चुपचाप बहती नदी

विनोद कुमार झा


गाँव का माहौल उत्सवमय था। हर गली, हर आँगन में शहनाइयाँ गूंज रही थीं। 9 मई को सोनम की शादी तय थी  उसका दूल्हा, रवि, गाँव के ही पास के कस्बे से था। 25 साल का, पढ़ा-लिखा, और सौम्य स्वभाव वाला रवि सबको अच्छा लगा था। सोनम भी बहुत खुश थी, पर शायद किसी को नहीं पता था कि इस खुशी के पीछे कोई और कहानी भी पल रही थी... एक चुपचाप बहती नदी की तरह।

शुरुआत में रवि और सोनम घंटों फोन पर बात करते थे। रिश्ते में मिठास भरने के लिए यह जरूरी भी था। लेकिन धीरे-धीरे रवि की बातचीत सोनम की माँ, भावना देवी, से अधिक होने लगी। पहले छोटी-छोटी बातों से शुरू हुआ सिलसिला कब गहरी समझ और फिर अव्यक्त प्रेम में बदल गया, कोई जान ही न पाया।

भावना देवी मात्र 42 वर्ष की थीं उम्र ने चेहरे पर थोड़ी थकान जरूर छोड़ी थी, लेकिन दिल अब भी जवान था। जीवन में प्रेम क्या होता है, यह उन्होंने अब जाकर समझा था। विवाह के वर्षों बाद एक ठंडी चुप्पी को ही उन्होंने संबंध समझ लिया था, मगर रवि की मासूम बातचीतों ने उनके भीतर की सूखी धरती पर पहली बार फिर से प्रेम की बारिश कर दी थी।

रवि भी अनजाने ही भावना में सुकून ढूँढने लगा था। जहाँ सोनम के साथ उसका रिश्ता अभी किशोर भावनाओं में उलझा था, वहीं भावना के साथ उसे जीवन का गहरा अर्थ मिलने लगा था  सहानुभूति, समझदारी और बिना बोले समझ लेने वाली आँखें।

शादी के एक हफ्ते पहले, एक दिन दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में कुछ ऐसा पढ़ लिया, जिसे शब्दों की जरूरत नहीं थी। उस रात गाँव में बिजली चली गई थी, मगर भावना और रवि के दिलों में अनायास एक चिंगारी जल उठी थी। उन्होंने फैसला किया  जो दुनिया को पागलपन लगेगा, वही उनके लिए सच था।

सुबह जब घरवाले जागे, तो पाया कि भावना देवी और रवि दोनों लापता थे।  

पहले तो परिजन कुछ समझ ही नहीं पाए।  

"कहीं रवि को डर तो नहीं लग गया शादी से?"  

"माँ कहाँ चली गई भला?"  

गाँव में तरह-तरह की बातें होने लगीं। शर्मिंदगी का साया सोनम के परिवार पर गहराने लगा। तीन दिन बाद मामला थाने तक पहुँच गया। अखबारों में खबर छपी "सास-दामाद का प्रेम प्रसंग: शादी से पहले हुए फरार!"

गाँव के चबूतरों पर लोग हँसते, ताने कसते ,

"अब बहू नहीं, दामाद चाहिए था!"  

"देखो, कैसे ज़माना बदल गया है!"

लेकिन इन चर्चाओं से दूर, रवि और भावना किसी अनजान कस्बे में एक छोटे से किराए के कमरे में, अपनी छोटी-सी दुनिया बसाने की कोशिश कर रहे थे।  

रात को जब सन्नाटा होता, तो कभी भावना को अपनी बेटी की याद आती, तो कभी रवि को अपने माता-पिता का चेहरा दिखाई देता। गिल्ट और प्रेम के बीच झूलते दोनों के दिल हर रोज़ सवालों से घिरते, लेकिन फिर एक-दूसरे की हथेली थामकर वे चुपचाप आँसू पी जाते।

"क्या हमने सही किया?" रवि कभी-कभी पूछता।

भावना धीमे से मुस्कुराती, उसकी हथेली सहलाते हुए कहती "जीवन में कभी-कभी सही और गलत के बीच सिर्फ एक धड़कन का फासला होता है। हमने सिर्फ अपनी धड़कनों का साथ दिया है।"

समाज की नजरों में वे पापी थे। परिवार की नजरों में गुनहगार। लेकिन अपने भीतर, वे जानते थे कि उन्होंने सिर्फ सच्चाई को अपनाया था  वह सच्चाई जो उम्र, रिश्तों, नियमों के परे थी।

कई महीने बीत गए। धीरे-धीरे खबरों से मामला गायब हो गया। सोनम ने मजबूरी में दूसरे शहर में जाकर नौकरी शुरू कर दी। गाँव में भी लोग धीरे-धीरे इस घटना को भूल गए।

पर एक दिन, उसी पुराने गाँव के बस स्टैंड पर, एक बुजुर्ग दंपत्ति को किसी ने देखा  महिला ने हल्की सी मुस्कान के साथ अपने साथी का हाथ थाम रखा था, और आँखों में अब कोई पश्चाताप नहीं था। वे थे रवि और भावना  अब समाज की परिभाषाओं से दूर, बस एक-दूसरे के लिए जिंदा।

रवि और भावना ने एक छोटा सा ठिकाना ढूंढ लिया था  दो कमरे, एक पुरानी लकड़ी की खिड़की, और धूप में झांकती उम्मीदें। दिनभर मजदूरी कर रवि घर लौटता, तो भावना अपने हाथों से उसकी पसंद का खाना बनाकर इंतजार करती। न वहाँ दहेज की चिंता थी, न रस्मों-रिवाज की शर्तें। जो कुछ भी था  अधूरा, टूटा-फूटा सही  पर सच्चा था। रातों को दोनों छत पर लेटकर तारों से बातें करते, और चुपचाप आने वाले कल का सपना बुनते।

हालांकि सपनों के साथ एक अनकहा डर भी था। भावना जानती थी कि समाज ने उन्हें माफ नहीं किया है। अपनी बेटी से बिछड़ने का दर्द अब भी उसकी आँखों में तैर जाता था। कई बार वह खुद को कोसती  "क्या एक माँ को अपनी बेटी के सपनों पर इस तरह से पानी फेरना चाहिए था?" लेकिन हर बार रवि का मासूम चेहरा देखकर वह खुद को समझा लेती  "कभी-कभी अपने लिए जीना भी जरूरी होता है।" जीवनभर उसने दूसरों के लिए जिया था; अब पहली बार उसने अपने दिल की सुनी थी।

उधर सोनम ने भी खुद को मजबूत कर लिया था। गहरे घाव के बाद उसने अपने भविष्य को फिर से सँवारने का फैसला किया। माँ के प्रति उसके मन में गुस्सा था, पर कहीं गहरे में एक थकी हुई समझ भी थी  शायद माँ भी कभी बेटी ही रही होगी, जिसने अपने हिस्से के सपनों को कुचल दिया था। सोनम ने सीखा कि हर टूटन के बाद एक नई शुरुआत होती है। उसने तय कर लिया था कि वह अपने जीवन को किसी की परछाइयों में नहीं, बल्कि अपनी रोशनी में जिएगी।

समय बीतता रहा। रवि और भावना ने एक छोटे से फुलवारी उगाई, जिसमें गुलाब भी थे और काँटे भी। वे अब भी एक-दूसरे के लिए जीते थे  साधारण, गुमनाम और बेहद सच्चे। गाँव ने उन्हें भुला दिया था, पर वे खुद को नहीं भूले थे। कभी-कभी भावना को लगता, अगर दुनिया उन्हें समझ सकती, तो शायद प्रेम की परिभाषा इतनी छोटी नहीं होती। वे जानते थे  उन्होंने जो चुना था, वह आसान नहीं था, पर यह उनका अपना सच था। और किसी दिन जब उनकी कहानी भी धूल में मिल जाएगी, तब भी वह चुपचाप बहती नदी की तरह, अनसुनी लेकिन अमर बनी रहेगी।

कभी-कभी जिंदगी भी वही कहानी सुनाती है, जिसे हम सुनना नहीं चाहते एक चुपचाप बहती नदी की कहानी, जो अपने रास्ते खुद बना लेती है, चाहे कोई भी पत्थर सामने क्यों न हो।


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