लोकतंत्र का बदलता चेहरा और खोती हुई आवाजें

राहुल गांधी ने 'भारत समिट 2025' के मंच से जो बातें कहीं, वे केवल एक राजनेता की व्यक्तिगत व्यथा नहीं थीं; वे एक गहरी और व्यापक सच्चाई का प्रतिबिंब थीं, जिसे अब नज़रअंदाज़ करना कठिन हो गया है। उन्होंने साफ शब्दों में कहा आज का लोकतंत्र वह नहीं रहा जो एक दशक पहले था। न नियम वही रहे, न औज़ार। और सबसे चिंताजनक बात आवाजें सुनी नहीं जा रही हैं।  

यह स्वीकारोक्ति किसी हार या निराशा की नहीं, बल्कि उस कड़वी वास्तविकता की है जो धीरे-धीरे लोकतंत्र की आत्मा को क्षीण कर रही है। आज राजनीति की भाषा बदल गई है। संवाद की जगह शोर ने ले ली है, विमर्श की जगह प्रचार ने। जिन माध्यमों से कभी जनता और सरकार के बीच सेतु बनता था, वे आज दीवारों में बदल रहे हैं। मीडिया, जो कभी लोकतंत्र का प्रहरी था, अब बहुत बार सत्ता के घोषणापत्र का विस्तार बन गया है।  

राहुल गांधी ने जो महसूस किया, वह केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि उन लाखों–करोड़ों लोगों की पीड़ा है, जिनकी आवाजें भीड़ में दब जाती हैं, जिनकी चिंताएं हाशिए पर धकेल दी जाती हैं। 'भारत जोड़ो यात्रा' का अनुभव यह बताता है कि असली भारत, वास्तविक जनता, अब नेताओं से अपने दिल की आवाज नहीं जोड़ पा रही। उनमें एक गहरी असहायता है  जैसे कोई पुकार रहा हो लेकिन सुनने वाला कोई न हो।  

जब गांधी कहते हैं कि पुराने नेता खत्म हो चुके हैं, तो यह केवल सत्ता परिवर्तन की बात नहीं है। यह नेतृत्व की उस परिभाषा के अंत की घोषणा है जो केवल सत्ता पाने, रैलियां करने और नारों के ज़ोर पर टिकी थी। आज जनता को ऐसे नेता चाहिए, जो उनके दुःख में रो सके, उनके संघर्षों में चल सके और उनकी चुप्पी के पीछे के दर्द को सुन सके।  

वर्तमान दौर में विपक्ष का कुचला जाना और स्वतंत्र मीडिया का कमजोर होना केवल संस्थागत संकट नहीं, यह जनतंत्र के मूल विश्वास का संकट है। लोकतंत्र कोई तकनीकी तंत्र नहीं है जिसे केवल चुनावों से मापा जा सके; वह तो एक जीवंत भावना है  सवाल पूछने, असहमति रखने और सच्चाई से डरावने सवाल उठाने की भावना। जब ये चीजें मरने लगती हैं, तो केवल संस्थान नहीं मरते  उम्मीदें मरती हैं, सपने मरते हैं।  

कश्मीर के आतंकी हमले के संदर्भ में राहुल गांधी का कार्यक्रम स्थगित करना और एकजुटता का आह्वान करना यह दर्शाता है कि राजनीति, जब सही दिशा में होती है, तो वह देशभक्ति का सबसे पवित्र रूप बन जाती है। आज इस भावना की सबसे अधिक आवश्यकता है  कि हम सत्ता की लड़ाई से ऊपर उठकर राष्ट्र के दर्द को साझा करें।  

आज का समय हमसे नए नेताओं की मांग कर रहा है। ऐसे नेता जो कुर्सी की नहीं, दिलों की लड़ाई लड़ें। जो नारे नहीं, संवाद करें। जो प्रचार नहीं, संवेदनशीलता के साथ सेवा करें। सवाल केवल राहुल गांधी या कांग्रेस का नहीं है; सवाल पूरे भारतीय लोकतंत्र का है क्या हम उस बदलाव के लिए तैयार हैं जो केवल सत्ता बदलने से नहीं, बल्कि सोच बदलने से आएगा?  लोकतंत्र की असली लड़ाई आज सत्ता और विपक्ष के बीच नहीं, बल्कि संवेदना और संवेदनहीनता के बीच है। और इस लड़ाई में हर जागरूक नागरिक का योगदान अनिवार्य है।  

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