अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा टैरिफ नीति में एक बार फिर बड़ा बदलाव कर चीन पर 125% तक का शुल्क थोपना न केवल दो आर्थिक महाशक्तियों के बीच तनाव को और गहरा करता है, बल्कि पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी अनिश्चितता की गर्त में ढकेल देता है। हालाँकि अन्य देशों पर टैरिफ 90 दिनों के लिए स्थगित किया गया है, लेकिन यह राहत क्षणिक प्रतीत होती है, जब तक कि व्यापारिक संतुलन के नाम पर यह युद्ध अनवरत चलता रहेगा।
ट्रंप के इस फैसले के तात्कालिक प्रभाव स्वरूप अमेरिकी शेयर बाजार में उछाल जरूर देखा गया, परंतु यह लघु अवधि की प्रतिक्रिया है। दीर्घकाल में ऐसे कदम विश्व व्यापार व्यवस्था की स्थिरता को खतरे में डालते हैं। चीन ने पलटवार करते हुए अमेरिकी वस्तुओं पर 84% शुल्क लगा दिया है, और यूरोपीय संघ भी अमेरिका के खिलाफ जवाबी शुल्क की तैयारी में है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि एकतरफा नीतियाँ विश्व व्यापार में सहयोग और संवाद की भावना को कमजोर कर रही हैं।
विशेष चिंता का विषय यह है कि अमेरिकी प्रशासन अब फार्मा क्षेत्र को भी अपने टैरिफ हथियार का निशाना बना रहा है। भारत जैसे देशों के लिए, जिनकी अर्थव्यवस्था में दवा उद्योग की बड़ी हिस्सेदारी है, यह झटका काफी गंभीर हो सकता है। ऐसे में भारतीय सरकार द्वारा अमेरिका के साथ व्यापार समझौते के लिए की जा रही पहल महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें व्यावहारिक संतुलन और दीर्घदृष्टि आवश्यक होगी।
चीन का यह कहना कि अमेरिका को समानता, सम्मान और पारस्परिक लाभ की भावना से बातचीत करनी चाहिए, विश्व व्यापार संगठन की उस मूल भावना को प्रतिध्वनित करता है, जो समता और सहयोग पर आधारित है। यदि अमेरिका अपनी 'अमेरिका फर्स्ट' नीति के तहत वैश्विक व्यापार नियमों की अनदेखी करता है, तो यह केवल चीन या भारत नहीं, बल्कि समस्त विकासशील देशों के लिए चुनौती बन जाएगा।
इस परिदृश्य में आवश्यकता इस बात की है कि सभी देश बातचीत और कूटनीतिक प्रयासों से समाधान खोजें। व्यापार कोई युद्ध नहीं, बल्कि सहयोग का माध्यम होना चाहिए। यदि यह लड़ाई लंबी खिंचती है, तो इसका नुकसान न केवल राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को, बल्कि आम उपभोक्ता को भी झेलना पड़ेगा। अतः अब वक्त है कि वैश्विक नेतृत्व स्वार्थ के बजाय समन्वय की भाषा बोले। यही सच्चा व्यापारिक विवेक और दीर्घकालिक समाधान होगा।