एक समय की बात है, उत्तर भारत के एक छोटे से गांव में एक गरीब ब्राह्मण, हरिप्रसाद, अपनी गरीबी को ओढ़कर भी स्वाभिमान से जीवन जी रहा था। खेत उसकी नहीं थी, लेकिन उसके पसीने से वो ज़मीन लहलहाती थी। दिनभर दूसरों के खेतों में काम करता, बच्चों को घर लौटकर पढ़ाता। उसके तीन बेटे थे सत्यप्रकाश, धर्मेंद्र और विनोद।
तीनों बच्चों को उसने एक ही बात सिखाई थी: गरीब हो सकते हो, लेकिन सोच और आत्मा से गरीब मत बनना। मेहनत करना, पर किसी का हक मत मारना। और सबसे ज़रूरी अपने भाइयों को कभी पराया मत समझना।
हरिप्रसाद के तीनों बेटे कंधे से कंधा मिलाकर बढ़े। सत्यप्रकाश पढ़ने में तेज था, आगे जाकर उसने लेखपाल की नौकरी पा ली। धर्मेंद्र ने तकनीकी प्रशिक्षण लेकर बिजली का काम सीखा और एक बढ़िया ठेकेदार बन गया। विनोद का मन व्यापार में था उसने गांव के आसपास एक छोटी सी किराना दुकान खोली, और कुछ ही वर्षों में आस-पास के बाजारों में उसका नाम हो गया। वे गरीब जरूर थे, पर अपने आस-पास के ज़रूरतमंदों की मदद करने से पीछे नहीं हटते। गांव में जब भी कोई समस्या आती, तीनों भाई मिलकर खड़े होते। धीरे-धीरे वे "वो तीन भाई" कहे जाने लगे जिनकी एकता गांव की मिसाल बन गई थी।
समय के साथ तीनों भाइयों की शादी हो गई तीनों की पत्नियाँ अलग-अलग गांवों की थीं। परिवार बड़ा हुआ, लेकिन उनकी एकता उतनी ही गाढ़ी रही। हरिप्रसाद अब वृद्ध हो चला था, पर यह देख उसका हृदय प्रसन्न रहता कि उसके बेटे एकजुट हैं। लेकिन यहीं कहानी ने मोड़ लिया।
उनके कुछ दूर के रिश्तेदार, विशेषकर नाना पक्ष के लोग हरिप्रसाद और उनकी पत्नी सहित अपने दामाद का भी बहुत अपमानित किया बाद में धीरे-धीरे तीनों भाइयों में फुट डालकर अपना साम्राज्य स्थापित किया। जो पहले हरिप्रसाद के सामने सिर झुकाकर चलते थे, अब भाईयों की सफलता देखकर ईर्ष्या करने लगे। एक दिन उनके बीच बैठकर कहने लगे, अरे, देखो ना! सत्यप्रकाश हमेशा बड़ा बनकर बोलता है, जैसे बाकी भाई उसके नौकर हों। धर्मेंद्र तो बस दिखावा करता है...वो दुकानवाला विनोद ही सबसे चालाक निकला! तीनों का मिलना तो बस दिखावा है, असल में अंदर-अंदर सब एक-दूसरे से जलते हैं।
धीरे-धीरे वे बातों के बीज बोने लगे। घर की बहुओं को अलग-अलग तरीके से भड़काया गया, भाइयों के बच्चों को आपस में प्रतिस्पर्धा के लिए उकसाया गया। समय के साथ भाइयों के बीच छोटी-छोटी बातों पर मनभेद होने लगा। सत्यप्रकाश को लगा कि धर्मेंद्र और विनोद उसे अब उतना सम्मान नहीं दे रहे। विनोद को यह लगने लगा कि वह परिवार के खर्च में सबसे अधिक दे रहा है लेकिन उसकी बात को कोई महत्व नहीं देता। धर्मेंद्र, जो हमेशा मध्यस्थ की भूमिका निभाता था, खुद को दो पाटों में पिसता महसूस करने लगा।
रिश्तेदारों ने धीरे-धीरे अपनी जगह घर में बना ली। भाई जब कभी एक-दूसरे से बात करने की कोशिश करते, तभी कोई “घटना” घट जाती गलतफहमियाँ और बढ़ती गईं। अब वही तीन भाई जो कभी एक थाली में खाना खाते थे, अब एक ही छत के नीचे पराए हो गए थे। उनकी संतानें भी उसी कड़वाहट में बड़ी हो रही थीं।
इन रिश्तेदारों का व्यवहार देखकर गांव वाले कहते, ये तो शकुनि के अवतार हैं। ये घर नहीं देख रहे, बस अपनी चालें बिछा रहे हैं। वे अब घर के निर्णयों में दखल देने लगे थे। बहुएं उनसे सलाह लेतीं, बच्चे उनकी बात मानते। धीरे-धीरे हरिप्रसाद की आंखों के सामने वह परिवार बिखर रहा था जिसे वह अपने खून-पसीने से सींचा था।
हरिप्रसाद ने एक दिन तीनों बेटों को पास बुलाया। वह बीमार था, बिस्तर पर पड़ा था। उसने कांपते स्वर में कहा: बेटा, मैं मरने से नहीं डरता... मैं इस बात से डरता हूं कि मेरे बाद तुम तीनों भाई नहीं रहोगे। ये घर, ये दीवारें...इनमें तुम्हारी हंसी की गूंज नहीं बचेगी।
तुम सबको मैंने एक साथ रोटी खाते देखा है... आज अलग-अलग थालियों में खा रहे हो। शकुनि के खेल ने महाभारत करवा दिया, पर क्या तुम कृष्ण बनकर नहीं लड़ सकते उस अधर्म से?
तीनों भाइयों की आंखों में आंसू आ गए। वर्षों बाद तीनों ने एक-दूसरे की आंखों में झांककर देखा और महसूस किया कि असली दुश्मन वे नहीं, बल्कि वे हैं जो उनके रिश्ते में दरार डालते रहे।
हरिप्रसाद की मृत्यु के बाद, तीनों भाइयों ने एक बड़ा निर्णय लिया रिश्तेदारों को घर से दूर रखा, और आपसी संवाद फिर से शुरू किया।
उन्होंने गांव में एक विद्यालय बनवाया जो हरिप्रसाद के नाम पर था। वहां पहली शपथ यही दिलाई जाती: "हम कभी अपने भाई को पराया नहीं समझेंगे, और किसी को भी अपने रिश्तों की नींव हिलाने नहीं देंगे। "बच्चों को साथ बैठाकर खाना खिलाया गया, परिवारों को साथ बैठाकर हँसी साझा की गई।
आज भी उस गांव में लोग कहते हैं: “वो तीन भाई जो बिछड़ गए थे, फिर से एक हो गए। और जिसने तोड़ने की कोशिश की थी, वह खुद अकेला रह गया।”
रिश्तेदारों की चालें रिश्तों को हिला सकती हैं, पर भाईचारा अगर दिल से हो तो कोई भी शकुनि सफल नहीं हो सकता। रिश्ते बहुत कीमती होते हैं उन्हें संभालिए, सजाइए, और किसी भी परिस्थिति में एक-दूसरे का साथ मत छोड़िए।
(लेखक: विनोद कुमार झा)
Kuch galatfahmiya rishto me darar daalti h aur aankh se sunne aur kaan se dekhne waalo ke sath aisa jyadatar hota h.
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