जिसके मन में हैं प्रभु श्रीराम, वही हैं भक्त हनुमान

 विनोद कुमार झा

सनातन धर्म के अमर चरित्रों में यदि कोई सबसे निष्कलंक भक्त कहलाते हैं, तो वे हैं पवनपुत्र हनुमान। उनके भीतर न किसी प्रकार का मोह था, न अभिमान। उनका समर्पण ऐसा था कि उन्होंने स्वयं को श्रीराम के चरणों में इस प्रकार अर्पित कर दिया कि उनका हर विचार, हर सांस, हर शक्ति, सब कुछ राममय हो गया। और यही कारण है कि कहा गया, जिसके मन में हैं प्रभु श्रीराम, वही हैं भक्त हनुमान।

हनुमान जी की संपूर्ण सत्ता श्रीराम के स्मरण में है। उन्होंने कभी अपने लिए कुछ नहीं चाहा। रामकाज ही उनका जीवन बना। बाल्यकाल से लेकर लंका विजय तक और फिर रामराज्य की स्थापना तक, हनुमान जी हर क्षण श्रीराम के सेवक, मित्र, सलाहकार और रक्षक के रूप में उपस्थित रहे।

जब माता सीता ने उन्हें अष्टसिद्धियों और नव निधियों का वरदान देना चाहा, तो हनुमान जी ने विनम्रता से कहा,   मोर अंग प्रत्यंग बस राम! मेरे शरीर के हर कण में केवल राम ही बसते हैं। हनुमान जी की भक्ति केवल भाव की नहीं, कर्म की भी चरम सीमा पर है। उन्होंने श्रीराम के लिए पर्वत उठा लिए, समुद्र पार कर लिए, लंका जलाकर रख दी, लेकिन एक बार भी अहंकार नहीं किया। उनकी विनम्रता, उनकी लीनता, और उनका सेवा भाव इन सबसे बड़ा कोई उदाहरण भक्ति मार्ग में नहीं मिलता।

श्रीराम स्वयं कहते हैं, न जानउँ भक्ति करि तोही,  तुलसी देखि सनेह तुम्ह मोही। (हे हनुमान! मैं भक्ति के योग्य तो नहीं, पर तुम्हारा प्रेम और समर्पण देखकर मैं बंध गया हूँ।) यह पंक्ति हमें यह भी सिखाती है कि हनुमान जी केवल प्रभु राम को अपने मन में नहीं बसाते, अपितु वे स्वयं श्रीराम के हृदय में भी वास करते हैं। तुलसीदास जी ने सुंदरकांड में लिखा है:  

राम काज कीन्हे बिनु, मोहि कहाँ विश्राम। 

(जब तक राम का कार्य न हो, मुझे विश्राम नहीं चाहिए।) उनकी सेवा भावना इतनी प्रबल थी कि वे प्रभु की इच्छा के आगे स्वयं को मिटा देने में भी सुख मानते थे।

आज के युग में जब मनुष्य भटक रहा है, अहंकार में डूबा हुआ है, तब यह सीख अत्यंत आवश्यक है कि हनुमान बनने के लिए राम को अपने भीतर बसाना होगा। जब हमारे विचारों में मर्यादा होगी, जब हमारे कर्मों में धर्म होगा, जब हमारे हृदय में सेवा भाव होगा तभी हम सच्चे अर्थों में हनुमान जैसे भक्त बन सकेंगे।

राम और हनुमान का यह अनुपम संबंध हमें यह संदेश देता है कि भक्ति केवल पूजा नहीं, बल्कि समर्पण, सेवा और प्रेम का मार्ग है। जिसके मन में हैं प्रभु श्रीराम, वही हैं भक्त हनुमान यह केवल एक पंक्ति नहीं, एक जीवन-दर्शन है। यह वह धारा है जिसमें बहकर साधक श्रीराम के चरणों तक पहुंच सकता है। और जब श्रीराम का नाम हमारे मन में गूंजता है, तब हनुमान जी स्वयं हमारी रक्षा करने आ जाते हैं।

जय श्रीराम!  जय बजरंगबली!


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