कहानी: अपनी परछाई

लेखक : विनोद कुमार झा

धूप तेज थी। सड़क पर भागती ज़िंदगियाँ अपनी-अपनी मंज़िल की ओर दौड़ रही थीं। इन्हीं भागती रेखाओं के बीच एक छोटा-सा चेहरा उदास बैठा था आरव। कंधे पर फटा हुआ बैग था, जिसमें कुछ किताबें और एक अधखाई रोटी दब रही थी। उम्र मुश्किल से पंद्रह साल, पर आँखों में ऐसा खालीपन कि मानो पूरा जीवन देख चुका हो।

आरव एक छोटे से गाँव से आया था  जहाँ शिक्षा सिर्फ नाम की थी। वहाँ का स्कूल टूटी छतों और गिरी हुई दीवारों के बीच जूझता रहा था। अध्यापक महीने में एक बार आते थे, और बच्चों को बस इतना सिखाते थे कि शहर जाकर किसी होटल में बर्तन मांजने लायक बन जाएँ। शिक्षा, सिर्फ भाषणों तक सीमित थी।  

शिक्षा, वहाँ एक सपना थी  दूर चमकता हुआ, छूने से पहले बुझ जाता था।जब सपनों के आकाश में शिक्षा के बिना उड़ान असंभव हो, जब रोजगार की तलाश में इज्जत खोने लगती है, और जब सामाजिक सुरक्षा सिर्फ कागजों में सिमट जाती है  तब एक आम बच्चा क्या कर सकता है?  

यही सवाल खड़ा होता है आरव की कहानी में, जो महज एक नाम नहीं, बल्कि लाखों अनदेखे चेहरों की परछाई है।  यह कहानी सिर्फ एक संघर्ष नहीं, बल्कि उस उम्मीद की दस्तक है जो बताती है कि बदलना मुमकिन है।

गरीबी ने बचपन से ही आरव को कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी लाद दी।  जैसे-जैसे खेत सूखते गए, वैसे-वैसे सपने भी मुरझाने लगे।  बिना संसाधनों के शिक्षा एक 'शौक' बन गई, और पेट भरना सबसे बड़ी 'आवश्यकता'।

जब घर में चूल्हा ठंडा पड़ने लगा, तो एक रात पिता ने कहा "बेटा, शहर चला जा। यहाँ भूख से मरना तय है।"

आरव का शहर में पहला परिचय धूल से, धक्कों से और बेरुखी से हुआ।  दिनभर काम की तलाश में भटकते हुए एक ही सवाल सुनता 

"पढ़ाई कितनी की है?"

उत्तर में जब 'छठी पास' कहता, तो दरवाजे बंद हो जाते। शहर में मजदूरी, अपमान और भूख उसके रोजमर्रा के साथी बन गए।  शिक्षा की कमी ने उसे रोजगार की कतार से भी बाहर धकेल दिया।

चाय की दुकान, ढाबा, होटल  हर जगह काम मिला, लेकिन सम्मान कहीं नहीं।  बर्तन मांजते हुए और झाड़ू लगाते हुए आरव ने जाना कि समाज में इज्जत सिर्फ उन्हीं को मिलती है जिनके पास डिग्री होती है।  

बिना पढ़ाई के, वह महज एक अदृश्य परछाई बनकर रह गया।  कई बार ग्राहकों के तानों ने उसे तोड़ने की कोशिश की,  "अगर पढ़े होते, तो आज ये हालत न होती!" आरव की आँखें छलक उठतीं, लेकिन हौसला नहीं टूटा।

एक रात फुटपाथ पर लेटे हुए आरव ने खुद से वादा किया  "अब पढ़ाई छोड़नी नहीं है। चाहे जैसे भी हो।" पुरानी अखबारों से पढ़ाई शुरू हुई।  फिर एक बुजुर्ग शिक्षक ने उसकी लगन देखी और एक NGO से जोड़ दिया।  रात के स्कूल में फटी किताबों, टूटी चप्पलों और थके हुए शरीर के साथ उसने शिक्षा की लड़ाई लड़ी। तीन साल की अनथक मेहनत के बाद दसवीं की परीक्षा पास कर ली।  छोटा कदम, लेकिन सपनों के लिए पहला मजबूत आधार।

दसवीं पास करने के बाद उसने कंप्यूटर ट्रेनिंग ली।  अब वह डाटा एंट्री ऑपरेटर बन गया था।  छोटा वेतन, लेकिन आत्मसम्मान विशाल।  

समाज में अब लोग उसे 'कर्मचारी' कहते थे, 'चाय वाला' नहीं।  यह एक छोटा-सा परिवर्तन था, लेकिन आरव के लिए ये उसके अस्तित्व की पुनर्खोज थी।  रोजगार अब सिर्फ जीविका का साधन नहीं था, सम्मान का पर्याय बन चुका था।

शहर की सड़कों पर चलते हुए आरव ने जाना कि सरकारी योजनाएँ पोस्टरों पर जितनी चमकती हैं, हकीकत में गरीबों तक उतनी ही मुश्किल से पहुँचती हैं।  

अस्पताल में इलाज के लिए पहले पैसे माँगे जाते थे, फिर दवा।  बिना पहचान, बिना साधन गरीब की ज़िंदगी कागज पर भी अधूरी रह जाती है।  लेकिन अब आरव जान गया था कि अधिकार माँगने से नहीं, छीनने से मिलते हैं।  उसने सभी जरुरी दस्तावेज बनवाए आधार कार्ड, बैंक खाता, बीमा।  अब वह जानता था कि सिर्फ मजदूरी से नहीं, कानूनी पहचान से भी सुरक्षा मिलती है।

चार साल बाद, आरव ने तय किया कि अब गाँव लौटना है लेकिन मजदूरी करने नहीं, बदलाव लाने। बचत और सरकारी सहायता से उसने गाँव में एक छोटा-सा लर्निंग सेंटर खोला  'नई सुबह'।  आज वहाँ चालीस से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं।  वे बच्चे जो पहले बकरी चराते थे, अब किताबें थामे भविष्य के सपने बुन रहे हैं।

आज आरव किसी होटल का नौकर नहीं, एक प्रेरणा है।  गाँव के लोग उसे आदर से देखते हैं।  जब वह मंच से बोलता है, तो उसकी आँखों में चमक होती है और शब्दों में आग   "शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा  ये तीन स्तंभ हैं जिन पर इज्जत की इमारत टिकती है। इन्हें पाना अधिकार नहीं, जीवन का संघर्ष है।"

आरव ने अपनी खोई हुई परछाई वापस पा ली थी।  अब वह खुद एक रास्ता था उन सभी के लिए जो अंधेरों से उजालों तक का सफर करना चाहते हैं।

अपनी परछाई केवल आरव की नहीं, बल्कि उन करोड़ों बच्चों की कहानी है जिनकी संभावनाएँ गरीबी के अंधेरों में खो जाती हैं।  यह कहानी हमें याद दिलाती है कि जब तक हर हाथ में किताब और हर सिर पर इज्जत का ताज नहीं होगा, तब तक हमारा समाज अधूरा रहेगा।  शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा ये सिर्फ सरकारी नारे नहीं, बल्कि एक इंसान की असली आज़ादी की बुनियाद हैं।

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