नल-नील से सेतु निर्माण का सुझाव प्रभु श्रीराम को किसने दिया?

विनोद कुमार झा

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में वर्णित यह प्रसंग केवल एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि मानव जीवन के गहन गुणों  धैर्य, विनम्रता, संयम और शक्ति  का प्रतीक है। जब श्रीराम लंका पर चढ़ाई के लिए समुद्र पार करने के उद्देश्य से पहुंचे, तो उनके सामने विशाल सागर एक अवरोध बनकर खड़ा था। रघुकुल-नायक श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण, वानरराज सुग्रीव और पूरी वानर सेना के साथ सागर तट पर पहुँच चुके थे। सामने था लंका  रावण की मायावी नगरी, सीता की व्याकुल पुकार। बीच में था अपार जलराशि  सिंधु, विशाल और अचल।परंतु प्रभु राम ने किसी राजा की तरह आदेश नहीं दिया, किसी योद्धा की तरह बल प्रयोग नहीं किया, बल्कि एक तपस्वी की भाँति विनम्र होकर समुद्र देव से मार्ग देने की प्रार्थना की।

श्रीराम ने अपने धनुष को कंधे से उतारकर धरती पर रखा। उनका मुख शांत था, भाव गंभीर, और नेत्रों में तेज व करुणा दोनों की झलक। उन्होंने समुद्र की ओर देखा और करबद्ध होकर बोले: हे वरुणदेव! हे सागर महाराज! आप प्रकृति के एक महान अंग हैं। मेरा आपसे विनम्र निवेदन है मुझे और मेरी सेना को लंका जाने हेतु मार्ग प्रदान करें। मैं किसी पर बल प्रयोग नहीं करना चाहता।

यह कोई युद्ध की चुनौती नहीं थी, यह प्रार्थना थी एक मर्यादित राजा की… एक धर्मात्मा की। श्रीराम वहीं तट पर धरती पर आसन लगाकर तप में लीन हो गए। तीन दिन और तीन रातें बीत गईं। सूर्य उगता और डूबता रहा, लहरें आती-जाती रहीं, पर समुद्र मौन रहा। कोई उत्तर नहीं।

तीन दिनों के धैर्य के बाद भी जब समुद्र मौन रहा, तो प्रभु की आँखों में चंचल अग्नि प्रकट हुई। यह अग्नि दाह करने वाली नहीं थी, यह धर्म की रक्षा के लिए जागी हुई शक्ति थी। प्रभु श्रीराम ने धनुष उठाया, वह धनुष जिसे शिवजी ने भी कभी उठाया था  कोदंड। उन्होंने प्रलयंकारी बाण चढ़ाया और सिंहगर्जना की और कहा, यदि समुद्र ने मेरी प्रार्थना को अनसुना किया, तो मैं इसे अपने बाणों से सुखा दूँगा। यह मेरा आदेश है, मेरी दया की परीक्षा अब पूर्ण हुई।

आकाश कंपित हो उठा। दिशाएँ थर्राने लगीं। समुद्र में ज्वार आया, जैसे स्वयं प्रकृति भी प्रभु के तेज के आगे नतमस्तक हो गई हो। तभी समुद्र देवता अपने जल से बाहर प्रकट हुए। उन्होंने हाथ जोड़कर श्रीराम के चरणों में वंदना की। भय और भक्ति से उनका स्वर काँप रहा था। 

समुद्र देव कांपते हुए बोला प्रभो! मैं आपकी परीक्षा नहीं ले रहा था। मेरी प्रकृति ऐसी है कि मैं अपनी सीमाओं से बाहर नहीं जा सकता। मुझे यह अधिकार नहीं कि मैं स्वयं मार्ग बना दूँ। परंतु आपकी आज्ञा पाकर मैं अब अपने भीतर वह शक्ति जागृत करूँगा। आप नल और नील के द्वारा सेतु का निर्माण करें, मैं उसे धारण करूँगा।

यह वह क्षण था जब भगवान ने फिर से धनुष नीचे रख दिया। उनके नेत्रों में अब क्रोध की ज्वाला शांत होकर करुणा और कृपा बन चुकी थी। यह प्रसंग दर्शाता है कि श्रीराम केवल क्षमा के प्रतीक नहीं हैं, वे न्याय और संतुलन के मूर्तिमान स्वरूप हैं। उनका धैर्य असहायता नहीं, उनका क्रोध विनाश नहीं यह सब धर्म की स्थापना के लिए था। 

यह कथा केवल रामायण का एक अंश नहीं, बल्कि जीवन का सिद्धांत है: धैर्य से आरंभ करें, परंतु जब धर्म की रक्षा का समय आए, तो अपने भीतर छिपे राम को जागृत करें।

जय श्रीराम।

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