विनोद कुमार झा
भगवान महावीर का जन्म ईसा पूर्व 599 में वैशाली राज्य के कुंडलपुर नगर में हुआ था। वे इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय थे। उनके पिता महाराज सिद्धार्थ और माता महारानी त्रिशला धर्मनिष्ठ, दयालु और सत्प्रवृत्तिशील शासक थे। जैन ग्रंथों के अनुसार, माता त्रिशला को गर्भधारण के समय 16 शुभ स्वप्न आए थे, जिनसे ज्ञात हुआ कि उनका पुत्र कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि आत्मज्ञान की सिद्धि प्राप्त करने वाला महापुरुष होगा।
शैशवकाल से ही वर्धमान (महावीर का बाल्य नाम) में असाधारण साहस, करुणा और संयम का समावेश था। वे न केवल शिक्षा और अस्त्र-शस्त्र में निपुण थे, बल्कि ध्यान और त्याग की भावना में भी परिपक्व होते जा रहे थे। उन्होंने वैवाहिक जीवन और राजकीय सुखों में कुछ विशेष रुचि नहीं ली, और अंततः 30 वर्ष की अवस्था में अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने सांसारिक बंधनों का त्याग कर वन की ओर प्रस्थान किया। भगवान महावीर ने घर त्यागने के बाद 12 वर्षों तक घोर तपस्या की। उन्होंने वर्षा, धूप, शीत, अपमान, भूख-प्यास आदि कष्टों को सहते हुए भी ध्यान, मौन और तप में स्वयं को समर्पित कर दिया। वे नंगे पैर चलते, हाथ से भोजन ग्रहण करते, और मौनव्रत के माध्यम से आत्मचिंतन करते। उन्होंने कई बार उपवास किए, कई बार दिनों तक जल तक नहीं लिया, परंतु उनका संकल्प अडिग रहा।
आख़िरकार वैशाली के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान (सर्वज्ञान) की प्राप्ति हुई। वे 'जिन' कहलाए जिसका अर्थ है जिसने अपने राग-द्वेष, इंद्रियों और मोह को जीत लिया हो। महावीर स्वामी ने अपने ज्ञान का प्रचार 30 वर्षों तक किया। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का मार्ग बताया। उनके उपदेश केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित नहीं थे, बल्कि व्यवहार, समाज और आचरण की गहराइयों को स्पर्श करते थे।
पंच महाव्रत इस प्रकार है:-
1. अहिंसा : किसी भी जीव को मन, वचन या कर्म से पीड़ा न पहुँचाना
2. सत्य : जो देखा, समझा और अनुभव किया गया है, उसी को कहना ।
3. अचौर्य : बिना अनुमति किसी वस्तु का ग्रहण न करना ।
4. ब्रह्मचर्य : इंद्रिय संयम और मानसिक पवित्रता ।
5. अपरिग्रह : आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना।
ये व्रत न केवल साधु-संन्यासियों के लिए थे, बल्कि सामान्य गृहस्थ जनों के लिए भी नैतिक जीवन की कसौटी बने। भगवान महावीर के अनुसार, अहिंसा परमो धर्मः यानी अहिंसा ही सर्वोत्तम धर्म है। उनके लिए हिंसा केवल शारीरिक कृत्य नहीं थी, बल्कि कटु वचन, द्वेषपूर्ण विचार और किसी भी रूप में किसी जीव को हानि पहुँचाना भी हिंसा के अंतर्गत आता था। आज जब समाज में हिंसा, असहिष्णुता और स्वार्थ का बोलबाला है, तब भगवान महावीर की यह शिक्षा अत्यंत प्रासंगिक हो जाती है। यदि हम केवल 'अहिंसा' के सिद्धांत को ही पूर्ण रूप से अपनाएं, तो विश्व में शांति, प्रेम और करुणा का साम्राज्य स्थापित हो सकता है।
भगवान महावीर ने ‘जियो और जीने दो’ का जो सिद्धांत दिया, वह केवल मानवीय संबंधों तक सीमित नहीं था। उन्होंने सभी प्राणियों पशु, पक्षी, जलचर, कीट, वृक्ष, वायु और जल के संरक्षण का विचार दिया। यह विचार आज के पर्यावरणीय संकट में मार्गदर्शक बन सकता है। उनकी शिक्षाएँ हमें बताती हैं कि प्रकृति से संतुलन और संयम का संबंध बनाकर ही हम स्थायी विकास की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
आज का युग विज्ञान, तकनीक और उपभोक्तावाद की तीव्र गति से दौड़ रहा है। इस दौड़ में मनुष्य बाह्य विकास की चकाचौंध में अपने अंतर्मन की शांति को भूलता जा रहा है। ऐसे में महावीर जयंती आत्ममंथन का एक अवसर है। यह हमें याद दिलाती है कि भीतर का जीवन आत्मा का कल्याण ही परम लक्ष्य है। आज आवश्यकता है कि हम महावीर के दर्शन को केवल पूजा-पाठ तक सीमित न रखें, बल्कि उसे आचरण में उतारें। सत्य बोलें, किसी का अपमान न करें, जीवन में सरलता और सादगी अपनाएं, और हर जीव के प्रति करुणा रखें।
भगवान महावीर केवल जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं थे, वे एक वैश्विक चेतना के वाहक थे। उन्होंने आत्मा की स्वतंत्रता, कर्म के बंधन, मोक्ष की प्राप्ति और नैतिक आचरण के ऐसे सूत्र बताए, जो धर्म, जाति, भाषा और संप्रदाय से परे हैं। महावीर जयंती पर हम यदि उनके जीवन-संदेशों को समझें और उन्हें अपने जीवन का हिस्सा बना लें, तो हम न केवल स्वयं के जीवन को शुद्ध कर सकते हैं, बल्कि समाज और विश्व को भी शांति और सौहार्द का उपहार दे सकते हैं।
जय महावीर! जय अहिंसा!