाज की कल्पना करता है, वहीं ज़मीनी हकीकत अक्सर कहीं अधिक जटिल और त्रासदीपूर्ण होती है। भारत जैसे देश में, जहाँ सांप्रदायिकता का इतिहास पुराना है, वहाँ इस तरह की घटनाएं राजनीतिक बयानों की परीक्षा बन जाती हैं।
अखिलेश यादव जैसे नेताओं को यह समझना चाहिए कि “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता” जैसा कथन यदि संवेदनशील घटनाओं के संदर्भ में कहा जाए, तो यह पीड़ित समुदाय की वेदना को अनदेखा करने जैसा प्रतीत हो सकता है।
जब कोई नेता किसी भी धर्म या समुदाय से ऊपर उठकर बात करता है, तो वह राष्ट्र के लिए आदर्श हो सकता है। लेकिन जब वही नेता उन घटनाओं पर चुप्पी साधे रखते हैं जहाँ धर्म के आधार पर निशाना बनाया गया हो, तो उनकी नैतिकता पर सवाल उठता है।
क्या होना चाहिए था?
अखिलेश यादव को अपने बयान के साथ यह भी स्पष्ट करना चाहिए था कि वे उन आतंकी घटनाओं की कड़ी निंदा करते हैं जिनमें किसी खास धर्म के लोगों को टारगेट किया गया हो। इससे उनका संतुलन भी बनता और राष्ट्रहित की भावना भी।
अखिलेश यादव का बयान अपने आप में एक आदर्शवादी सोच है, परंतु जब धरातल पर धार्मिक पहचान के आधार पर की जाने वाली हिंसा की घटनाएं सामने आती हैं, तो यह आदर्शवाद अधूरा और कभी-कभी असंवेदनशील लगने लगता है। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक समाज में नेताओं की जिम्मेदारी केवल बयान देने की नहीं, बल्कि ज़मीनी सच्चाई को स्वीकार करने और पीड़ितों की आवाज़ बनने की भी है।
“अगर आतंकवाद धर्म से ऊपर होता, तो धर्म पूछकर कोई गोली न चलाता। जो चलाता है, वह सिर्फ आतंकवादी नहीं, बल्कि इंसानियत का गुनहगार होता है। नेताओं को चाहिये कि वे भाषण नहीं, समाधान दें; बयान नहीं, दिशा दें।”