विनोद कुमार झा
धर्म पुराणों में वर्णित अस्त्रों में सुदर्शन चक्र की महिमा सबसे अनोखी है। यह केवल एक विनाशक शस्त्र नहीं बल्कि सृष्टि में धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश का प्रतीक है। इसके साथ जुड़ी कथाएं न केवल इसकी शक्ति, गति और स्वरूप का परिचय कराती हैं, बल्कि ईश्वर की भक्ति, तप और कर्तव्य के अद्वितीय संदेश भी देती हैं। यह चक्र भगवान विष्णु का प्रमुख आयुध है और समस्त ब्रह्मांडीय ऊर्जा का केंद्र माना गया है।
सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न पुराणों में अलग-अलग कथाएं मिलती हैं। विष्णु पुराण के अनुसार जब दैत्यों के अत्याचार चरम पर पहुँचे और देवता असहाय हो गए, तब वे श्रीहरि विष्णु के पास सहायता हेतु पहुँचे। श्रीहरि क्रोधित हुए और उनके इसी दिव्य क्रोध से सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति हुई। यह क्रोध केवल विनाशकारी नहीं था, वह धर्म की रक्षा हेतु एक रूपांतरित ऊर्जा थी, जो आयुध पुरुष के रूप में प्रकट हुई।
लेकिन शिव पुराण में इसका सबसे विस्तृत और आधिकारिक विवरण मिलता है। इस कथा के अनुसार, भगवान विष्णु ने महादेव से एक श्रेष्ठ अस्त्र की प्राप्ति के लिए 1000 वर्षों तक कठोर तपस्या की। हर वर्ष वे एक नीलकमल चढ़ाकर महादेव के एक-एक नाम का जाप करते। अंतिम पुष्प को महादेव ने छिपा लिया, तब श्रीहरि ने अपना नेत्र अर्पित करने का निर्णय लिया। तभी महादेव प्रकट हुए और प्रसन्न होकर अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति की और श्रीहरि को प्रदान किया।
एक अन्य रोचक कथा में श्रीदामा नामक असुर ने लक्ष्मी जी को वश में कर लिया था, जिससे समस्त सृष्टि श्रीहीन हो गई। तब भगवान विष्णु ने महादेव की घोर तपस्या की। महादेव ने तप से प्रसन्न होकर उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया, जिससे श्रीहरि ने असुर का अंत किया और पुनः श्री को सृष्टि में पुनःस्थापित किया।
भगवान विष्णु से कृष्ण तक कालचक्र की यात्रा : सुदर्शन चक्र की यात्रा केवल एक अस्त्र के रूप में नहीं, बल्कि एक जाग्रत चेतना के रूप में भी देखी जाती है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि श्रीहरि ने हयग्रीव नामक राक्षस का वध कर सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। वहीं महाभारत में परशुराम जी ने यह अस्त्र श्रीकृष्ण को सौंपा, क्योंकि वे उसके योग्य थे। श्रीकृष्ण ने इस चक्र का प्रयोग अनेक बार किया शिशुपाल वध, जयद्रथ के वध हेतु सूर्यग्रहण की रचना, और भगवद्गीता उपदेश के समय काल को रोकना ये सब इसी की महिमा से संभव हुए।
एक रोचक प्रसंग अंबरीष और दुर्वासा ऋषि से जुड़ा है। अंबरीष ने भगवान विष्णु की इतनी कठोर साधना की थी कि उन्होंने सुदर्शन चक्र को उनका रक्षक बना दिया। दुर्वासा ऋषि ने क्रोध में आकर अंबरीष को श्राप देना चाहा, लेकिन चक्र ने उनका पीछा करना शुरू कर दिया। ऋषि ब्रह्मा, शिव और अंत में विष्णु तक पहुँचे, लेकिन केवल विष्णु की कृपा से ही उन्हें चक्र से मुक्ति मिली।
सुदर्शन चक्र की बनावट को लेकर कई मत हैं। अग्नि पुराण के अनुसार, इसे विश्वकर्मा ने सूर्य की भस्म से बनाया था और इसकी आरियों की संख्या एक करोड़ थी, जो विपरीत दिशाओं में घूमती थीं। शिव पुराण में इसका प्रामाणिक रूप वर्णित है जिसमें 12 आरे, 6 नाभियाँ , और 2 युग बताए गए हैं। इसमें देवता, ऋतुएँ, राशियाँ, महीने, हनुमान, धन्वंतरि आदि प्रतिष्ठित थे।
कुछ ग्रंथों में यह भी कहा गया है कि यह चक्र चाँदी से बना था और इसकी सतह पर विषैले शूल लगे होते थे। इसके चलने पर प्रलय जैसी अग्नि उत्पन्न होती थी और यह हवा की गति से भी तेज चल सकता था। इसकी गति इतनी तीव्र थी कि यह समय को भी रोक सकता था। यही कारण है कि ऋग्वेद में इसे कालचक्र की संज्ञा दी गई है।
सुदर्शन चक्र केवल एक अस्त्र नहीं, एक मंत्रमयी चेतना है। विष्णु पुराण में इसका एक पवित्र मंत्र उल्लेखित है जो इस प्रकार है: ॐ सुदर्शनाय विद्महे महा ज्वालाय धीमहि। तन्नो चक्रः प्रचोदयात।”
इस मंत्र का जप करने से दुष्ट शक्तियों से रक्षा, आध्यात्मिक उन्नति, और चित्त की शुद्धि होती है। यह चक्र न केवल भौतिक स्तर पर विनाशकारी था, बल्कि मानसिक और आत्मिक कल्याण का भी प्रतीक था।
सुदर्शन चक्र वह शक्ति है जो अन्याय, अधर्म और अहंकार का नाश करती है, वो भी केवल तब, जब धर्म की रक्षा की आवश्यकता हो। यह अस्त्र ईश्वर और आत्मा के बीच की वह कड़ी है जो बताती है कि सच्चे मन, तप और निष्ठा से कोई भी साधक ईश्वर की शक्ति का अधिकारी बन सकता है। यह चक्र न केवल भगवान विष्णु का प्रतीक है, बल्कि संतुलन, व्यवस्था और न्याय का शाश्वत संदेश भी है।