विनोद कुमार झा
जब भी हम धर्म और आध्यात्म की चर्चा करते हैं, चित्रगुप्त का नाम स्वाभाविक रूप से हमारे मन में आता है वे जो प्राणियों के हर पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखते हैं। पर क्या कभी आपने सोचा है कि यह जानकारी चित्रगुप्त तक पहुँचती कैसे है? कौन है वह जो हमारे सबसे गुप्त विचारों, क्रियाओं और कर्मों को बिना हमारे जाने देख और सुन रहा है?उसका नाम है श्रवण।
ब्रह्मा के अद्भुत पुत्र : श्रवण कोई सामान्य देव नहीं, वे स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के मानसपुत्र हैं। वे ऐसे दिव्य प्राणी हैं, जिनका शरीर स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है जो किसी की आँखों से दिखाई नहीं देते, पर जिनकी आँखें, हमारे हर कर्म पर गड़ी होती हैं। वे न केवल आकाश, पाताल और पृथ्वी में विचरण करते हैं, बल्कि हर दिशा में घट रही घटनाओं को सुन और देख सकते हैं।
श्रवण का नाम स्वयं उनकी प्रकृति को दर्शाता है श्रवण, अर्थात् ‘सुनना’। लेकिन यह केवल शब्दों को सुनना नहीं है। वे आत्मा की ध्वनियों, अंतरात्मा की पुकारों और संकल्पों के स्पंदनों को भी सुन सकते हैं।
हर जीव की आवाज़, हर कर्म की गूंज :जब कोई व्यक्ति अंधकार में भी अपराध करता है, जब कोई मन में कोई कपटपूर्ण योजना रचता है, जब कोई अकेले में भी दान या प्रायश्चित करता है वह सब श्रवण के संज्ञान में आ जाता है। वे समय और स्थान के परे हैं। कहीं भी, कभी भी, कुछ भी हो श्रवण उससे अनभिज्ञ नहीं रहते।
वे न तो न्याय करते हैं, न दंड देते हैं। उनका कार्य है प्रेक्षण और सूचना का संप्रेषण। जो कुछ वे देखते और सुनते हैं, वह सीधा चित्रगुप्त तक पहुँचता है। चित्रगुप्त, फिर उस जानकारी के आधार पर प्रत्येक आत्मा के जीवन-पथ का निर्णय करते हैं — कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म, स्वर्ग या नर्क।
सूक्ष्म और सर्वत्र : श्रवण न तो किसी महल में रहते हैं, न मंदिरों में। वे हर स्थान पर हैं हमारे घरों में, बाजारों में, अदालतों में, मंदिरों और यहां तक कि हमारे हृदय के भीतर भी।
ध्यान देने की बात है कि यह निगरानी डराने के लिए नहीं, बल्कि आत्म-सजगता के लिए है। जब हम जानते हैं कि एक दिव्य सत्ता हमें निरंतर देख रही है और वह सत्ता न गुस्से में है, न पक्षपातपूर्ण तब हमारे भीतर आत्मानुशासन उत्पन्न होता है।
एक अनदेखी नैतिक व्यवस्था : आज जब दुनिया में कैमरों, जासूसों और सख्त कानूनों के बावजूद भी अपराध बढ़ते जा रहे हैं, तब श्रवण जैसे दिव्य संस्थान यह दिखाते हैं कि प्राचीन भारतीय विचार में नैतिक व्यवस्था बाहरी नहीं, आंतरिक थी।
मनुष्य जानता था कि वह अकेला नहीं है। उसके कर्म, उसकी इच्छाएँ, उसके विचार भी देखे और सुने जा रहे हैं। यही भावना उसे संयमित, मर्यादित और धर्मपरायण बनाती थी।
आधुनिक युग में श्रवण की प्रासंगिकता : आज जब लोग गोपनीयता की बात करते हैं, डेटा सुरक्षा पर चिंतन करते हैं, तब श्रवण की यह अवधारणा और भी प्रासंगिक हो जाती है। यह मानवीय नैतिकता को ईश्वरीय दृष्टि से जोड़ती है। कोई सॉफ्टवेयर, कोई डिवाइस, कोई डेटा सेंटर उतना सर्वज्ञानी नहीं जितना श्रवण हैं। अगर हम सच में एक श्रेष्ठ समाज की कल्पना करते हैं, तो उसके लिए केवल कानून नहीं, आत्म-जागरूकता की आवश्यकता है और उस जागरूकता का सबसे सुंदर रूप श्रवण की चेतना है।
एक आखिरी प्रश्न : हम अपने कर्मों को अक्सर दूसरों से छुपा लेते हैं। पर क्या हम श्रवण से छुपा सकते हैं?
नहीं। और यही विश्वास, यही सतर्कता, यही डर और यही श्रद्धा हमें सत्कर्म की ओर प्रेरित करती है। श्रवण कोई कथा मात्र नहीं, वह चेतना का प्रतीक हैं। वह दिव्य स्मृति हैं जो हमारे हर कार्य को संजोती है, ताकि अंत में न्याय हो निष्पक्ष, निर्लिप्त, और संपूर्ण।
श्रवण की उत्पत्ति: ब्रह्मा की दिव्य इच्छा से जन्मा एक सूक्ष्म चाक्षुष देव, ब्रह्मा ने जब सृष्टि रचना का संकल्प किया, तो केवल भौतिक पदार्थ नहीं बनाए, उन्होंने अदृश्य व्यवस्थाएं भी स्थापित कीं — वे व्यवस्थाएं जो सृष्टि को संतुलित रखती हैं।श्रवण उन्हीं में से एक हैं। वे ब्रह्मा के 'श्रवण शक्ति' के अवतार हैं। जैसा कि पुराणों में वर्णित है
"श्रवणः सर्वत्रगः सूक्ष्मो दृश्यमानो न जायते।"
अर्थात् “श्रवण सर्वत्र विचरण करने वाला, सूक्ष्म रूप में स्थित रहने वाला, परंतु स्वयं कभी देखा न जा सकने वाला है।”वेदों में उन्हें “श्रुति” के रूप में भी वर्णित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि वे केवल शब्द नहीं, सत्य की ध्वनि को ग्रहण करते हैं।
स्वरूप और शक्तियाँ: जो हमसे अधिक हमें जानता है : श्रवण का स्वरूप भौतिक नहीं है। उनका शरीर प्रकाश और वायु से भी सूक्ष्म है। वे न तो भोजन करते हैं, न विश्राम करते हैं। उनका एकमात्र धर्म है देखना और सुनना।
उनकी प्रमुख शक्तियाँ:
सर्वश्रुतिः किसी भी दिशा में घटित होने वाली कोई भी ध्वनि को सुनने की शक्ति।
दिव्यदृष्टिः सूक्ष्म शरीरों, विचारों और कर्मों को देख सकने की क्षमता।
मनस संप्रेषणम् : जो सुना और देखा, वह तत्काल चित्रगुप्त तक भेजने की शक्ति।
कालातीतगामी : समय से परे यात्रा कर सकना। वे भविष्य और भूत को एक साथ सुनते हैं।इन शक्तियों के कारण, वे केवल कर्मों की निगरानी नहीं करते, बल्कि उस भावना को भी समझते हैं जिसके साथ कर्म किया गया।
श्रवण का चित्रगुप्त से संबंध: देवों के बीच सूचना का पुल
चित्रगुप्त को देवताओं का मुख्य सचिव माना गया है। वे उन सूचनाओं को संकलित करते हैं जो श्रवण, दृष्टा और अन्य सूक्ष्म देव उनके पास भेजते हैं। श्रवण वह आंख और कान हैं, जिनसे चित्रगुप्त सुनते और देखते हैं। जब कोई आत्मा मृत्यु के पश्चात यमलोक पहुंचती है, तब उसके कर्मों की विवरणिका चित्रगुप्त प्रस्तुत करते हैं। परंतु वह विवरण, केवल बाहरी क्रियाओं पर नहीं, बल्कि भावना, संकल्प, प्रेरणा पर आधारित होता है और वह जानकारी लाते हैं श्रवण।
उदाहरण के लिए : किसी ने चोरी की पर पश्चात्ताप किया यह भी श्रवण ने देखा। किसी ने दान किया पर अहंकार से यह भी श्रवण ने सुना। श्रवण बाहर की ध्वनियों को ही नहीं सुनते। वे हमारे अंतर्मन की ध्वनि को भी ग्रहण करते हैं।
जब आप अकेले हों, और कोई शुभ या अशुभ विचार आपके मन में उठे तब भी वह एक सूक्ष्म तरंग के रूप में सृष्टि में प्रवाहित होता है, जिसे श्रवण पकड़ लेते हैं।
इसका आध्यात्मिक महत्व यह है कि कर्म केवल हाथों से नहीं, विचारों से भी होता है। और उसका साक्षी कोई 'बाहर वाला' नहीं, हमारे भीतर बैठा श्रवण होता है।
हालाँकि श्रवण का विस्तृत वर्णन किसी एक विशिष्ट कथा में नहीं है, परंतु पुराणों में जब भी चित्रगुप्त, धर्मराज या यम के कर्म-ज्ञान की बात होती है, वहाँ श्रवण की अदृश्य उपस्थिति को माना गया है।
गरुड़ पुराण में वर्णित है कि "धर्मराज यम की सभा में जब आत्मा प्रस्तुत होती है, तब उसके कर्मों की ध्वनि वहाँ पहले ही पहुँच चुकी होती है।"यह “ध्वनि” श्रवण के माध्यम से पहुँचती है। भारत के कई लोककथाओं में, 'श्रवण' एक प्रतीक रूप में सामने आता है: जहाँ कोई कहता है कि "देवता सब सुन रहे हैं", या जहाँ कहा जाता है, "ऊपर कोई देख रहा है",वहाँ श्रवण की चेतना बोल रही होती है।
जब आज के समाज में अपराध केवल छिपकर करने की कला बन गई हो, और जहां झूठ को भी बार-बार दोहराकर सच बनाया जाता हो, वहाँ श्रवण की उपस्थिति एक नैतिक प्रहरी के रूप में आवश्यक हो जाती है।
भगवान श्रीकृष्ण और श्रवण: लीला और न्याय का संतुलन
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएं रहस्य और धर्म के गूढ़ संदेशों से भरी होती हैं। उनका जीवन ही धर्म और अधर्म के बीच संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा कि श्रीकृष्ण, जो स्वयं सर्वज्ञ हैं, वह भी कई बार अपने लीला चरित्र में श्रवण जैसे दिव्य सहायकों की भूमिका को स्वीकृति देते हैं?
कथा प्रसंग: सत्यभामा की परीक्षा
एक बार द्वारका में सत्यभामा ने गर्ववश श्रीकृष्ण से कहा,“प्रभु! मैं आपसे सबसे अधिक प्रेम करती हूँ। मुझसे बढ़कर आपको कोई नहीं जानता, न समझता।”
श्रीकृष्ण मुस्कराए, बोले, “सत्यभामे, प्रेम केवल शब्दों में नहीं होता। उसका मूल्य कर्म और भावना से होता है। पर क्या तुम स्वयं जान पाओगी कि तुम्हारे मन में मेरे लिए क्या है?”
सत्यभामा हँसी, “प्रभु! आप कहिए कैसे जानूँ?”
तब श्रीकृष्ण ने कहा,“श्रवण को बुलाओ। वही बताएगा कि तुमने कब, कहाँ, क्या सोचा। क्योंकि वह हर आत्मा की सच्ची भावना सुनता है।”
श्रवण प्रकट हुए , सूक्ष्म, तेजस्वी, दिव्य। उन्होंने कहा,“हे वासुदेव, सत्यभामा का प्रेम गहरा है, पर उसमें अहंकार की थोड़ी परछाईं है। वह प्रेम के साथ स्वामित्व भी चाहती है। परंतु वह जल्द ही अपने को शुद्ध कर लेगी।”
सत्यभामा स्तब्ध रह गईं। उन्होंने पहली बार जाना कि कोई ऐसा भी है जो केवल क्रिया नहीं, मन की मंशा को जानता है।
गरुड़ और श्रवण: गति और गहराई का रहस्यमय संतुलन
गरुड़ को भगवान विष्णु का वाहन माना जाता है तेज, शक्ति और गति के प्रतीक। वे आकाश के स्वामी हैं, और हर दिशा में बिना बाधा विचरण कर सकते हैं।
परंतु एक बार जब उन्होंने विष्णु से पूछा,“प्रभु, क्या कोई है जो मुझसे भी अधिक गतिशील और सर्वज्ञ है?”
भगवान विष्णु मुस्कराए और बोले,“हां गरुड़, गति से भी अधिक आवश्यक है गहराई और निरंतरता। जिस समय तुम एक स्थान से दूसरे तक उड़ते हो, कोई ऐसा भी है जो हर स्थान पर एक साथ उपस्थित होता है। वह न केवल देखता है, बल्कि सुनता भी है और वही मेरे धर्म के लिए सूचना लाता है।”
गरुड़ ने पूछा, “कौन है वह?”
भगवान बोले, “श्रवण।”
यह सुनकर गरुड़ श्रवण से मिलने गए। उन्हें देखकर उन्होंने प्रणाम किया और कहा,“हे दिव्य दूत! मैं तो गति हूँ, पर आप तो मौन गति हैं। आप ही सच्चे प्रहरी हैं। मेरी उड़ान क्षणभंगुर है, पर आपकी उपस्थिति सनातन है।”
श्रवण मुस्कराए, बोले,“हे गरुड़, आप गति हैं, मैं श्रुति हूँ। आप ऊपर उड़ते हैं, मैं भीतर उतरता हूँ। दोनों मिलकर ही धर्म का संतुलन बनाए रखते हैं।”
श्रीकृष्ण और गरुड़ जैसे दिव्य पात्रों के संदर्भ में जब श्रवण की भूमिका उजागर होती है, तब यह स्पष्ट होता है कि श्रवण केवल कर्मों के गवाह नहीं, भावनाओं के साक्षी भी हैं।वे ईश्वर की न्यायिक लीला के मौन अंग हैं। उनका अस्तित्व धर्म, गति, ज्ञान और न्याय के मध्य संतुलन स्थापित करता है।
श्रवण देव के लिए समर्पित स्तोत्र (श्रवणाष्टक)
यह श्रवणाष्टक भक्त द्वारा आत्मचेतना को जाग्रत करने, विचारों की पवित्रता बनाए रखने और श्रवण देव के आशीर्वाद हेतु गाया जाता है।
|| श्रवणाष्टक स्तोत्रम् ||
शुद्धस्वरूपाय सदा वियुक्ताय।
सूक्ष्मेन्द्रियाणाम् अधिदेवताय॥
धर्मप्रवृत्तिं निरपेक्ष्य सूक्ष्मं।
वन्दे सदा श्रवणं निर्गुणं तम्॥1॥
यः कर्मणां भावम् उपेत्य धत्ते।
नादं च रूपं च समं प्रपश्येत्॥
चित्रगुप्तस्य सहायकारी।
श्रवणं तं नमाम्यहं भक्त्या॥2॥
नानारवाणाम् अनुनादयुक्तं।
मनोविकारं समतीत्य दृष्टम्॥
अन्वेषणायै न कदापि विश्रान्ति।
नमामि तं देवमुपेन्द्रवन्द्यम्॥3॥
यत्र मनः पापमपि विचिन्त्य।
श्रवणः तत्र भवति प्रतीतः॥
सच्चिन्तनायै सदा प्रेरणां दातुः।
करोतु मे शुभमायुः प्रदाय॥4॥
भारतवर्ष की संस्कृति हमेशा “श्रवण” पर आधारित रही है। श्रवण का अर्थ केवल कानों से सुनना नहीं, हृदय से ग्रहण करना है।
1. वेद : “श्रुति” पर आधारित
वेदों को “श्रुति” कहा गया, न कि “दृश्यम्”। क्योंकि धर्म पहले सुना जाता था, फिर समझा जाता था। यह श्रवण देव की परंपरा का ही विस्तार है।
2. गुरुकुल परंपरा मौन ग्रहण की साधना
प्राचीन गुरुकुलों में शिक्षा बोलकर कम, सुनकर अधिक दी जाती थी। गुरु एक मंत्र उच्चारित करता, और शिष्य वर्षों तक उसका श्रवण कर मन में अनुभव बनाता।
3. लोककथाएं, भागवत कथा, रामलीला श्रवण परंपरा
आज भी गाँवों में सत्संग, भागवत कथा, रामलीला — ये सब सुनने की शक्ति के विस्तार हैं। हर श्रोता वहाँ बैठकर मन के भीतर ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करता है।
श्रवण कोई कथा मात्र नहीं, वह चेतना का प्रतीक हैं। वह दिव्य स्मृति हैं जो हमारे हर कार्य को संजोती है, ताकि अंत में न्याय हो निष्पक्ष, निर्लिप्त, और संपूर्ण है। बल्कि आत्मा के गहनतम स्तर तक जाकर सत्य का साक्षात्कार करना है। गरुड़ जैसे महान दिव्य प्राणी भी जब श्रवण की सूक्ष्मता और निरंतर उपस्थिति से प्रभावित होते हैं, तब यह प्रमाणित हो जाता है कि श्रवण केवल एक पौराणिक पात्र नहीं, बल्कि सृष्टि के नैतिक संतुलन का आधार हैं।
श्रीकृष्ण की लीला के भीतर भी श्रवण जैसे दिव्य दूत की उपस्थिति यह दर्शाती है कि ईश्वर की व्यवस्था केवल दैविक हस्तक्षेप से नहीं, बल्कि सूक्ष्म चेतनाओं के माध्यम से भी संचालित होती है।
गरुड़ जैसे वेगवान देवता भी जब श्रवणको आदरपूर्वक प्रणाम करते हैं, तो यह दर्शाता है कि श्रवण केवल ज्ञाता ही नहीं, बल्कि 'धर्म-संवेदन' के वाहक हैं।
श्रवण वह दर्पण हैं, जिसमें आत्मा स्वयं को देख सकती है। वे हमारे विचारों के कंपन को सुनते हैं, हमारे संकल्पों की दिशा को पढ़ते हैं, और उसे निष्पक्ष रूप से चित्रगुप्त तक पहुंचाते हैं।
आज के तकनीकी युग में भी, जब सब कुछ रिकॉर्ड किया जा सकता है, श्रवण जैसे देवदूत यह याद दिलाते हैं कि आत्म-चेतना ही सबसे सशक्त निगरानी तंत्र है।