विनोद कुमार झा
हर बूंद में जीवन होता है। हर नदी में प्रवाह केवल जल का नहीं, संस्कृति, सभ्यता और सच्चाई का होता है। लेकिन जब उसी जलधारा का हिस्सा एक ऐसा देश उपयोग करता है, जो हमारी धरती पर खून बहाने वालों को पालता है, तो प्रश्न उठता है क्या जल की इस साझेदारी में भी राष्ट्र की अस्मिता की बलि चढ़ाई जा सकती है?
भारत-पाकिस्तान के बीच संबंधों की संवेदनशील कड़ी रही है सिंधु जल संधि एक ऐसी संधि जो युद्धों के समय भी अडिग रही, जिसने दो देशों के बीच पानी की साझेदारी को बनाए रखा। लेकिन शुक्रवार को जिस प्रकार भारत सरकार ने इस ऐतिहासिक समझौते को तोड़ने का फैसला लिया, वह न केवल एक कूटनीतिक मोड़ है, बल्कि पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के विरुद्ध भारत की निर्णायक चेतावनी भी है।
पिछले सप्ताह जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए क्रूरतम आतंकी हमले में 26 निर्दोष भारतीयों की जान चली गई। यह हमला न केवल हमारे नागरिकों पर आघात था, बल्कि भारत की सहिष्णुता और शांति की नीति पर भी सीधा हमला था। भारत ने स्पष्ट रूप से पाकिस्तान को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया, जबकि पाकिस्तान हमेशा की तरह अपने दामन को पाक बताता रहा।
अब बात केवल आतंकवाद की नहीं, जल-अधिकार की भी है।गृह मंत्री अमित शाह और जलशक्ति मंत्री सी. आर. पाटिल की बैठक में यह निर्णय कि सिंधु का एक बूंद पानी भी पाकिस्तान को नहीं दिया जाएगा, एक ऐतिहासिक और साहसी कदम है। यह निर्णय केवल आक्रोश की प्रतिक्रिया नहीं है, यह रणनीतिक, तकनीकी और भू-राजनीतिक सोच का परिणाम है। ड्रेजिंग, सिल्ट हटाने, जल डायवर्जन और नए बांधों के निर्माण की योजनाएं इस बात का संकेत हैं कि भारत अब ‘पानी’ को एक साधारण संसाधन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का हिस्सा मान रहा है।
सवाल यह भी उठता है कि यह निर्णय क्या अंतरराष्ट्रीय कानून और मानवता की दृष्टि से उचित है? तो जवाब है: जब एक राष्ट्र की शांति, सुरक्षा और नागरिकों का जीवन बार-बार आतंकवाद की भेंट चढ़ रहा हो, तब 'संधि' का पालन केवल भारत की एकतरफा जिम्मेदारी नहीं रह जाती। अनुच्छेद 12(3) के तहत संधि के पुनः मूल्यांकन का भारत का आग्रह वर्षों से लंबित था, जिसे पाकिस्तान ने टालमटोल और अस्वीकार की नीति से बार-बार दरकिनार किया। अब यह केवल पानी की धार की बात नहीं, नीति की धार की बात है।
सिंधु जल संधि को निलंबित करने के पीछे एक और महत्वपूर्ण पहलू है भारत की आंतरिक जल जरूरतें। बदलती जलवायु, बढ़ती जनसंख्या, और कृषि व ऊर्जा आवश्यकताओं ने यह संकेत पहले ही दे दिए थे कि भारत को अब अपने संसाधनों की प्राथमिकता खुद तय करनी होगी। ऐसे में सिंधु नदी का पानी देश के भीतर डायवर्ट करना न केवल न्यायसंगत, बल्कि आवश्यक भी है।
इस निर्णय से पाकिस्तान की स्थिति अत्यंत जटिल हो जाएगी। पाकिस्तान की कृषि व्यवस्था और जल आपूर्ति का बहुत बड़ा हिस्सा सिंधु प्रणाली पर निर्भर है। भारत का यह कदम पाकिस्तान को एक गहन जल संकट की ओर धकेल सकता है, लेकिन शायद यही वह दबाव है जिससे पाकिस्तान को आतंकवाद के समर्थन की कीमत का अहसास हो।
इस निर्णय का अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया क्या होगी? यह भी एक यथार्थ है कि भारत को इस कदम पर वैश्विक प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ेगा। संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और अन्य वैश्विक शक्तियां भारत से संयम की अपेक्षा कर सकती हैं। लेकिन भारत को अब यह स्पष्ट करना होगा कि संयम का अर्थ आत्मघात नहीं हो सकता। यदि कोई राष्ट्र भारत की पीठ पर वार करता है और हम केवल संधियों की दुहाई देते रहें, तो यह हमारी नीति की विफलता होगी।
सिंधु की धार अब एक राजनयिक जलधारा नहीं, आत्मरक्षा की ललकार है। यह निर्णय एक संदेश है भारत की शांति उसकी कमजोरी नहीं, उसकी सहनशीलता थी। और जब यह सहनशीलता टूटती है, तो इतिहास बदलते हैं। भारत अब उस मोड़ पर है, जहाँ वह अपने अधिकारों को लेकर संकोच नहीं, संकल्प दिखा रहा है।"पानी अब बहने नहीं, रुकने के फैसले में है।"