विनोद कुमार झा
कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है जहाँ हम अपने ही लोगों के बीच अजनबी बन जाते हैं। जिन चेहरों पर हमें सुकून मिलता था, वही चेहरें अचानक हमारे दर्द की वजह बन जाते हैं। "अपनों का दर्द" सिर्फ एक पीड़ा नहीं है, यह एक गहराई है जिसमें भरोसे का टूटना, रिश्तों का बिखरना और मन का रो पड़ना शामिल होता है।
यह कहानी उस दर्द की है जो शब्दों में नहीं, सिर्फ आँखों में उतरता है। यह उन रिश्तों की है जो बाहर से मुस्कुराते हैं, पर भीतर ही भीतर कराहते हैं। यह उन अपनों की है, जिनसे उम्मीद थी कि वे सहारा देंगे, लेकिन जब वक्त आया तो वही सबसे पहले मुंह मोड़ गए। जब दर्द पराया देता है, तब तकलीफ़ होती है; पर जब अपनों से ठेस लगती है, तो आत्मा तक कांप जाती है। यह कहानी है उस दर्द की जो खून के रिश्तों से मिला, उस मौन की जो दिल में हमेशा के लिए घर कर गया, और उस स्त्री की जो सब सहकर भी मुस्कुराती रही, ताकि उसका घर बिखर न जाए।
गाँव की गलियों में पली-बढ़ी संध्या, अपने भोलेपन और सादगी के लिए जानी जाती थी। पिता शिक्षक थे और माँ पूजा-पाठ में रमी रहतीं। संध्या को पढ़ाई से लगाव था, लेकिन उसे अपने सपनों से ज्यादा अपने परिवार की खुशियाँ प्यारी थीं। जब उसके लिए रिश्ता आया शहर के संभ्रांत और पढ़े-लिखे अरविंद से, तो परिवार में ख़ुशी की लहर दौड़ गई।
शादी भव्य थी। संध्या ने मायके से मिली संस्कारों की गठरी और सपनों की पोटली लेकर ससुराल में कदम रखा। सासू माँ ने आरती की थाल लेकर उसका स्वागत किया और कहा "बेटी नहीं बहू बनकर आओ, तो यह घर स्वर्ग बन जाएगा।" संध्या ने मुस्कुराकर सिर झुका लिया।
शुरुआती दिनों में सब कुछ ठीक चला। संध्या सुबह सबसे पहले उठती, पूरे घर का काम करती, फिर अपने पति अरविंद के लिए नाश्ता बनाती। सास-श्वसुर की सेवा, ननद के तानों का जवाब हँसी में देना – सब उसका स्वभाव बन गया। लेकिन धीरे-धीरे वह महसूस करने लगी कि जो घर उसने अपनाया, वह उसे अब भी 'बाहरी' समझता है।
ननद स्वाति, हर बात में उसकी आलोचना करती – "माँ, देखो ना, चाय में फिर अदरक कम है! सासू माँ ताना देतीं "हमारे घर की बहुएँ तो सुबह चार बजे उठ जाती थीं, आजकल की बहुएँ बस सोने और सजने आई हैं।" अरविंद जो उसके लिए कभी कविताएँ लिखता था अब मोबाइल में व्यस्त रहने लगा था। उसकी चुप्पी, उसकी सबसे बड़ी सजा बन गई।
संध्या ने कभी शिकायत नहीं की। वह जानती थी, माँ-बाप के घर से विदा होने के बाद, स्त्री को हर परिस्थिति से समझौता करना होता है। वह हर ताना सहती, हर दिन मुस्कुराती, ताकि कोई कह न सके कि वह घर तोड़ने आई है। एक दिन उसकी माँ बीमार पड़ीं। वह मायके जाना चाहती थी, पर सासू माँ बोलीं "घरवाले बीमार ही होते हैं, कोई मर थोड़े न रहा है!"
अरविंद ने चुपचाप अखबार पढ़ते हुए कहा , "इतना ड्रामा मत किया करो, संध्या। "उस दिन पहली बार संध्या का मन टूटा। वह चुपचाप अपने कमरे में गई और रो पड़ी उस आँचल में जो उसने कभी किसी को सुख देने के लिए ओढ़ा था, आज वही आँचल उसकी पीड़ा का साथी बन गया। समय बीतता गया। संध्या ने एक बेटा जन्म दिया अनुज। उसने सोचा अब शायद चीज़ें बदलेंगी। लेकिन बच्चे के पालन में भी उसे अकेले ही जूझना पड़ा। सासू माँ ने कहा "हमारे ज़माने में तो हम अकेले तीन-तीन बच्चों को पालते थे!"
अरविंद ने ऑफिस की व्यस्तता का बहाना बना लिया। लेकिन अनुज वह संध्या की आँखों का तारा था। वही उसकी दुनिया बन गया। उसने बेटे को अच्छे संस्कार दिए, पढ़ाया-लिखाया, हर दुख को उससे दूर रखा। वक़्त बीतता गया। अनुज बड़ा हुआ, नौकरी पर गया, फिर उसकी शादी हुई। संध्या को लगा अब वह अपनी बहू को वो स्नेह देगी, जो उसे कभी नहीं मिला।
पर इतिहास ने खुद को दोहराया। बहू कविता ने पहले तो मीठे बोल बोले, फिर धीरे-धीरे वह भी सास को 'बोझ' समझने लगी। अनुज, अपने पिता की तरह, अब अपनी पत्नी की हर बात में 'हाँ' कहने लगा।
एक दिन कविता ने साफ कह दिया "मम्मी जी, आप मायके क्यों नहीं चली जातीं कुछ दिनों के लिए? यहाँ हमारी ज़िंदगी में दखल मत दीजिए।" अनुज खामोश रहा। वही खामोशी, जो संध्या ने अरविंद की आँखों में देखी थी।
संध्या ने चुपचाप एक थैला उठाया। बिना किसी को बताए, अपने मायके चली गई – जहाँ अब कोई नहीं था। टूटी दीवारें, सूनी दीवारें और पुराने बर्तन उसका स्वागत कर रहे थे। लेकिन वहीं उसे अपनापन मिला – उस पुराने तुलसी के पौधे में, जो अब भी हर सुबह सूरज की तरफ मुस्कुराता था।
उसने एक डायरी निकाली और लिखा – "मेरे अपनों ने मुझे नहीं समझा, क्योंकि मैंने कभी खुद को ज़ाहिर ही नहीं किया। मैंने सबके लिए जिया, पर कोई मेरे लिए न जिया। अपनों का दर्द, सबसे गहरा होता है, क्योंकि वो दर्द कहीं दिखाई नहीं देता वह सिर्फ भीतर सिसकता है..."
"अपनों का दर्द" सिर्फ संध्या की कहानी नहीं है। यह उन असंख्य स्त्रियों की व्यथा है, जो एक समय में बेटी, बहू, पत्नी और माँ बनकर अपनी पहचान खो देती हैं। उनका त्याग न तो अख़बार की सुर्खियों में आता है, न ही किसी पुरस्कार में। लेकिन उनके मौन आंसू समाज के उस आईने को धुंधला कर जाते हैं, जिसमें हम खुद को 'सभ्य' मानते हैं। समाज को अब यह सोचने की ज़रूरत है कि क्या स्त्री का त्याग उसकी मजबूरी है या हमारी संवेदनहीनता का परिणाम?