विनोद कुमार झा
भारत की पौराणिक परंपरा केवल देवताओं और असुरों के संघर्ष की कहानी नहीं है, बल्कि यह विविध जातियों, रहस्यमयी प्राणियों और आध्यात्मिक प्रतीकों से भरी हुई है। राक्षस, पिशाच और बेताल जैसी जातियाँ इनमें से कुछ हैं, जो हमें यह बताती हैं कि धर्म और अधर्म के बीच की रेखाएँ हमेशा स्पष्ट नहीं होतीं , कई बार वे एक-दूसरे से जुड़ी हुई होती हैं। धर्मग्रंथों के अनुसार पिशाच का मुख्य उद्देश्य मानवों को मानसिक और शारीरिक रूप से नुकसान पहुँचाना होता है। बेताल भी मृतकों की आत्माएँ होती हैं, लेकिन वे पिशाचों से अलग होते हैं। बेताल अक्सर पेड़ों पर उल्टा लटके रहते हैं लेकिन पौराणिक कथाओं में वे बुद्धिमानी और चालाकी के प्रतीक माने जाते हैं।
लंका युद्ध और राक्षसों का अंत : रामायण के युद्ध में रावण के वध के साथ लंका के अधिकांश राक्षस योद्धा मारे गए। केवल विभीषण को जीवनदान मिला, जो रावण के विरोध में धर्म के पक्ष में खड़े थे। लेकिन राक्षस जाति का अंत वहीं नहीं हुआ। यह जाति हजारों वर्षों तक भारत की कथाओं और किवदंतियों में जीवित रही।
राक्षस कौन थे?
‘राक्षस’ शब्द का प्रयोग मूलतः एक जाति विशेष के लिए किया गया है, जो महर्षि पुलस्त्य के वंशज माने जाते हैं। ये अत्यंत बलशाली, मायावी और कभी-कभी धर्म के विरुद्ध चलने वाले भी होते थे, परंतु सभी राक्षस अधर्मी नहीं थे। विभीषण और हिडिम्बा जैसे उदाहरण हमें यह बताते हैं कि राक्षसों में भी धर्मप्रिय और पुण्यात्मा हो सकते थे। असुर देवताओं के विरोधी माने जाते हैं। वे प्राचीन हिंदू ग्रंथों में शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी प्राणी के रूप में वर्णित हैं। असुरों का मुख्य उद्देश्य देवताओं के साथ संघर्ष करना और स्वर्ग पर अधिकार करना होता है। वे अक्सर अंधकार और अज्ञानता के प्रतीक माने जाते हैं। असुर पाताल लोक में रहते हैं। ऋषि कश्यप की 13 पत्नियां थीं, उनमें से दीति को सुर-असुर की माता के रूप में जाना जाता है। राक्षस, यक्षों के सौतेले भाई हैं। वे ऋषि विश्रवा और उनकी पहली पत्नी से पैदा हुए थे और उनके पुत्रों में रावण सबसे बड़ा था। राक्षस पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी होते हैं, जो मानवों और संतों को परेशान करते हैं और उन्हें खा भी जाते है। वे अक्सर भयानक और हिंसक होते हैं और उनका मुख्य उद्देश्य मानवों को डराना और नुकसान पहुँचाना होता है। वैसे, महाभारत में हिडिम्बा और घटोत्कच जैसे राक्षसों का वर्णन भी मिलता है, जो बहुत अच्छे थे और महाबली भीम से जुड़े हुए थे।
पिशाच: रात्रि के रक्तपिपासु प्राणी, पिशाचों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप और दक्ष कन्या क्रोधवर्षा से हुई मानी जाती है। क्रोधवर्षा से ही सर्पों, विषैले जीवों और पिशाचों का जन्म हुआ। पिशाच पूर्ण रूप से निशाचर माने जाते हैं यानी ये केवल रात्रि में ही सक्रिय होते थे। इनकी प्रवृत्ति मांसाहारी, रक्तपान करने वाली और भयावह होती थी। पिशाच मृतकों की आत्माएँ होती हैं, जो अक्सर श्मशान घाटों में रहते हैं। पिशाचों का मुख्य उद्देश्य मानवों को मानसिक और शारीरिक रूप से नुकसान पहुँचाना होता है। ये इच्छाधारी होते थे और किसी भी रूप को धारण करने में सक्षम थे। भारतीय पिशाचों की तुलना पश्चिमी संस्कृति के "वैम्पायर" से की जा सकती है, परंतु पिशाच केवल राक्षसी प्रवृत्ति नहीं, बल्कि रहस्यमयी ज्ञान और शक्ति के धारक भी माने जाते थे।
बेताल: पिशाचों के राजा और शिवगण , बेताल शब्द आते ही विक्रम-बेताल की कहानियाँ याद आ जाती हैं, लेकिन इनका वर्णन उससे कहीं अधिक गहरा और रहस्यमय है। बेतालों को पिशाचों का अधिपति कहा गया है ये उन पिशाचों में से थे जो सबसे अधिक शक्तिशाली, ज्ञानी और रहस्यमयी थे। बेताल भी मृतकों की आत्माएँ होती हैं, लेकिन वे पिशाचों से अलग होते हैं। बेताल अक्सर पेड़ों पर उल्टा लटके रहते हैं लेकिन पौराणिक कथाओं में वे बुद्धिमानी और चालाकी के प्रतीक माने जाते हैं। आपने विक्रम-बेताल की कहानी तो सुनी ही होगी। कई पुराणों और शैव ग्रंथों में बेतालों को भगवान शिव के गण के रूप में वर्णित किया गया है। कुछ मान्यताओं के अनुसार वे शिव के वाहन के रूप में भी कार्य करते थे। काल भैरव के साथ उनका संबंध बहुत निकट बताया गया है, और यही कारण है कि बेताल की उपासना तांत्रिक परंपरा में भी प्रमुख स्थान रखती है।
गोवा के "अमोना" गांव में स्थित "बेताल स्वामी मंदिर" इस परंपरा का जीवंत प्रमाण है। यहाँ बेताल की पूजा आज भी जीवंत रीति से होती है, जहाँ उन्हें गाँव का रक्षक और न्यायाधीश माना जाता है। एक विशेष शाखा “अग्नि बेताल” की भी मानी गई है, जो माता काली के भक्त होते थे और विशेष रूप से विनाश और रक्षा के कार्यों में नियुक्त माने जाते हैं।
मानवों और असुर जातियों के विवाह संबंध : पुराणों में यह भी उल्लेख मिलता है कि असुर जातियाँ केवल एकांत में नहीं रहीं उनका मानव जाति से भी गहरा संबंध रहा।
- दानवराज वृषपर्वा की पुत्री "शर्मिष्ठा" का विवाह मानव राजा "ययाति" से हुआ था। उनके वंश से कई प्रमुख राजवंश उत्पन्न हुए।
- राक्षसी "हिडिम्बा" का विवाह महाबली भीम से हुआ और उनके पुत्र घटोत्कच ने महाभारत में वीरता का परिचय दिया।
- भगवान श्रीकृष्ण के पड़पोते 'वज्र " की माता भी दैत्य वंश से थीं।
इस प्रकार राक्षस, दैत्य और दानवों की कन्याएँ अनेक बार मानव वंश में प्रविष्ट हुईं और उनके वंशजों ने धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित किया।
पौराणिक कथाओं के ये पात्र केवल डरावनी कहानियों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे हमारी सांस्कृतिक चेतना और धर्म-दर्शन का हिस्सा हैं। पिशाचों की निशाचर शक्तियाँ, बेतालों की तांत्रिक सत्ता और राक्षसों की विविधता इस बात का प्रमाण हैं कि भारतीय पौराणिक परंपरा कितनी गहराई और विविधता लिए हुए है।