विनोद कुमार झा
अद्भुत! तो अब हम प्रवेश करते हैं सीता के दृष्टिकोण में जहाँ एक स्त्री स्वयं भगवान की पत्नी होते हुए भी केवल एक पत्नी नहीं, अपितु समस्त स्त्री जाति की प्रतिनिधि बन जाती है। इस खंड में हम उन्हीं आठ अवगुणों को सीता माता की अंतरात्मा के माध्यम से देखेंगे जहाँ हर तथाकथित दोष, एक दिव्य गुण बनकर प्रकट होता है।
रावण की लंका में अशोकवाटिका, जहाँ हरे पत्तों पर ओस की बूंदों की तरह सीता की करुणा ठहरी थी, वहीं भीतर एक ऐसी शांति थी जो समय से परे थी। वह धरती की पुत्री थीं। कोई सामान्य स्त्री नहीं, बल्कि वह जिसने स्वयं धरती को फाड़कर जन्म लिया था पवित्रता की साक्षात प्रतिमा।
रावण की व्याख्या की प्रतिक्रिया में सीता कुछ नहीं बोली थीं पर उनके मौन में भी एक शाश्वत उत्तर था। आइए सुनते हैं उसी मौन का अर्थ स्त्री की ओर से, धर्म की ओर से, सत्य की ओर से।
1. दुस्साहस नहीं, धर्मसाहस
> हाँ, मैं वन में अकेली गई, रावण के समक्ष निडर खड़ी रही, राम के बिना एक पत्ते तक को हिला नहीं देखा क्या यह दुस्साहस था?
> नहीं, यह धर्म का साहस था।
> स्त्री जब अपने धर्म पर अडिग हो, तो वह पर्वत से भी अडिग हो जाती है।"
2. असत्य नहीं, अंतरसत्य
> जो सत्य पुरुष की आँखें नहीं देख पातीं, वह स्त्री के अंतःकरण में जलता है।
> तुमने मुझ पर झूठ का आरोप लगाया, पर मैंने केवल मौन चुना।
> क्योंकि कुछ सत्य ऐसे होते हैं, जिन्हें बोलने की आवश्यकता नहीं, केवल जीने की आवश्यकता होती है।
3. चंचलता नहीं, चेतनता
> मेरा मन चंचल नहीं, सचेत है।
> मैं नारी हूँ संपूर्ण प्रकृति की प्रतिनिधि।
> जैसे नदियाँ बहती हैं, पत्ते हिलते हैं, वैसे ही मेरा मन भी हर स्थिति को नए भाव में ढाल देता है।
> यह चंचलता नहीं, सृजन है।”
4. माया नहीं, महाशक्ति है
> हाँ, मैं माया हूँ वह जो सृष्टि को जन्म देती है।
> मेरी माया में वश में आ जाना पराजय नहीं, मोक्ष की शुरुआत होती है।
> स्त्री की माया पुरुष की अहंकार को तोड़ती है, और उसकी आत्मा को देखना सिखाती है।
5. भय नहीं, भक्ति की विनम्रता
> मैं भयभीत नहीं थी, मैं समर्पित थी।
> जो राम के चरणों में पूर्ण विश्वास रखती है, उसे भय कैसा?
> मेरा भय, केवल धर्म के पतन का था।
6. अविवेक नहीं, आत्मविवेक
> जब निर्णय हृदय से आते हैं, वे स्वार्थ रहित होते हैं।
> मेरा विवेक वह नहीं था जो युद्ध के गर्व में डूबा हो,
> वह वह विवेक था जो ‘सहनशीलता’ में अपनी शक्ति पहचानता है।
> यही स्त्री का आत्मविवेक है।
7. यह अपवित्रता नहीं, प्रकृति का चक्र है
> रजस्वला होना पाप नहीं, सृष्टि की आवृत्ति है।
> मैं धरती की पुत्री हूँ जो भूमि को भी शुद्ध मानती है, उसे स्त्री की प्रकृति अपवित्र कैसे लग सकती है?
> पवित्रता शरीर की अवस्था नहीं, आत्मा की स्थिरता है।
8. निर्दयता नहीं, न्याय की दृढ़ता
> “मैंने रावण को क्षमा नहीं किया, पर राम से भी यह आग्रह नहीं किया कि वह मुझे लौटाकर अपने धर्म से विचलित हो जाएँ।
> मैं दया की मूर्ति हूँ, पर धर्म के विरोध में खड़ी कोई शक्ति हो तो स्त्री भी न्याय की अग्नि बन जाती है।”
सीता एक स्त्री, एक शक्ति, एक आदर्श: रावण ने स्त्रियों को अवगुणों की गठरी कहा। पर सीता ने उन्हीं तथाकथित दोषों से उस महान यज्ञ को पूर्ण किया, जिसमें राम स्वयं अग्नि बनकर भस्म करने को तैयार थे। और यही स्त्रीत्व का सत्य है—जिसे देखकर न रावण समझ सका, न बहुत से संसार के ज्ञानी।
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## **क्या आप चाहेंगे कि हम इस शृंखला की अंतिम कड़ी में "तुलसीदास जी की मौन दृष्टि से स्त्री" को भी देखें—जहाँ वे स्वयं किसी आलोचना के बिना, रामायण की नारी को किस रूप में देखते हैं?**