रामायण का प्रथम श्लोक कौन-सा है, जिससे इसकी रचना आरंभ हुई?

विनोद कुमार झा

कभी-कभी ब्रह्म की प्रेरणा एक विलाप में छिपी होती है, और एक ऋषि की करुणा ही कविता बन जाती है। जब क्रौंच पक्षी की पुकार ने वाल्मीकि के भीतर किसी गहरे भाव को जगा दिया, तब संसार ने पहली बार जाना कि भावनाएँ भी श्लोक बन सकती हैं, और कविता भी धर्म का वाहक हो सकती है।अगर आप उस श्लोक को भी जानना चाहते हैं, तो वह "वाल्मीकि रामायण" का प्रथम श्लोक है, जिसे शोक से उत्पन्न श्लोक भी कहा जाता है। वह श्लोक इस प्रकार है:

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम् अगमः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौंच मिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥

इस श्लोक की रचना उस समय हुई जब महर्षि वाल्मीकि ने एक शिकारी को क्रौंच पक्षी का वध करते देखा और उन्हें करुणा से शोक उत्पन्न हुआ, जिससे यह छंद स्वतः निकल पड़ा। इसी को रामायण का आदिश्लोक माना जाता है।

मानव इतिहास के विशाल साहित्यिक आकाश में जब पहली बार करुणा ने कविता का रूप लिया, तब आदि कवि वाल्मीकि के मुख से वह दिव्य स्वर फूटा, जिसे संसार ने "आदि श्लोक" कहा। यह कथा केवल एक श्लोक की उत्पत्ति नहीं है, यह भावों के प्रवाह, ब्रह्म प्रेरणा, और धर्म की स्थापना की एक अद्वितीय गाथा है। सत्य, धर्म और मर्यादा के प्रतीक श्रीराम के जीवन की कथा, जिसे आज हम रामायण के नाम से जानते हैं, वह केवल एक राजा की कहानी नहीं, बल्कि मानवता के लिए आदर्श की स्थापना है। किन्तु इससे भी पहले, एक और कथा है उस कथा की उत्पत्ति की, जो स्वयं एक दिव्य संयोग था। वह कथा है महर्षि वाल्मीकि की।

प्रचेता के पुत्र, तपस्वी, ज्ञानी और महाज्ञानी वाल्मीकि, जिन्होंने जीवन को तप और साधना के माध्यम से समझा, वे कवि नहीं थे। वे ऋषि थे जिनकी वाणी वेदों की गूंज में गूंजती थी, पर कविता अब तक मौन थी। वे संसार को "कर्म" और "परिणाम" की दृष्टि से देखते थे, परन्तु एक दिन, करुणा ने उनके भीतर वह स्वर जगाया, जो मानवता के लिए आदि काव्य बन गया। एक दिन उनके आश्रम में देवर्षि नारद पधारे। उनके तेजस्वी मुखमंडल से आभा फूट रही थी और नेत्रों में कुछ गूढ़ संकेत थे। वाल्मीकि ने उन्हें आदरपूर्वक स्वागत दिया और पूछा, “भगवन्! आपका आगमन किस हेतु से हुआ?”

तब नारद ने कहा, “हे महर्षि! मैं ब्रह्मलोक से आया हूँ। स्वयं ब्रह्मा की आज्ञा है कि आपको इस कल्प के सबसे पवित्र अवतार की कथा सुनाई जाए श्रीरामचरित की। आप ही वह योग्यता रखते हैं जो इस कथा को यथावत, सत्य और भक्ति से भरकर इस पृथ्वी पर उतार सकें।”और फिर देवर्षि ने उन्हें श्रीराम के जन्म से लेकर लंका विजय तक की संक्षिप्त कथा सुनाई श्रीहरि के सातवें अवतार की वह लीलाएँ जो आने वाले युगों को धर्म, मर्यादा और करुणा का पथ दिखाएंगी। वाल्मीकि उस कथा से भीतर तक हिल गए।

अगले दिन वाल्मीकि अपने शिष्य भारद्वाज के साथ तमसा नदी के किनारे स्नान हेतु गए। वहाँ उन्होंने एक अनुपम दृश्य देखा क्रौंच पक्षियों का जोड़ा प्रेममग्न हो, स्नेहपूर्वक क्रीड़ा कर रहा था। वह दृश्य इतना कोमल और जीवन्त था कि महर्षि वाल्मीकि भावविभोर हो उठे। किन्तु तभी... एक भयानक घटना घटित हुई। एक निषाद (बहेलिया) ने अचानक बाण से नर क्रौंच पक्षी को मार गिराया। मादा पक्षी की चीत्कार गगन को चीरती हुई गूंजी। वह पीड़ा, वह विलाप किसी शास्त्र, किसी वेद में वर्णित नहीं थी। वह स्वर सीधा हृदय में उतर गया। और तभी महर्षि वाल्मीकि के मुख से एक तीव्र वाक्य निकला "हे निषाद! चूँकि तुमने प्रेम में रत इस पक्षी का वध किया है, अतः तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी!”

यह वाक्य, यह श्राप... स्वयं वाल्मीकि के लिए भी चौंकाने वाला था। उन्होंने कभी क्रोध नहीं किया था, वे कर्म के ज्ञाता थे। फिर उनके मुख से यह श्राप कैसे निकला? वाल्मीकि जी वापस आश्रम लौटने पर उन्होंने यह बात अपने शिष्य भारद्वाज को बताई। और तब भारद्वाज ने विनम्रता से कहा, “गुरुदेव, यह वाक्य साधारण नहीं है। यह छंदबद्ध है, इसकी लय है, इसकी गति है। यह श्लोक है!”महर्षि विचार में डूब गए, फिर बोले “यह तो अद्भुत छंद है! चार चरणों में विभक्त, प्रत्येक में आठ-आठ अक्षर। यह तो गेय है, काव्य है!” और तभी उन्होंने घोषणा की “यह श्लोक है। और यह आदि श्लोक कहलाएगा संसार का प्रथम छंदबद्ध काव्य।”

किन्तु उस श्लोक का अर्थ उन्हें अब भी व्यथित करता रहा। क्या वे केवल एक क्रोधित श्राप के माध्यम से कवि बने? तभी स्वयं ब्रह्मा उनके समक्ष प्रकट हुए। ब्रह्मदेव ने मुस्कराते हुए कहा, “हे वाल्मीकि! यह श्लोक केवल श्राप नहीं है। यह करुणा की गहराई से निकली वह ध्वनि है जो श्रीराम की कथा का द्वार खोलेगी। इस श्लोक में छिपे हैं कई अर्थ एक रावण के दृष्टिकोण से, एक सीता के विरह से, और एक श्रीराम की विजय से।”और तब ब्रह्मा ने उन्हें श्लोक के अन्य गूढ़ अर्थ बताए:

  हे रावण!  तुमने देवी सीता को श्रीराम से अलग किया, तुम अपने वरदानों से भी वंचित रहोगे।

 हे श्रीराम! चूँकि आपने वासना में डूबे रावण का वध किया, आप अनंत काल तक प्रतिष्ठा को प्राप्त होंगे। यह जानकर महर्षि वाल्मीकि का मन शांत हुआ। अब वह कवि थे, और उन्हें अपना विषय भी मिल गया था श्रीराम। ब्रह्मा की आज्ञा से, नारद की प्रेरणा से, और अपनी करुणा से प्रेरित होकर उन्होंने रच डाली रामायण 24000 श्लोकों में पिरोई गई वह अमर कथा, जो युगों-युगों तक धर्म का दीपक जलाती रहेगी।

वाल्मीकि न केवल इस ग्रंथ के रचयिता बने, अपितु स्वयं श्रीराम उनके आश्रम पधारे और माता सीता को उनके संरक्षण में रखा। उन्हें श्रीराम की संतानों लव और कुश को शिक्षा देने का सौभाग्य मिला, और अंततः वही रामकथा उन्होंने राम के पुत्रों से गवाकर, अयोध्या दरबार में गूँजाई।

इस प्रकार, एक क्षण का करुण विलाप एक युगांतकारी काव्य का बीज बन गया। रामायण केवल एक कथा नहीं है वह ऋषि के करुणा में जागे धर्म का जीवंत प्रमाण है। और वह श्लोक, जो एक पक्षी की मृत्यु पर निकला, मानवता के जीवन को दिशा देने वाला दीपक बन गया।



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