विनोद कुमार झा
मानव जीवन एक यात्रा है जिसमें सुख-दुख, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद जैसे भाव क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। इसी परिवर्तनशील जीवन में पर्व, उत्सव और धार्मिक अवसर विश्राम के, आत्मचिंतन के, और ईश्वर के सान्निध्य के विशेष क्षण बनकर आते हैं। ये पर्व केवल सामाजिक रीति-रिवाज़ों का समुच्चय नहीं, बल्कि आत्मा की जागृति और धर्म की अनुभूति के अवसर होते हैं। जीवन में कोई पर्व कभी "खत्म" नहीं होता; वे समय-चक्र के अनुसार आते रहते हैं। उनके पीछे छिपा संदेश यह है कि भले ही अवसर बदलते रहें, पर हमारी भक्ति, श्रद्धा और ईश्वर आराधना कभी नहीं थमनी चाहिए।पर्वों की अवधारणा केवल तिथि विशेष पर होने वाले आयोजन तक सीमित नहीं है। ये एक आध्यात्मिक अनुकरण हैं जिनका उद्देश्य है – आत्मा की शुद्धि, मन की स्थिरता और जीवन में दिव्यता का समावेश। भारत जैसे सांस्कृतिक देश में हर पर्व कोई न कोई धार्मिक या पौराणिक कथा से जुड़ा होता है ; जैसे दीपावली श्रीराम के अयोध्या आगमन की, होली प्रहलाद की भक्ति की, ईद रोज़ों की तपस्या की समाप्ति की, और क्रिसमस प्रभु यीशु के जन्म की स्मृति में मनाया जाता है।
हर पर्व हमें धर्म की गहराई से जोड़ता है और यह याद दिलाता है कि जीवन में ईश्वर की उपस्थिति निरंतर बनी रहनी चाहिए। "धारयति इति धर्मः" जो जीवन को धारित करे, वही धर्म है। धर्म का अर्थ केवल किसी एक संप्रदाय विशेष के अनुकरण में नहीं है, बल्कि यह एक जीवनशैली है जिसमें सत्य, करुणा, क्षमा, श्रद्धा और भक्ति सम्मिलित हैं। हर धर्म यह सिखाता है कि मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए ईश्वर की उपासना करनी चाहिए।
हिंदू धर्म में नित्य पूजा, इस्लाम में पाँच वक्त की नमाज़, ईसाई धर्म में प्रार्थना और सेवाकार्य, और सिख धर्म में नाम सिमरन सभी इसी बात को दर्शाते हैं कि ईश्वर के साथ जुड़ाव दैनिक जीवन का अंग होना चाहिए, ना कि केवल पर्वों तक सीमित।जीवन के पर्व तो आते हैं, बीतते हैं और फिर अगले वर्ष पुनः लौट आते हैं। यह आवृत्ति हमें यह संदेश देती है कि भक्ति और ईश्वर की आराधना केवल अवसर विशेष तक सीमित न हो।
कबीरदास जी कहते हैं :
"दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।"
इसका अर्थ है कि हमें हर अवस्था में सुख हो या दुख ईश्वर को याद करना चाहिए। पर्वों का महत्व तभी सार्थक होता है जब वे हमारे जीवन में धर्म और भक्ति को जाग्रत करें।
हमारे प्राचीन ग्रंथ वेद, उपनिषद, कुरआन, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब सभी यही सिखाते हैं कि ईश्वर की आराधना ही मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं: "सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।" (सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आओ।) इसका तात्पर्य है कि धर्म का अंतिम उद्देश्य केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मसमर्पण और ईश्वर से एकाकार होना है।
वर्तमान जीवन में भक्ति की प्रासंगिकता : आज की भागदौड़ भरी दुनिया में पर्व तो रह गए हैं, पर उनका मूल भाव कहीं खोता जा रहा है। हम दिखावे, औपचारिकता और परंपरा के नाम पर पर्व मनाते हैं, पर भक्ति और आत्मचिंतन कम हो गया है। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने पर्वों को केवल रीति नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जागरूकता का माध्यम बनाएं। हर दिन को पर्व मानते हुए ईश्वर का स्मरण करें, प्रार्थना करें, सेवा करें, और आत्मा को शुद्ध करें।
जीवन में पर्वों का आना-जाना एक प्राकृतिक चक्र है। उनका उद्देश्य केवल बाह्य रूप से उल्लास करना नहीं, बल्कि हमारे अंदर ईश्वर के प्रति श्रद्धा को जाग्रत करना है। पर्व हमें यह याद दिलाते हैं कि संसार में सब कुछ क्षणिक है, केवल परमात्मा शाश्वत है। इसलिए मानव को चाहिए कि वह अपने धर्मानुसार निरंतर ईश्वर की आराधना करता रहे, क्योंकि वही सच्ची शांति, स्थायित्व और मोक्ष का मार्ग है।
यदि जीवन को पर्वमय बनाना है, तो हर क्षण को ईश्वर को समर्पित करना होगा। तब न कोई पर्व खत्म होगा, न भक्ति रुकेगी बल्कि जीवन स्वयं एक उत्सव बन जाएगा।