कहानी : आसमां से गिरते अंगारे

 विनोद कुमार झा


एक सच्चाई जो हर माँ के आँचल को छेद सकती है। कभी-कभी कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो पूरे समाज के सामने एक सवाल छोड़ जाती हैं क्या रिश्तों की नींव वाकई प्रेम होती है, या बस स्वार्थ की मिट्टी में गड़ी एक परंपरा? यह कहानी एक ऐसी माँ की है जिसने हर साँस बेटे के नाम कर दी, और अंत में उसी बेटे ने उसे मौत के घाट उतार दिया।  

कहानी अमरपुर गाँव से शुरू होती है, जहाँ अब भी लोग आँखों में राधा देवी की छवि और कानों में उसकी अंतिम चीख़ें लिए घूमते हैं। राधा देवी एक सीधी-सादी, धूप में झुलसी हुई और झुर्रियों से सजी स्त्री थीं। उनका चेहरा किसी ठंडी सुबह की तरह था कोमल और गहरा। पति बचपन में ही चल बसे थे और तब से उनकी सारी दुनिया उनके बेटे मोहित में सिमट गई थी।  

"मोहित मेरा सूरज है। अब चाहे बारिश हो या तूफान, मैं अपना आँगन सूखा रखूँगी उसके लिए," वह अक्सर कहती थीं।  बचपन में मोहित बहुत मासूम था। माँ की गोदी ही उसका स्वर्ग थी। पर गरीबी के कारण वह ठीक से स्कूल नहीं जा सका। पाँचवीं के बाद पढ़ाई छूट गई, और वह खेतों में माँ का हाथ बँटाने लगा।  राधा देवी अपने हिस्से की रोटी कम करके बेटे को खिलातीं, नए कपड़े अपने लिए कभी सिलवाए नहीं, और रातों में स्वेटर बुनतीं बगैर यह देखे कि उनकी आँखें अब कमज़ोर पड़ चुकी हैं।

समय बीता और मोहित को पास के शहर में एक फैक्ट्री में नौकरी मिली। माँ की आँखों में गर्व के आँसू थे "अब मेरा बेटा कमाने लगा है, अब हमारी ज़िंदगी बदल जाएगी।" शुरू में मोहित हर महीने पैसे भेजता। घर आता, माँ के पाँव छूता, बाज़ार से साड़ी लाता और मुस्कराता हुआ कहता "माँ, अब तेरी तक़दीर बदलेगी।"  पर शहर की हवा हर रिश्ते को धीरे-धीरे खोखला कर देती है।  

मोहित को दोस्तों की संगत में नशा मिला, मोबाइल का नशा, सोशल मीडिया की दुनिया और उस तात्कालिक सुख का स्वाद, जहाँ माँ की झुर्रियाँ बेमानी लगती थीं। माँ जब फोन करती, वह व्यस्तता का बहाना बनाता। कभी-कभी तो फोन उठाता ही नहीं।

राधा देवी हर शनिवार दरवाज़े की ओर तकतीं "शायद आज मोहित आ जाएगा।"  वह उसके पसंदीदा आलू की सब्ज़ी बनाकर रखतीं, और फिर सूनी आँखों से थाली समेट लेतीं आस-पड़ोस में अब फुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं "मोहित बिगड़ गया है। माँ से पैसे ही माँगता है।"  

एक दिन सावित्री बाई ने साफ कहा,  "बहन, अब तू भी समझ जा। जिन बच्चों को हम प्यार में डुबो देते हैं, वही हमें डूबो देते हैं।" लेकिन राधा देवी का विश्वास अब भी अडिग था"नहीं, मेरा मोहित ऐसा नहीं है। वो बस फँस गया है किसी मुसीबत में।"

एक रात मोहित अचानक घर आया।  शरीर से शराब की गंध, आँखों में लाली और जेब में खालीपन था।  “पैसे दे माँ… अभी चाहिए।”  “बेटा, तेरे नाम का सब कुछ दे चुकी हूँ, अब बस यही थोड़ा बहुत रखा है…”  “ झूठ बोलती है! मेरे ही पैसे छुपा रही है!”  राधा डर गईं। सामने टंगी भगवान की तस्वीर की ओर देखा। हाथ जोड़कर बोलीं,  “ मोहित, तू जो माँग रहा है, वो मैं नहीं दे सकती।”  

और तभी… लकड़ी काटने वाली कुल्हाड़ी उठी, और कुछ ही क्षणों में झोपड़ी में खून की लकीर बन गई। पड़ोसी दौड़कर आए।  राधा देवी ज़मीन पर गिरी थीं, खून से सना आँचल, काँपते होंठों से बस एक वाक्य, बोली “क्या यही होता है जब माँ जीना छोड़ देती है, बेटे के लिए?”उनकी आँखें खुली थीं, पर अब उनमें कोई जीवन नहीं था।  

मोहित को गिरफ्तार किया गया। उसने कोई विरोध नहीं किया। थाने में बस इतना कहा,  “जो मैंने किया, शायद सही नहीं था। पर मुझे ग़लत बनने में माँ की ही तो भूमिका थी।” अदालत में मामला चला।  गाँव वाले गवाही देने को आगे आए, और हर किसी की आँखों में एक ही सवाल,  "क्या सिर्फ माँ बनने से मातृत्व सिद्ध हो जाता है?"

आज राधा देवी की कब्र पर हर साल कुछ फूल रखे जाते हैं।  लेकिन असली श्रद्धांजलि वह बहस है जो हर घर में शुरू हो चुकी है,   क्या हम अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए सब कुछ देते हैं क्योंकि हमने उन्हें जन्म दिया?  

क्या कोई सीमा होनी चाहिए प्रेम की?  क्या अनुशासन, शिक्षा और समाज का बोध देना भी माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं?  कहीं हम अपने ही हाथों एक राक्षस तो नहीं बना रहे?

"आसमां से गिरते अंगारे" कोई कल्पना नहीं, यह उस सच्चाई का नाम है जो हर माँ के आँचल में चुपचाप जल रही है।  जब हम प्यार में आँखें मूँद लेते हैं, तब अंधकार ही पनपता है। यह कहानी एक माँ की मृत्यु की नहीं, एक पूरे समाज की आत्महत्या की दास्तां है।  आइए, माँ को देवी मानने से पहले, एक इंसान भी मानें जिसे सम्मान, समझ और सुरक्षा भी चाहिए, सिर्फ सेवा और बलिदान नहीं।

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