विनोद कुमार झा
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में हालिया सांप्रदायिक हिंसा और उसके बाद सैकड़ों परिवारों का पलायन, भारत के लोकतांत्रिक और सामाजिक ताने-बाने पर गहरा प्रहार है। वक्फ संशोधन अधिनियम को लेकर उत्पन्न असंतोष ने जिस तरह हिंसक और विभाजनकारी रूप ले लिया, वह केवल कानून-व्यवस्था की विफलता नहीं है, बल्कि राजनीतिक स्वार्थों के लिए जनभावनाओं के दोहन का दुखद उदाहरण भी है।
जब किसी समुदाय के भीतर यह डर घर कर जाए कि वह अपने ही देश में असुरक्षित है, तब लोकतंत्र की आत्मा कराह उठती है। मुर्शिदाबाद से भागते हुए परिवारों के दृश्य, मालदा के स्कूलों में शरण लिए लोगों की आंखों में डर और भविष्य की अनिश्चितता ये सब उस भारत की कल्पना को झकझोरते हैं जो समानता, सहिष्णुता और सांप्रदायिक सौहार्द का सपना देखता रहा है। प्रशासन यह दावा कर रहा है कि राहत कार्य तत्परता से किए जा रहे हैं, लेकिन असल सवाल यह है कि हालात को इस मोड़ तक आने ही क्यों दिया गया? वक्फ अधिनियम में संशोधन को लेकर जो भ्रम और आक्रोश फैला, उसे समय रहते संवेदनशीलता और संवाद से संभाला जा सकता था। अफसोस की बात यह है कि इस मुद्दे ने कट्टरपंथी ताकतों को और अधिक उभारने का अवसर दे दिया।
राजनीतिक दलों ने इस त्रासदी को अपने-अपने एजेंडे के लिए उपयोग करना शुरू कर दिया। कहीं तुष्टीकरण का आरोप लगाया गया, तो कहीं धार्मिक भावना भड़काने की कोशिशें हुईं। यह पूरा घटनाक्रम दर्शाता है कि हमारे राजनीतिक विमर्श में कितनी अधिक संवेदनहीनता और विचारहीनता भर चुकी है।लेकिन एक मूल बात पर ज़ोर देना आवश्यक है सरकार के खिलाफ विरोध और असहमति लोकतंत्र की आत्मा है, परंतु वह विरोध केवल संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीके से ही किया जाना चाहिए। किसी कानून का विरोध करने के नाम पर हिंसा, आगजनी, और एक विशेष समुदाय जैसे कि हालिया घटनाओं में हिंदू समुदाय को निशाना बनाना, न केवल घातक है, बल्कि संविधान के मूल्यों के भी विरुद्ध है।
क्या दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में कानूनों में संशोधन नहीं होते? भारत में भी विभिन्न अधिनियम समय-समय पर बदले जाते रहे हैं। यह प्रक्रिया यदि पारदर्शी, समावेशी और संवेदनशील हो, तो समाज को जोड़ती है, तोड़ती नहीं। लेकिन यदि ऐसे फैसलों को थोपने की कोशिश की जाती है, या बिना पर्याप्त संवाद के लागू किया जाता है, तो यह समाज के भीतर असंतोष को जन्म देगा ही।
कुछ नेताओं द्वारा दिए गए भड़काऊ बयान, जैसे कि दलित हिंदुओं की हत्या के आरोप, स्थिति को और अधिक विषाक्त बना सकते हैं। वहीं झारखंड जैसे राज्यों से विरोध के स्वर यह भी दर्शाते हैं कि केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय की कितनी बड़ी कमी है। इस समय आवश्यकता थी कि सभी राजनीतिक दल एकजुट होकर शांति बहाली की दिशा में काम करें, लेकिन दुर्भाग्यवश, विपरीत राजनीति ने हालात को और अधिक उलझा दिया। कांग्रेस द्वारा सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग एक सकारात्मक पहल ज़रूर है, लेकिन उसकी सार्थकता तभी होगी जब सभी पक्ष ईमानदारी और गंभीरता से उसमें भाग लें। यह क्षण केवल राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का नहीं, बल्कि मानवीय जिम्मेदारी का है।
मीडिया की भूमिका भी इस समय अत्यंत महत्वपूर्ण है। रिपोर्टिंग का उद्देश्य जनभावनाओं को भड़काना नहीं, बल्कि उन्हें शांत करना और सत्य के माध्यम से समाधान की दिशा में ले जाना होना चाहिए। अफवाहों और नफरत के सौदागरों से सावधान रहना आज केवल नैतिक नहीं, राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी बन गई है। मुर्शिदाबाद की आग केवल बंगाल की नहीं, भारत की चेतावनी है। अगर अभी भी हमने संवाद, संयम और समावेशिता को प्राथमिकता नहीं दी, तो यह आग किसी भी कोने में दोबारा भड़क सकती है। हमें यह तय करना होगा कि हम किस भारत की ओर बढ़ना चाहते हैं वह जो टुकड़ों में बंटा हुआ है, या वह जो विविधताओं के बीच एकता का उजाला लिए आगे चलता है।