लेखक : विनोद कुमार झा
(एक प्रेम और स्मृतियों से भरी कहानी)
शहर की चकाचौंध भरी जिंदगी में जब भी सांसें घुटने लगतीं, दिल बेचैन हो उठता तब न जाने कैसे, गांव की पगडंडियां, बुढ़िया मां की झुर्रीदार हथेलियां और आम के बागों की महकती छाया आंखों के आगे घूमने लगती थी। उस दिन भी ऐसा ही हुआ था। ऑफिस की खिड़की से बाहर झांकते हुए, धूप के तेज थपेड़ों से झुलसते हुए अचानक मन कहीं और उड़ गया।मोबाइल पर मां का संदेश आया था , "बेटा, खेतों में आम पक गए हैं। सब इंतजार कर रहे हैं तेरे आने का।" एक वाक्य… और जैसे बरसों पुरानी नदी फिर से बह चली। मन ने निर्णय कर लिया चलो गांव।
रेलवे स्टेशन की भीड़, डिब्बे की गरमी, चायवालों की आवाजें… सब कुछ भीड़भाड़ वाला था, पर मन भीतर ही भीतर हल्का होता जा रहा था। जैसे-जैसे ट्रेन गांव के करीब पहुंचती, खेतों की हरियाली, छोटे-छोटे तालाब, बगुलों की कतारें सब कुछ दिल में मिठास घोलने लगा।
गांव का नाम आते ही ट्रेन रुकी, और मैं उतरा वही पुरानी मिट्टी की महक, वही धीमी सी हवा में ताजगी। स्टेशन पर भैया खड़े थे, साइकिल से। "चल छोटे, जल्दी कर! मां तो चूल्हे पर बैठी इंतजार कर रही है।" मैं हंस पड़ा। वही अपनापन, वही अंदाज। घर पहुंचते ही आंगन से मां की आवाज आई "आ गया मेरा लाल!"
बुढ़िया मां अब बाल सफेद हो चले थे, कमर भी झुक गई थी, पर आंखों की चमक आज भी वही थी। उन्होंने जैसे ही मुझे बाहों में भरा, एक अजीब सी गर्मी दिल में भर गई।
मां की उंगलियों से मिट्टी की, मसालों की, आम की गंध आती थी जैसे सारा गांव समाया हो।
"तेरे लिए गुड़ का हलवा बनाया है, वही जो तू बचपन में खा जाता था चुपके से।" मैं मुस्कुराया, आंखों में नमी लिए।
खाना खाने के बाद भाई, बहनें और छोटे-मोटे रिश्तेदार इकट्ठा हो गए। "चलो बगीचे में चलते हैं, वही पुराना खेल लुकाछिपी!" सब उछल पड़े।
गांव के बाहर वही पुराना आम का बगीचा था। पेड़ों की शाखाएं झुककर जैसे स्वागत कर रही थीं। पेड़ के पीछे छुपना, भागना, पकड़ना, हंसते-हंसते गिर जाना जैसे बचपन के वो दिन वापस आ गए।
मिट्टी से सने कपड़े, आम के रस से भरे हाथ, और हंसते-खिलखिलाते चेहरे…
वह बगीचा केवल आमों का नहीं था वह हमारी आत्मा का हिस्सा था। शाम ढलने लगी थी। अंदर घर के बड़े आंगन में दीया जलाया गया। दादी बैठी थीं बुनाई करते हुए। दादा चौपाल से लौट आए थे, लाठी टेकते हुए।
"आ गए बाबू!" दादा की आवाज में अब भी गूंज थी। दादी ने माथे पर हाथ फेरा और आशीर्वाद दिया "चिरंजीवी हो, खुश रहो।" उनके पैरों में झुकते ही ऐसा लगा जैसे धरती ने अपने आप को समेटकर गले लगा लिया हो। बुढ़िया दादी की सिलाई की बातें, दादा के पुराने किस्से कहानी दर कहानी निकलती रही।
रात को चाचा चाची भी आए। चाचा ने टपकते हुए कहा, "बड़ा आदमी बन गया हमारा छोटा! पर अब भी वही शरारती आंखें हैं।" चाची रसोई से पकवान निकाल लाईं पूरियां, सब्जी, हलवा, खीर… "खा ले बेटा, शहर में ऐसा खाना कहां मिलेगा!" चाचा ने पुराने दिनों की बातें छेड़ीं कैसे खेतों में नंगे पांव भागते थे, कैसे तालाब में कूद जाते थे। हंसी से आंगन गूंज उठा।
भोर का समय था। सब भाई-बहन आंगन में बैठे थे, एक गोल घेरे में। चाय के कुल्हड़, गुड़, मुरमुरा, और चने बिखरे थे। बातें शुरू हुईं स्कूल की शरारतें, नहर के किनारे की चुहलें, पेड़ों से अमरूद चुराना, मेले की रंगीनियत।
बड़ा भाई बोला , "याद है, तू सबसे छोटा था, फिर भी सबसे ज्यादा दिमाग चलाता था!" मैंने हंसते हुए सिर झुका लिया।
छोटी बहन बोली, "और हम सबको पटाकर, अकेले ही आम तोड़ लेता था!" सब हंसने लगे। यह मिलन किसी त्योहार से कम नहीं था। एक अजीब सी तृप्ति थी, जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता।
अगले दिन गांव की गलियों में घूमने निकला। कच्ची सड़कें, मिट्टी की दीवारें, कुएं, पीपल का पेड़, मंदिर की घंटियां सब वैसे के वैसे थे। कहीं बच्चे खेल रहे थे, कहीं बुढ़े चौपाल लगाए हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। कहीं से जय श्रीराम की आवाजें आ रही थीं। हर गली एक कहानी थी, हर दीवार एक स्मृति थी। जैसे पूरा गांव एक जीवंत कविता बन गया हो।
कुछ दिन बाद वापस लौटने का समय आ गया। मां ने आंखों में आंसू छुपा लिए। भैया ने बैग कंधे पर रखा और चुपचाप साथ चला। बुढ़िया मां ने विदा करते वक्त बस इतना कहा "खुश रहना बेटा, जब दिल करे, लौट आना। हम यहीं हैं।" मैंने सिर झुकाकर प्रणाम किया और चल पड़ा।
पीछे मुड़कर देखा आम का बगीचा, मिट्टी की खुशबू, मां के आंसू, दादी की आंखों की दुआएं सब मेरे साथ थे, सदा के लिए।
आज भी जब आंखें बंद करता हूं तो वही बुढ़िया मां की आवाज सुनाई देती है, वही आम के बगीचे की छांव महसूस होती है। गांव कहीं बाहर नहीं है वह मेरे भीतर है। वह बचपन की नमी, मां के हाथों की गर्मी, दादा-दादी के आशीर्वाद, चाचा-चाची के स्नेह, और भाई-बहनों की हंसी में हर पल जीवित है। गांव एक भूगोल नहीं है, गांव दिल का एक टुकड़ा है, जिसे मैं हर धड़कन के साथ जीता हूं।
रात को खाना खाने के बाद आंगन में चारपाइयों पर बैठना तय था। आसमान में तारों की चादर फैली थी। दूर कहीं किसी गांव से ढोलक की थाप सुनाई दे रही थी। बुढ़िया मां ने सिर पर ओढ़नी डालते हुए कहा , "आ जा बेटा, आज भी सुन ले वही पुरानी कहानी।"
मैं मां के पास बैठ गया। मां ने झुर्रीदार हाथों से मेरे बालों में उंगलियां फिराते हुए कहना शुरू किया, "बहुत दिन पहले की बात है... एक छोटा सा गांव था, उसमें एक नन्हा सा लड़का रहता था, बड़ा चंचल, बड़ा प्यारा…"
मां की कहानी में उस लड़के में मैं खुद को देख रहा था। मां के शब्दों में जैसे मिट्टी की खुशबू थी, चूल्हे की गरमाहट थी, आम के पेड़ों की छाया थी। आधी कहानी सुनते-सुनते नींद की रेशमी चादर लिपट गई और मां प्यार से सिर सहलाती रहीं। उनका वो स्नेह, वो स्पर्श ऐसा था जिसे वक्त भी मिटा नहीं सकता।
अगले दिन गांव में मेला था साल में एक बार लगने वाला, जिसे बचपन से देखने का सपना पलकों में पलता था।
चाचा ने कहा, "चलो, चलो, मेला देखने चलें!"मेले में घुसते ही रंगों का समंदर दिखा झूले झूल रहे थे, भोंपू बज रहे थे, गुब्बारे उड़ रहे थे। आम के अचार, मिट्टी के खिलौने, लकड़ी के बने बैलगाड़ी, और बच्चों के लिए रंगीन चूड़ियां, सब कुछ था।
मैंने एक छोटी बच्ची को देखा जो लकड़ी का घोड़ा खरीदने के लिए जिद कर रही थी वही घोड़ा बचपन में मैंने भी खरीदा था। मन किया, जाकर उसके लिए खरीद दूं। मेले में घूमते-घूमते, गुड़ की जलेबी खाते-खाते, अचानक एक पुराना झूला दिखा लकड़ी का, जिसे हाथ से घुमाया जाता था।
भाई लोगों ने जबरदस्ती बैठा दिया और हम सब फिर उसी तरह खिलखिला कर हंसने लगे जैसे कोई भी बड़ा नहीं हुआ हो।
अचानक आसमान में बादल घिर आए। हवा में मिट्टी की भीनी गंध फैल गई। बारिश की पहली बूंद गिरी और पूरा गांव झूम उठा। बच्चे गलियों में नाचने लगे। तालाब किनारे पानी में छपछपाते हुए भागे। मैं भी भूल गया कि मैं शहर का आदमी बन गया हूं मैं भी नंगे पांव खेतों में दौड़ पड़ा।
खेतों में मिट्टी से सने पांव, गीली घास की महक, और बारिश की ठंडी बूंदों की छुअन ने बचपन लौटा दिया।
चाचा हंसते हुए बोले , "अबे शहर वाले बाबू, बचपन का पानी भी बरसात में भीगता है क्या?" और सब ठहाके मारकर हंस पड़े।
बारिश रुकने के बाद हम खेतों की तरफ निकल पड़े। धान के छोटे-छोटे पौधों के बीच पगडंडी थी, जिस पर हम नंगे पांव चलते गए। गन्ने के खेतों में से गन्ना तोड़ते हुए चाचा बोले , "ले बेटा, अपने दांत आजमाकर देख, गांव का असली स्वाद यही है।"
सांझ ढलने पर घर लौटे तो चूल्हे पर मां और चाची रोटियां सेंक रही थीं। मिट्टी के चूल्हे में जलती लकड़ियों की महक, धुएं की हल्की गंध, और रोटियों पर घी की धार देख कर भूख और तेज हो गई थी।
मां ने गरम रोटियों में गुड़ का टुकड़ा लपेट कर दिया, "खा ले बेटा, गुड़ के साथ रोटी खाएगा तो शहर की सब मिठाइयां भूल जाएगा।" सच में, उस एक रोटी ने सारी दुनिया के स्वाद को फीका कर दिया।
गांव के उन दिनों में हर पल जैसे आत्मा को कोई नया रंग देता था। सुबह पक्षियों की चहचहाहट से जागना, दोपहर में पीपल के नीचे सुस्ताना, शाम को दीये की लौ देखना, और रात में तारों के नीचे सपने बुनना , सब कुछ इतना जीवंत था कि लगता था जैसे मैं फिर से जीने लगा हूं।
शहर की मशीनों भरी जिंदगी में जहां इंसान घड़ी के कांटे के पीछे दौड़ता है, वहां गांव में वक्त ठहर जाता था , सिर्फ रिश्ते, खुशबू, मिट्टी और प्रेम ही चलायमान रहते थे।
फिर वही विदाई का दिन आ गया। रेलवे स्टेशन पर चाचा, भैया, मां, दादी सब आए थे। गले लगते ही मां की आंखों से एक आंसू टपका और मेरे गाल पर गिरा। "जा बेटा, पर जब दिल थक जाए, तो लौट आना। गांव तेरा इंतजार करेगा।" मां ने कहा।
ट्रेन के चलते ही देखा सब लोग हाथ हिला रहे थे, मिट्टी की महक हवाओं में तैर रही थी, और आम का बगीचा दूर तक विदा कर रहा था।
गांव की यात्रा एक भौतिक यात्रा नहीं थी, वह आत्मा की वापसी थी। वह अपने जड़ों से मिलने की खुशी थी। वह बचपन को फिर से जीने का अवसर था। वह मां के हाथों के स्पर्श, बगीचे की छांव, और दादी की दुआओं से सजी एक अदृश्य गठरी थी जिसे मैं दिल में सहेज कर ले आया था।
आज भी जब शहर की भीड़ में गुम हो जाता हूं, तो आंखें बंद कर लेता हूं। मां की पुकार, आम की खुशबू, बारिश की बूदें, चूल्हे की गर्मी, और गांव की गलियां सब लौट आती हैं। क्योंकि गांव एक जगह नहीं गांव मेरी आत्मा का सबसे सुंदर हिस्सा है।