अष्टलक्ष्मी: भक्ति, शक्ति और समृद्धि के आठ पावन द्वार

विनोद कुमार झा

भारतीय संस्कृति में जब हम 'शक्ति' की बात करते हैं, तो केवल बाह्य बल या सत्ता नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू में उपस्थित दिव्य ऊर्जा की चर्चा होती है। यही शक्ति जब सौंदर्य, समृद्धि, ऐश्वर्य और कल्याण का स्वरूप धारण करती है, तब वह माता लक्ष्मी के रूप में प्रकट होती है। श्रीहरि विष्णु की अर्द्धांगिनी माता लक्ष्मी केवल धन की देवी नहीं, बल्कि वे जीवन के विविध रंगों की संरक्षिका हैं। ज्ञान, संतान, विजय, भोजन, बल, बुद्धि और मूल सृष्टि की ऊर्जा।  

शास्त्रों में वर्णित अष्टलक्ष्मी माता लक्ष्मी के आठ रूप हमें यह सिखाते हैं कि समृद्धि केवल धन तक सीमित नहीं होती, यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संतुलन, संतोष और उन्नति से जुड़ी होती है। इन आठ स्वरूपों की आराधना न केवल सुख-समृद्धि देती है, बल्कि व्यक्ति को अपने जीवन-पथ पर विजयी और उन्नत बनाती है। आइए, श्रद्धा और कथा के माध्यम से माता लक्ष्मी के आठ दिव्य स्वरूपों की महागाथा को विस्तार से जानें:-

1. आदि लक्ष्मी (मूल शक्ति का स्वरूप) : आदि लक्ष्मी को महालक्ष्मी कहा जाता है, और इन्हें समस्त ब्रह्मांड की आदिशक्ति माना गया है। श्रीमद् देवीभागवत के अनुसार, जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था, न आकाश, न पृथ्वी, न जल, न अग्नि तब इस ब्रह्मांड में केवल महाशक्ति ही व्याप्त थीं। वहीं से आदिलक्ष्मी प्रकट हुईं। इन्हीं की इच्छा से ब्रह्मा, विष्णु और महेश का जन्म हुआ।  जब सृष्टि की रचना प्रारंभ हुई, तो आदिलक्ष्मी ने स्वयं भगवान विष्णु से विवाह कर जगत के पालन की प्रक्रिया को गति दी। इन्हें जीवन की मूल ऊर्जा माना जाता है, जो हमें स्थायित्व, संरक्षण और आंतरिक शांति प्रदान करती हैं

2. धार्या लक्ष्मी (शौर्य और संयम की देवी) : जब राक्षसी शक्तियाँ पृथ्वी पर अत्याचार करने लगीं, तब शक्ति ने वीरता का रूप धारण किया। धार्या लक्ष्मी उसी स्वरूप की प्रतीक हैं। इन्हें  वीर लक्ष्मी भी कहा जाता है। देवी ने महिषासुर जैसे बलशाली असुर का वध कर देवताओं को उनके स्वर्गलोक में पुनः प्रतिष्ठित किया। धार्या लक्ष्मी हमें जीवन की लड़ाइयों में निडरता प्रदान करती हैं। जब व्यक्ति संघर्ष में घिरा होता है, जब परिस्थिति प्रतिकूल हो, तब यही देवी शक्ति बनकर व्यक्ति के भीतर धैर्य, साहस और संयम उत्पन्न करती हैं। उनका आशीर्वाद अकाल मृत्यु से रक्षा करता है और निर्णय में स्पष्टता देता है।

 3. संतान लक्ष्मी (माँ के वात्सल्य की मूर्ति) : संतान लक्ष्मी का रूप मातृत्व के सर्वोच्च प्रेम और त्याग का प्रतीक है। इन्हें  स्कंदमाता भी कहा जाता है, जो भगवान कार्तिकेय की माता हैं। जब देवताओं को नेतृत्व के लिए एक शक्तिशाली योद्धा की आवश्यकता थी, तब माँ पार्वती ने अपने तेज से स्कंद को उत्पन्न किया, इसी परंपरा में संतान लक्ष्मी की पूजा होती है। ये देवी केवल संतान देने वाली नहीं, बल्कि संतान के चरित्र, स्वास्थ्य और भाग्य की भी रक्षक हैं। इनके वरद हस्त से संतान संस्कारी, दीर्घायु और ज्ञानवान बनती है। माता-पिता में संतान के प्रति दायित्व की भावना जागृत करना भी इन्हीं का कार्य है।

4. विद्या लक्ष्मी (ज्ञान की अधिष्ठात्री) : विद्या लक्ष्मी देवी सरस्वती के समान रूप हैं, जो ज्ञान, विवेक और आत्मबोध का मार्ग प्रशस्त करती हैं। जब व्यक्ति अज्ञान, भ्रम या आत्म-संदेह से घिरा होता है, तब विद्या लक्ष्मी उसके भीतर ज्ञान का प्रकाश करती हैं। इनकी चार भुजाओं में पुस्तक, कमल, जपमाला और अभय मुद्रा होती है। ये केवल औपचारिक शिक्षा की देवी नहीं हैं, बल्कि आत्मज्ञान और आध्यात्मिक बोध की ओर भी मार्गदर्शन करती हैं। विद्यार्थी और साधक, दोनों ही इनके आश्रय में अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं।

 5. धान्य लक्ष्मी (अन्न और कृषि की रक्षक) : जब प्रकृति संतुलन में होती है, वर्षा समय पर होती है, और भूमि अन्न से भर जाती है तब हम कहते हैं कि धान्य लक्ष्मी प्रसन्न हैं। ये देवी अन्न, पोषण और खाद्य सुरक्षा की अधिष्ठात्री हैं।  इनके आठ हाथों में चावल, फल, अनाज, हल आदि होते हैं। इन्हें माता अन्नपूर्णा का ही रूप माना गया है, जो कभी काशी में भगवान शिव को भी अन्न दान करने आई थीं। ये देवी इस बात की प्रतीक हैं कि भोजन केवल शरीर का पोषण नहीं करता, वह समाज में दया, समानता और सेवा की भावना भी भरता है।

 6. गज लक्ष्मी (समृद्धि और पशुधन की देवी) : गज लक्ष्मी उस समय प्रकट हुईं जब समुद्र मंथन हुआ और उसके परिणामस्वरूप अमृत के साथ अनेक रत्न प्रकट हुए। उन्हीं में से एक थीं गज लक्ष्मी, जो दो गजों (हाथियों) द्वारा जल से अभिषिक्त होती हुई प्रकट हुईं।  ये देवी पशुधन, कृषि और आर्थिक स्थिरता का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनके आशीर्वाद से घर में गायें, बैल, हाथी जैसे पशु जो खेती और व्यापार में सहायक होते हैं, वृद्धि को प्राप्त होते हैं। इनका आह्वान हरियाली, समृद्धि और कृषक जीवन की उन्नति हेतु किया जाता है।

7. विजय लक्ष्मी (संकल्प और सफलता की देवी) : विजय लक्ष्मी, जिन्हें जय लक्ष्मी भी कहा जाता है, जीवन की उन घड़ियों में हमारा साथ देती हैं जब हम निर्णायक संघर्ष में होते हैं चाहे वह युद्ध हो, कोर्ट-कचहरी हो या आंतरिक आत्म-संघर्ष।  इनकी आठ भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और तलवार होती है, जो प्रतीक हैं आत्मरक्षा और विजय के। इनकी कृपा से व्यक्ति अन्याय से लड़ने का साहस पाता है और संकटों में भी अडिग रहता है। ये हिम्मत, आत्मबल और अंततः सफलता प्रदान करती हैं।

 8. धन लक्ष्मी (धन, ऐश्वर्य और स्वर्ण की देवी) : धन लक्ष्मी सबसे प्रसिद्ध स्वरूप हैं, जिन्हें हम श्री लक्ष्मी के नाम से जानते हैं। ये वह रूप हैं जिनकी दीपावली पर विशेष पूजा होती है। कथा अनुसार, जब भगवान विष्णु ने कुबेर से विवाह के लिए ऋण लिया था, तब उसकी पूर्ति हेतु माता लक्ष्मी ने धन लक्ष्मी का रूप धारण किया। इनके छह हाथों में सोने के सिक्के, कमल, कलश, शंख आदि होते हैं। ये केवल भौतिक धन ही नहीं देतीं, बल्कि लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु आत्मबल, आत्मविश्वास और निर्णायकता भी देती हैं।

अष्टलक्ष्मी की आराधना केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, बल्कि यह जीवन को हर स्तर पर संतुलित और समृद्ध बनाने का साधन है। इन आठ रूपों का गहराई से चिंतन हमें यह सिखाता है कि समृद्धि एक बहुआयामी अनुभव है—धन, विद्या, बल, संतुलन, प्रेम और विजय, सभी का एक साथ होना ही सच्ची लक्ष्मी की प्राप्ति है।


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